कितनी दूर है मध्यावधि चुनाव!

Last Updated 25 Mar 2012 12:42:36 AM IST

समाजवादी पार्टी सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव ने आम चुनाव समय से पहले होने की


आशंका जताकर राजनीतिक हलकों में सनसनी फैला दी हैं. अभी राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राज्यसभा में सरकार बचाने वाली सपा के मुखिया के इस कथन के राजनीतिक मायने तलाशे जा रहे हैं.

राज्यों के चुनावों में करारी हार, ममता के आक्रामक तेवर को लेकर संसद के अंदर और बाहर हो रही छीछालेदर तथा कथित कोयला घोटाले के उजागर होने से सरकार हिल गयी है. सरकार का इकबाल और साख दोनों कमजोर हुई है. इसी शुक्रवार को लोकपाल पर बुलायी गयी सर्वदलीय बैठक में भी तृणमूल ने बागी तेवर दिखाया है.

उसने चेताया है कि लोकपाल के अधीन लोकायुक्त की नियुक्ति उसे मंजूर नहीं है. यदि सरकार ने यह संशोधन नहीं किया तो वह सरकारी बिल के खिलाफ संशोधन प्रस्ताव लायेगी. अभी राष्ट्रपति के धन्यवाद प्रस्ताव पर एनसीटीसी के मुद्दे पर वह राज्यसभा का बहिष्कार कर चुकी है. महंगाई, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक विफलता के कारण आम आदमी का गुस्सा सरकार के प्रति बढ़ा है.

विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली शिकस्त को इसका सूचक माना जा रहा है. लगातार गिरती इस जनछवि के कारण सहयोगियों को कांग्रेस का साथ अब भारी लगने लगा है. इसीलिए सहयोगियों ने अपने तेवर और तल्ख कर लिये हैं. उन्हें अब अपनी जनछवि की चिंता सताने लगी है. उनके आचरण से लगने लगा है कि वे सरकार से छुटकारा पाने का बहाना तलाश रहे हैं. उनकी इन्हीं गतिविधियों से मध्यावधि चुनाव की अटकलों को बल मिला है.

यूपीए सरकार घोटालों के ग्रहण से उबर ही नहीं पा रही है. टू-जी घोटाला, कॉमनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी के घोटाले से जूझती सरकार कोल खदानों के लाइसेंस निजी कम्पनियों को देने में गड़बड़ी के उजागर होने से अजीब संकट में पड़ गयी है. सीएजी की ड्राफ्ट रिपोर्ट में इससे 10.7 लाख करोड़ के नुकसान की ओर इशारा किया गया है.

यद्यपि इस मामले में सीएजी की आयी सफाई से सरकार को फौरी राहत जरूर मिली है, किन्तु आने वाले दिन कांग्रेस के लिए दुारियों भरे होने से इनकार नहीं किया जा सकता. दूसरे, आम बजट महंगाई बढ़ाने वाला है. बाजार पर सरकार का नियंतण्रभी ढीला पड़ गया है. ऐसे में सहयोगी दल आये दिन जिस तरह की धौंसपट्टी दिखा रहे हैं, उससे उनके इरादे नेक नहीं लगते.

वैसे कांग्रेस का भी अपने सहयोगियों के साथ व्यवहार कोई अच्छा नहीं रहा है. टू-जी घोटाले में सरकार जब फंसती नजर आयी तो उसने गड़बड़ी का ठीकरा द्रमुक के माथे मढ़कर उसे उसी के हाल पर छोड़ दिया. खुद गठबंधन धर्म की मजबूरी जताकर अपने को साफ-सुथरा दिखाने में लग गयी.

इसी तरह महंगाई के लिए एनसीपी प्रमुख तथा कृषि मंत्री शरद पवार को कठघरे में खड़ा कर दिया गया. इसी तरह कई और मामलों में कांग्रेस ने सहयोगियों को उनकी हद बताने में कोई हिचक नहीं की. किन्तु ममता कांग्रेस को अच्छी तरह जानती है. वह सरकार की विफलता का दाग अपने मत्थे लेना नहीं चाहतीं. इसीलिए उनका रुख आक्रामक है. रेल किराया बढ़ाने की कांग्रेस की नीति को उन्होंने इसीलिए सफल नहीं होने दिया.

प्रधानमंत्री की इच्छा की परवाह किये बगैर स्लीपर और एसी-थ्री का बढ़ा किराया वापस कराकर उन्होंने सरकार को घुटनों के बल चलने के लिए मजबूर कर दिया. ऐसा कर उन्होंने जताया कि वह आम आदमी के साथ खड़ी हैं. यह अनायास नहीं है. सहयोगी दलों को लगातार चमक खोती जा रही सरकार के कारण अब अपने वोट बैंक के छिटकने का खतरा सताने लगा है.

