जागरण-चरण

Last Updated 05 Nov 2019 12:16:23 AM IST

जागरण की तीन सीढ़ियां हैं। पहली सीढ़ी-प्राथमिक जागरण। बुरे का अंत हो जाता है और शुभ की बढ़ती होती है। अशुभ विदा होता होता है। शुभ घना होता है।




आचार्य रजनीश ओशो

द्वितीय चरण-शुभ विदा होने लगता है, शून्य घना होता है। और तृतीय चरण-शून्य भी विदा हो जाता है। तब  जो सहज अवस्था रह जाती है,जो शुद्ध चैतन्य रह जाता है बोधमात्र, वही बुद्धावस्था है,वही निर्वाण है।

शुरू करो जागना तो पहले तुम पाओगे जो गलत है, छूटने लगा। गंदी करके कर रहा है। जैसे धूम्रपान। सिगरेट पीने में पाप नहीं है। बुद्धूपन जरूर है, मूढ़ता जरूर है, लेकिन पाप नहीं है। मूढ़ता इसलिए है कि शुद्ध हवा ले जा सकता था और प्राणायाम कर लेता। प्राणायाम ही कर रहा है। लेकिन नाहक हवा को गंदी करके कर रहा है। धूम्रपान एक तरह का मूढ़तापूर्ण प्राणायाम है। योग साध रहे हैं। मगर वह भी खराब करके।अगर तुम जरा होशपूर्वक सिगरेट पियोगे पीना मुश्किल हो जाएगा।

मूढ़ता इतनी प्रकटता से दिखाई पड़ेगी कि हाथ की सिगरेट हाथ में रह जाएगी। तो पहले ऐसी व्यर्थ की चीजें छूटनी शुरू होंगी। फिर धीरे-धीरे तुम जो गलत करते थे, जरा-जरा सी बात पर क्रुद्ध हो जाते थे, नाराज हो जाते थे, वह छूटना शुरू हो जाएगा। बुद्ध ने कहा है : किसी दूसरे की भूल पर तुम्हारा क्रुद्ध होना ऐसे ही है जैसे किसी दूसरे की भूल पर अपने को दंड देना।

और जैसे-जैसे ही बुरा छुटेगा, तो जो ऊर्जा बुरे में नियोजित थी। वह भले में संलग्न होने लगेगी। फिर दूसरा चरण-भले की भी समाप्ति होने लगेगी; क्योंकि प्रेम भी बिना घृणा के नहीं जी सकता। वह घृणा का ही दूसरा पहलू है। वह परिवर्तनीय है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तो पहले बुरा गया, सिक्के का एक पहलू विदा हुआ; फिर दूसरा पहलू भी विदा हो जाएगा, फिर भला भी विदा हो जाएगा। और शून्य की बढ़ती होगी। तुम्हारे भीतर शांति की बढ़ती होगी। न शुभ न अशुभ। तुम निर्विषय होने लगोगे, निर्विकार होने लगोगे।

और तीसरे चरण में, अंतिम चरण में, यह भी बोध न रह जाएगा कि मैं शून्य हो गया हूं, क्योंकि जब तक यह बोध कि मैं शून्य हूं, तब तक एक विचार अभी शेष है-मैं शून्य हूं, यह विचार शेष है। यह विचार भी जाना चाहिए। यह भी चला जाएगा। तब तुम रह गए निर्विचार,निर्विकल्प। उस को ही पतंजलि ने कहा है निर्बीज समाधि; बुद्ध ने  कहा है निर्वाण; महावीर ने कहा है कैवल्य की अवस्था। जो नाम तुम्हें प्रीतिकर हो, वह नाम तुम दे सकते हो-अमि झरत बिगसत कवंल।



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