नीयत पर नहीं, नीति पर जाइए
सत्ता और विपक्ष को जनरल के उठाए सवालों के संदर्भ में उनकी नीयत से ज्यादा रक्षा नीति पर ध्यान देना चाहिए.
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पहले रक्षा सौदे में दलाली व रिश्वत का मामला उजागर करने के बाद थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सेना के पास घटिया हथियार और गोला-बारूद का टोटा का सवाल उठाकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया है. यह खुलासा प्रधानमंत्री को इस आशय में लिखे गये पत्र के लीक होने से हुआ है. इससे सरकार की नाकामी उजागर हुई है. जनरल के इस कड़वे सच पर यकीन करें तो देश के समक्ष सुरक्षा का गंभीर खतरा है. वैसे सरकार इसे सिरे से नकार रही है.
किन्तु चीन और पाकिस्तान की सैन्य तैयारियों के देखते हुए सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामले को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. सेना के पास आधुनिक तकनीक के सामानों की कमी क्यों है? क्या हमारी क्रय नीति में कहीं खोट है. प्रश्न यह भी है कि जनरल ने यह चिंता अचानक रिटायरमेंट के कुछ माह पहले क्यों दिखाई? क्या इसके पीछे आर्म्स लाविस्ट का कुचक्र तो नहीं है, जिसके चलते भारतीय सेना की साख तार-तार हुई है और उसके मनोबल को धक्का लगा है. ऐसे में सेना में भ्रष्टाचार के मामले में ऐसी चुप्पी, निष्क्रियता और अनिर्णय क्यों?
रक्षा सौदे में दलाली का मामला कोई नया नहीं है. वर्ष 1962 में सेना के लिए जीपों की खरीदारी में तत्कालीन रक्षामंत्री पर आरोप लगे थे. बोफोर्स तोप सौदे और उससे पहले एचडीडब्लू पनडुब्बी कांड का पर्दाफाश हो चुका है. रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के सवाल पर लोकसभा के चुनाव लड़े और हारे जा चुके हैं.
ऐसे में अब टाट्रा ट्रकों की खरीद में सेनाध्यक्ष को 14 करोड़ रुपये की घूस की पेशकश चौंकाने वाली है. क्योंकि सरकार ने रक्षा सौदे में गड़बड़ियों के उजागर होने के बाद पहले से ही रक्षा सौदों में विचौलियों की मौजूदगी पर पाबंदी लगा दी थी. ऐसे में सप्लाई का ऑर्डर पाने वाली हर कम्पनी को सरकार के साथ एक ईमानदारी कायम रखने का करार करना पड़ता है. इसको कायम रखने में नाकाम होने वाली कम्पनी काली सूची में डाल दी जाती है.
इसी के बाद रक्षा सौदों में दलालों की भूमिका पर भी रोक लगी थी. इसी के बाद कंसलटेंसी के नाम पर दलाल कम्पनियों की बाढ़ आ गयी, जिनमें अवकाश प्राप्त फौजी अधिकारी, विदेशी विशेषज्ञ और अन्य लोग शामिल हैं, जो धड़ल्ले से इस काम को अंजाम दे रहे हैं. दरअसल, अभी सेनाध्यक्ष ने जिस आर्म्स लाविस्ट का नाम उजागर किया है वह सेना के ही रिटायर सैन्य अधिकारी हैं, जिनका आदर्श सोसायटी घोटाले में भी नाम है. क्या यह विना शक्तिशाली राजनीतिक संरक्षण अथवा शह के संभव है? इसीलिए आर्म्स लाविस्ट खुलेआम रिश्वत की पेशकश करने में हिचक नहीं रहे हैं और सेवारत सेनाध्यक्ष को आंख दिखाने की हिमाकत कर रहे हैं. यह काफी खतरनाक है और सरकार आंख पर पट्टी बांधे हुई है.
