Mirza Ghalib Birthday: 'पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है कोई बतलाओ के हम बतलाएं क्या'

Last Updated 27 Dec 2023 12:21:12 PM IST

‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है'


मिर्ज़ा ग़ालिब

मिर्जा गालिब की गिनती मशहूर शायरों में होती है। वो शायरी नहीं बल्कि शब्दों की जादूगरी करते थे। मिर्जा गालिब उर्दू और फारसी भाषा के ऐसे फनकार थे, जिनके शेर को आप किसी भी मौके पर इस्तेमाल कर सकते हैं। महबूबा से मिलने की खुशी हो या बिछड़ने का गम, आलिंगन की मादकता हो या कल्पना की उड़ान, आज की युवा पीढ़ी भी ग़ालिब की शायरी की क़ायल है। आज भी उनके शेरों के साथ इज़हार ए इश्क़ होता है और जब दिल टूटता है तो उनके ही शेर मरहम का काम भी करते हैं।

जब भी शेर-ओ-शायरी का ज़िक्र होता है गालिब का नाम सफा ए अव्वल पर आता है। वो मौजूदा दौर में भी अपनी ग़ज़ल और शायरी के ज़रिए ज़िंदा हैं। क्योंकि गालिब ऐसे अजीज शख्सियत हैं जो वक्त की धूल में कभी खो नहीं सकते।

बता दें कि मिर्ज़ा का असली नाम मिर्जा असदुल्लाह बेग खान था। बाद में उन्होंने अपना नाम मिर्जा गालिब कर लिया। जिसका अर्थ है "विजेता"। ग़ालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को उनके ननिहाल आगरा में एक दौलतमंद ख़ानदान में हुआ था, उनकी शादी दिल्ली के और भी ज़्यादा  दौलतमंद ख़ानदान की लड़की से हुई मगर होशमंद होने के बाद फिक्र-ए-माश का साया ग़ालिब पर बराबर बना रहा और जिन्दगी मुश्किल से मुश्किलतर होती रही।

ग़ालिब की एक बहुत अच्छी आदत थी कि वो किसी का दिल तोड़ने में यक़ीन नहीं रखते थे। वाक़या कुछ यूं है कि सुरूर ग़ालिब से मिलने आए. तआरूफ़ ठीक से नहीं हो पाया था इसलिए ग़ालिब जान नहीं पाए कि ये लखनऊ वाले सुरूर हैं।

उन दिनों सुरूर की किताब फ़साना-ए-अजायब की बड़ी धूम थी। दौरान-ए-गुफ़्तगू सुरूर ने ग़ालिब से पूछा- ''मिर्ज़ा साहब, उर्दू किस किताब की उम्दा है?'' ग़ालिब ने फ़ौरन कहा- ''चार दरवेश की।''

अब सुरूर ने पूछा- ''फ़साना-ए-अजायब की कैसी है?''

ग़ालिब ने बेसाख़्ता जवाब दिया- ''अजी लाहौल विला कूवत, इसमें लुत्फ़-ए-ज़बान कहां, एक तुकबन्दी और भठियारख़ाना जमा है।''

बाद में जब ग़ालिब को पता चला कि सामने वाला ख़ुद मुसन्निफ़ फ़साना-ए-अजायब यानी रजब अली बेग सुरूर थे तो उन्होंने दिल से अफ़सोस किया और अज़ीज़ों को कोसा कि ज़ालिमों, पहले क्यों नहीं बताया।

अगले दिन अपने एक परिचित को लेकर सुरूर के पास मामला सुलझाने के लिए पहुंचे। वहां पहुंच कर सबसे पहले उन्होने निहायत ख़ुश-अख़लाक़ी से, सुरूर से दुआ-सलाम की और इसके बाद अपने साथ गए आदमी से फ़साना-ए-अजायब की तारीफ़ पर ताऱीफ़ करने लगे- 'जनाब मौलवी साहब, रात में मैंने फ़साना-ए-अजायब को बग़ौर देखा तो उसकी ख़ूबी-ए-इबारत और रंगीनी का क्या बयान करूं! निहायत ही फ़सीह-ओ-बलीग़ इबारत है। मेरे क़यास में तो न ऐसी उम्दा नस्र पहले हुई न आगे होगी, और क्योंकर हो? इसका मुसन्निफ़ अपना जवाब नहीं रखता।'

इस तरह की बातें बनाकर ग़ालिब ने न सिर्फ सुरूर की आबरू रखी बल्कि दूसरे दिन अपने घर पर उनकी दावत भी की। बक़ौल ग़ालिब दिल-आज़ारी से बड़ा कोई गुनाह नहीं।

17 फरवरी 1869 को उनकी मौत की ख़बर सबसे पहले दिल्ली के उर्दू अख़बार अकमल-उल-अख़बार ने छापी थी। जिसके बाद ये ख़बर तेज़ी से फैलनी शुरू हुो गई। जबकि ग़ालिब की मौत 15 फरवरी को दोपहर बाद हो चुकी थी।

मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम बड़े अदब ओ एहतराम के साथ लिया जाता है। वो शायर तो थे ही अज़ीम पर सेंस ऑफ ह्युमर भी कमाल का था। वो अपनी बदनामी का भी लुत्फ उठाते थे। ग़ालिब कहते थे -
‘होगा कोई ऐसा भी जो ग़ालिब को न जाने शायर तो वो अच्छा है पर बदनाम बहुत है'

उर्दू अदब ही नहीं बल्कि टीवी और बॉलीवुड ने भी उन्हें ज़िंदा रखा है। ग़ालिब पर कई फिल्में बनीं जिसमें फिल्म " मिर्ज़ा ग़ालिब" में अदाकारा सुरईया और भारतभूषण की ज़बरदस्त chemistry ने साहित्य से प्यार करने वालों में और शदीद प्रेम भरने का काम किया।

इसके अलावा दूरदर्शन पर " मिर्ज़ा ग़ालिब" सीरियल ने 80 और 90 को दशक में ख़ूब शोहरत हासिल की। अभिनेता नसीरउद्दीन शाह की अदाकारी ने नसीरउद्दीन को आज के दौर का ग़ालिब बना दिया। वहीॆ अगर ड्रामों की बात करें तो एक्टर टॉम अल्टर ने भी इस किरदार कोे तबतक जिया जबतक वो रंगमंच की दुनिया में अपनी अदाकारी से सबको लुत्फअंदोज़ करते रहे।

"मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का

 उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले"


 

कश्फी शमाएल
नई दिल्ली


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