संकट का शुभ
ऐसा कहा गया है कि तनावपूर्ण समय में-सामाजिक, आर्थिक, धार्मिंक उथल-पुथल के समय में-विराट शुभ संभव होता है.
आचार्य रजनीश ओशो |
क्या यह सूत्र इसी घटना की तरफ इंगित करता है जिसका हमें यहां पूना में आपके सान्निध्य में अनुभव मिल रहा है? हां; संकट की घड़ी बहुत कीमती घड़ी है. जब चीजें व्यवस्थित होती हैं, कहीं कोई संकट नहीं होता तो चीजें मर जाती हैं.
जब कुछ बदल नहीं रहा होता तो तो करीब-करीब असंभव ही होता है स्वयं को बदलना. जब हर चीज अस्त-व्यस्त होती है, स्थायी नहीं होती, सुरक्षित नहीं होती, कोई नहीं जानता कि अगले पल क्या होगा-ऐसे अराजक समय में तुम स्वतंत्र होते हो, रूपांतरित हो सकते हो, उपलब्ध हो सकते हो अपनी अंतस सत्ता के आत्यंतिक केंद्र को.
यह जेल जैसा ही है:हर चीज सुव्यवस्थित होती है तो किसी कैदी के लिए बाहर आना, जेल से भाग निकलना करीब-करीब असंभव ही होता है. लेकिन सोचो: भूचाल आया हो, हर चीज अव्यवस्थित हो गई हो, पता न हो कि पहरेदार कहां हैं, जेलर कहां है, सारे नियम टूट गए हों, हर कोई जान बचा कर भाग रहा हो-तो कैदी जरा भी सजग हो तो भाग सकता है; बिल्कुल मूर्ख है, तो ही अवसर चूकेगा. समाज उथल-पुथल में होता है, अराजकता-सी फैल जाती है. इस समय तुम चाहो, तो निकल सकते हो कैद से.
बहुत आसान है, क्योंकि कोई तुम्हारे पीछे नहीं है. परिस्थिति ऐसी है कि हर कोई अपनी फिक्र कर रहा होता है-तुम्हारी तरफ कोई नहीं देख रहा होता. चूकना मत इस घड़ी को. संकट की घड़ियों में लगभग सदा ही बहुत लोगों को बुद्धत्व घटा है.
समाज व्यवस्थित हो तो करीब-करीब असंभव ही होता है विद्रोह करना, अतिक्रमण करना, नियमों का अनुसरण न करना, तो बुद्धत्व ज्यादा कठिन हो जाता है-क्योंकि बुद्धत्व है स्वतंत्रता; बुद्धत्व है परम स्वच्छंदता. वस्तुत: वह है समाज से हटना और एक व्यक्ति बनना. समाज पसंद नहीं करता व्यक्तियों को: वह पसंद करता है यंत्र-मानवों को, जो लगते तो हैं बिल्कुल व्यक्तियों की भांति लेकिन व्यक्ति होते नहीं.
उसे पसंद हैं मुखौटे, चालबाज, पाखंडी. प्रामाणिक व्यक्ति तो एक झंझट होता है. एक प्रामाणिक व्यक्ति सदा मुक्त होता है. तुम जबरन उस पर चीजें आरोपित नहीं कर सकते; कैदी या गुलाम नहीं बना सकते. वह अपना जीवन गंवाना पसंद करेगा, लेकिन वह अपनी स्वतंत्रता खोना पसंद नहीं करेगा. स्वतंत्रता उसके लिए जीवन से भी ज्यादा कीमती है.
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