वैसे घटिया टाट्रा ट्रकों की खरीद में गड़बड़ी का यह मामला 2009 में ही सरकार के संज्ञान में आ गया था. स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इस आशय के शिकायती पत्र पर रक्षामंत्री से कार्रवाई का अनुरोध किया था. उनके पत्र के जवाब में 22 अक्टूबर, 2009 को ही रक्षा मंत्रालय के रक्षा उत्पादन विभाग ने कहा था कि जांच चल रही है रिपोर्ट आने में समय लग सकता है.
फिर दो वर्ष बीत जाने के बाद अभी औपचारिक जांच क्यों नहीं शुरू हुई थी? सेनाध्यक्ष द्वारा रक्षामंत्री से इसी मामले में घूस की पेशकश की बात को क्यों नजरंदाज किया गया? दिलचस्प बात यह है कि कर्नाटक के कांग्रेस पार्टी के नेता के जिस शिकायती पत्र को स्वास्थ्य मंत्री ने रक्षा मंत्रालय को भेजा था उसमें 6000 करोड़ रुपये के टाट्रा ट्रकों का ठेका सीधे उत्पादन कम्पनी को न देते हुए उसके ब्रिटिश एजेंट को दिये जाने का आरोप है, जो रक्षा खरीद से जुड़े दिशा-निर्देशों का खुला उल्लंघन था. फिर इस कम्पनी को काली सूची में डालने का काम क्यों नहीं हुआ? यह सरकार की नाकामी नहीं तो क्या है? जो रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की जड़ों के गहरी होने की ओर संकेत करती है, साथ ही रक्षामंत्री की लापरवाही और नाकामी को उजागर करने के लिए काफी है.
थलसेना की तैयारियों की कमजोरी और घटिया रक्षा सामानों को लेकर सेनाध्यक्ष के खुलासे के बाद सरकार अपनी असफलता छुपाने में जुट गयी है. संसद में इसे अतिसंवेदनशील मामला बताकर नेताओं ने जनरल को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है. सरकार सेना के चुस्त-दुरुस्त होने का दावा कर रही है. क्या इतने भर से संतोष किया जा सकता है? क्या हम चीन की तैयारियों से निपटने में सक्षम है? चीन, तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में खुलेआम निर्माण कर रहा है. वहां भारतीय सेना की मौजूदगी संतोषजनक नहीं बतायी जाती.
हमारी सैन्य तैयारियां भी खोखली हैं. चीन के मुकाबले के लिए माउंटेन स्ट्राइक फोर्स चाहिए. सिलीगुड़ी से उत्तरी सिक्किम तक उपयोगी सड़क, रणनीतिक रूप से अहम रेलवे लाइन विकसित करना तथा आधुनिक उपकरणों के लिए पैसे की दरकार है. इस दिशा में अभी कुछ ठोस नहीं हुआ है. यह नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1962 में हमारी कमजोरी के कारण ही चीन ने अरुणाचल के कुछ हिस्सों, जम्मू-कश्मीर के पूर्वी हिस्सों तथा असम की चोटियों पर कब्जा कर लिया था. वह आज भी हमारे लिए मुश्किलें खड़ा कर रहा है.
यह सच है कि भारत आज दुनिया का सबसे ज्यादा हथियार खरीदने वाला देश है. तीस वर्षो में देश के भीतर रक्षा का साजोसामान बनाने की क्षमता विकसित करने में हम कमजोर रहे हैं. इसलिए हमें आधुनिक हथियारों और गोला-बारूद के लिए पश्चिमी देशों पर निर्भर रहना पड़ रहा है. इसके उलट चीन ने इसी अवधि में रक्षा सामान बनाने की जबरदस्त क्षमता विकसित की है. अमेरिका ने यह काम मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्पलेक्स विकसित करके किया है. इसलिए हमें इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
यही कारण है कि आर्म्स लाविस्ट की सक्रियता अधिक है और रक्षा सौदों में रित के मामले एक के बाद एक सामने आ रहे है, जिसके चलते घटिया सामानों की आपूर्ति की आशंकाओं को भी बल मिल रहा है. हथियारों को हासिल करने की हमारी प्रक्रिया भी काफी धीमी है. किसी भी प्रमुख हथियार पण्राली को भारत में लाने और उसे शस्त्रागार में शामिल करने में लम्बा समय गुजर जाता है.
