आजादी
समाजवाद कहता है कि हम समानता लाना चाहते हैं. लेकिन बड़ा मजा यह है कि और इसलिए समाजवाद कहता है कि समानता लाने के पहले स्वतंत्रता छीननी पड़ेगी. तो हम स्वतंत्रता छीनकर सब लोगों को समान कर देंगे.
ओशो (फाइल फोटो) |
ध्यान रहे कि स्वतंत्रता है तो समानता के लिए संघर्ष कर सकते हैं लेकिन अगर स्वतंत्रता नहीं है तो समानता के लिए संघर्ष करने का कोई उपाय आदमी के पास नहीं रह जाता है. आज एक मित्र मुझसे कह रहे थे कि मैं आपसे बैठकर विवाद कर रहा हूं. और हम तय कर रहे हैं कि सोशलिज्म ठीक है या कैपिटिलज्म ठीक है. तो मैंने उनसे कहा कि यह विवाद तभी तक चल सकता है जबतक कैपिटिलज्म है.
जिस दिन सोशलिज्म होगा हम विवाद न कर सकेंगे. उस दिन फिर विवाद का कोई मौका नहीं है. यह जो हम बात कर पा रहे हैं आज कि समाजवाद उचित है या नहीं, पूंजीवाद उचित है या नहीं यह बात समाजवादी दुनिया में संभव नहीं है. रूस के सारे अखबार सरकारी है. एक भी गैर सरकारी अखबार नहीं है. सारा पब्लिकेशन, सारा प्रकाशन सरकारी है. एक किताब गैर सरकारी नहीं छप सकती है.
आप क्या करेंगे? स्वतंत्रता एक बार छीन गई तो समानता की बात भी उठाने का मौका नहीं मिलेगा. इसलिए मैं मानता हूं अगर समानता कभी दुनिया में लानी है तो स्वतंत्रता छीनकर नहीं, स्वतंत्रता बढ़ाकर ही लाई जा सकती है. समानता जो है वह आज अगर नहीं है तो उसका कारण पूंजीवाद नहीं है. समानता न होने का बुनियादी कारण बिल्कुल दूसरा है जिस पर समाजवादी पट्टी डालना चाहते हैं.
समाज समान नहीं है क्योंकि समाज में समान होने लायक संपत्ति नहीं है. समाज इसलिए असमान नहीं है कि पूंजीपति हैं और गरीब हैं. पूंजीपति और गरीब भी इसलिए हैं क्योंकि संपत्ति कम है. और संपत्ति इतनी ज्यादा नहीं है कि सब अमीर हो सकें. सवाल राजनीतिक परिवर्तन का नहीं है ,असली सवाल मुल्क में संपत्ति को अधिक पैदा करने के उपाय खोजने का है.
असली सवाल यह है कि संपत्ति नहीं है.वह कैसे पैदा की जाए? संपत्ति पैदा करने की जो व्यवस्था पूंजीवाद के पास है वह समाजवाद के पास नहीं है क्योंकि पूंजीवाद के पास व्यक्तिगत प्रेरणा की आधारशिला है. एक-एक व्यक्ति उत्प्रेरित होता है संपत्ति कमाने को, प्रतिस्पर्धा को, प्रतियोगिता को. समाजवाद में न तो प्रतियोगिता का उपाय है न प्रतिस्पर्धा का उपाय है.
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