स्वयं में डूबो

Last Updated 07 Feb 2017 06:06:19 AM IST

एक राजा ने किसी सामान्यत: स्वस्थ और संतुलित व्यक्ति को कैद कर लिया था- एकाकीपन का मनुष्य पर क्या प्रभाव होता है, इस अध्ययन के लिए. वह व्यक्ति कुछ समय तक चीखता रहा, चिल्लाता रहा.


आचार्य रजनीश ओशो

बाहर जाने के लिए रोता था, सिर पटकता था- उसकी सारी सत्ता जो बाहर थी. सारा जीवन तो ‘पर’ से अन्य बंधा था. अपने में तो वह कुछ भी नहीं था. अकेला होना न होने के ही बराबर था. वह धीरे-धीरे टूटने लगा. उसके भीतर कुछ विलीन होने लगा, चुप्पी आ गई. रुदन भी चला गया.

आंसू भी सूख गए और आंखें ऐसे देखने लगीं, जैसे पत्थर हों. वह देखता हुआ भी लगता जैसे नहीं देख रहा है. दिन बीते, वर्ष बीत गया. उसकी सुख-सुविधा की सब व्यवस्था थी. जो उसे बाहर उपलब्ध नहीं था, वह सब कैद में उपलब्ध था. शाही आतिथ्य जो था! लेकिन वर्ष पूरे होने पर विशेषज्ञों ने कहा, ‘वह पागल हो गया है. ‘ऊपर से वह वैसा ही था. शायद ज्यादा ही स्वस्थ था, लेकिन भीतर? भीतर एक अर्थ में वह मर ही गया था. मैं पूछता हूं : क्या एकाकीपन किसी को पागल कर सकता है? एकाकीपन कैसे पागल करेगा?

वस्तुत: पागलपन तो पूर्व से ही है. बाह्य संबंध उसे छिपाये थे. एकाकीपन उसे अनावृत कर देते हैं. मनुष्य को भीड़ में खोने की अकुलाहट उससे बचने के लिए ही है. प्रत्येक व्यक्ति इसलिए ही स्वयं से पलायन किए हुए है. पर यह पलायन स्वस्थ नहीं कहा जा सकता है. तथ्य को न देखना, उससे मुक्त होना नहीं है. जो नितांत एकाकीपन में स्वस्थ और संतुलित नहीं है, वह धोखे में है.

यह आत्मवंचन कभी न कभी खंडित होगी ही और वह जो भीतर है, उसे उसकी परिपूर्ण नग्नता में जानना होगा. यह अपने आप अनायास हो जाए, तो व्यक्तित्व छिन्न-भिन्न और विक्षिप्त हो जाता है. जो दमित है, वह कभी-न-कभी विस्फोट को भी उपलब्ध होगा. धर्म इस एकाकीपन में स्वयं उतरने का विज्ञान है. क्रमश: एक-एक परत उघाड़ने पर अद्भुत सत्य का साक्षात होता है.

धीरे-धीरे ज्ञात होता है कि वस्तुत: हम अकेले ही हैं. गहराई में, आंतरिकता के केंद्र पर प्रत्येक एकाकी है. परिचित होते ही भय की जगह अभय और आनंद ले लेता है. एकाकीपन के घेरे में स्वयं सच्चिदानंद विराजमान है. अपने में उतरकर स्वयं प्रभु को पा लिया जाता है. इससे कहता हूं-अकेलेपन से, अपने से भागो मत, वरन अपने में डूबो. सागर में डूब कर ही मोती पाए जाते हैं.



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