हकीकत यह है कि भारतीय फौज को मझोले तोप उपलब्ध नहीं कराये गये हैं जबकि भारत में बोफोर्स तोपों को लाये 27 साल हो गये. तभी से छ: बड़ी गन निर्माता कम्पनियां ब्लैक लिस्टेड है. सेना के हेलीकॉप्टर पुराने हो चुके हैं. एयर डिफेंस गन और मिसाइलों की जरूरत है. मुख्य जंगी तोपों में से अधिकांश रात में गोला दागने में अक्षम है. ऐसे में हथियार खरीद की धीमी प्रक्रिया के पीछे रक्षा मंत्रालय का यह तर्क कि कोई और घपला न हो, समझ से परे है.
वैसे भारतीय सेना विवादों से दूर रही है. पहली बार रक्षामंत्री और सेना प्रमुख एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. उम्र विवाद को लेकर जनरल पहले ही सुर्खियों में रहे हैं. आरोप है कि उम्र के मामले में उन्होंने राजपूत सांसदों से पैरवी करायी. हस्ताक्षर अभियान भी चलाया गया. कांग्रेस के भीतर भी लाविंग की गयी.
उन पर रक्षामंत्री के दफ्तर की जासूसी कराने का भी आरोप लग चुका है. शुक्र है कि ये आरोप मनगढ़ंत निकले. किन्तु अभी सुरक्षा खामियों को जाने-अनजाने उजागर कर उन्होंने राष्ट्रहित की उपेक्षा ही नहीं की है बल्कि राष्ट्रधर्म का उपहास भी किया है. एक जनरल से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती. इससे सेना के मनोबल को गहरा आघात लगा है.
सीमा पर डटे जवानों के परिवारों में असुरक्षा का भाव बढ़ा है. वीके सिंह का आचरण राजनेता जैसा दिखता है. वैसे उनके समर्थक कहते हैं कि आर्म्स लाविस्ट एक के बाद एक करके उन्हें विवादों में उलझाकर रखना चाहते हैं ताकि वे शस्त्र माफिया के खिलाफ जाने की हिम्मत न जुटा पायें. यदि इसे सच भी मान लें तो जनरल के पास इस बात का जवाब नहीं है कि जब कोई उन्हें घूस की पेशकश कर रहा था तो वे चुप क्यों बैठे रहे.
वैसे अब जांच में दूध का दूध और पानी का पानी सामने आ ही जायेगा. किन्तु देश के अन्दर जिस तरह से असुरक्षा का माहौल बना है उसे देखते हुए प्रधानमंत्री को अपनी चुप्पी तोड़ते हुए देश को भरोसे में लेना चाहिए. विपक्षी दलों को भी इस अवसर का लाभ उठाकर भारतीय फौजों के आधुनिकीकरण के प्रश्न पर एक राष्ट्रीय सहमति बनानी चाहिए. भारत को अलग से अपना नया सुरक्षा मॉडल खड़ा करना चाहिए. राष्ट्रहित में अब यह जरूरी हो गया है.
इसलिए इस संवेदनशील मसले पर राजनीतिक दलों को राजनीति से ऊपर उठकर सोचना चाहिए. साथ ही वीके सिंह को 13 लाख सैनिकों के हित में नेता नहीं, जनरल जैसा व्यवहार करना चाहिए. वहीं सत्ता और विपक्ष को जनरल के उठाए सवालों के संदर्भ में उनकी नीयत से ज्यादा रक्षा नीति पर ध्यान देना चाहिए.
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