इसीलिए वे आम आदमी से जुड़े सवालों को लेकर मुखर होने लगे हैं ताकि जनता के बीच उनकी प्रतिकूल छवि न बने. इसी वर्ष जुलाई में राष्ट्रपति और साल के अंत में दो राज्यों के चुनाव होने हैं. इन चुनावों में कांग्रेस कैसा करती है उसी को दृष्टिगत रखते हुए सहयोगी अपने आगे के राजनीतिक रिश्ते तय करेंगे. ऐसे में मध्यावधि चुनाव की संभावनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

राज्यों के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में सपा की बहुमत की सरकार बनने के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर मुलायम सिंह का कद काफी बढ़ गया है. वह गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनीति के नये केंद्र के रूप में उभरे हैं.

वामपंथियों के अलावा अन्य क्षेत्रीय दल भी उनसे नजदीकियां बढ़ाने में लग गये हैं, जिसे नई राजनीतिक संभावना के रूप में देखा जा रहा है. संयुक्त मोर्चा के जमाने में एचडी देवगौड़ा के हटने के बाद मुलायम सिंह यादव प्रधानमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब थे किन्तु कुछ लोगों के विरोध के चलते उनकी ताजपोशी नहीं हो सकी थी.

अब यूपी में फतह हासिल करने के बाद वह अब अपनी इस महत्वाकांक्षा को जरूर फलीभूत होते देखना चाहेंगे क्योंकि अभी हुए चुनावों में दोनों राष्ट्रीय दल- कांग्रेस और भाजपा लगातार कमजोर हो रहे हैं और क्षेत्रीय दलों का मजबूती के साथ उभार हुआ है, जिससे केन्द्र में सत्ता का नया समीकरण उभरने की संभावना बलवती हुई है.

राजनीतिक प्रेक्षकों का मत है कि यदि समय से पहले चुनाव होते हैं तो सपा को लोकसभा चुनाव में अपनी वर्तमान सीटों को दोगुना से अधिक करने में आसानी होगी. अभी मिले हुए बहुमत के सहारे वह यह लाभ उठा सकती है.

ऐसे में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा गठबंधन सत्ता से दूर रह जाता है तो मुलायम 50 से 60 सांसदों के सहारे प्रधानमंत्री पद के बेहद मजबूत दावेदार होंगे. वैसे वह तत्काल चुनाव कराने की किसी रणनीति से अभी दूर है. किन्तु सहयोगी दलों और कांग्रेस के बीच जिस तरह टकराव की स्थिति है, उसमें अपने आप सरकार के 2014 से पहले गिरने की संभावना प्रबल होती दिख रही है क्योंकि ममता जल्दी में दिख रही हैं.

दरअसल, सपा की तरह तृणमूल को भी फायदा लोकसभा चुनाव जल्दी होने में है. पश्चिम बंगाल में बहुमत से चुनाव जीतने के बाद ममता को पता है कि वह अपनी लोकप्रियता के चरम पर हैं. केंद्र तथा राज्य में कांग्रेस से छुटकारा पाकर अपने मौजूदा 19 सांसदों की संख्या बढ़ाने का यह उनके लिए सबसे बढ़िया समय है.

वे 2014 का इंतजार नहीं कर सकतीं क्योंकि तब तक राज्य में उनकी सहयोगी कांग्रेस, वाममोच्रे के साथ गठजोड़ कर विरोधी बन सकती है. वैसे तो बिहार में जदयू के बहुमत से उत्साहित नीतीश कुमार भी केंद्र सरकार को घेरने का मौका नहीं चूकना चाहते. जद-यू के 20 सांसद हैं. मध्यावधि चुनाव में उसे भी फायदा होने की उम्मीद है. लगातार तीसरी बार उड़ीसा की सत्ता में आये बीजू जनता दल के 14 सांसद हैं.

उधर दक्षिण के तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की मुखिया जयललिता सत्ता में वापसी से उत्साहित हैं. इनमें से तृणमूल कांग्रेस यूपीए की साझीदार है लेकिन ममता बिहार और उड़ीसा के मुख्यमंत्रियों के सम्पर्क में रहती हैं हालांकि उनके बीच राजनीतिक गठजोड़ नहीं है पर राजनीतिक सहमति है जो किसी भावी मोच्रे का आधार बन सकती है. लगता है तृणमूल कांग्रेस प्रमुख को ज्यादा जल्दबाजी है.

वैसे सपा और बसपा फिलहाल सरकार को आक्सीजन देने का काम कर रही हैं किन्तु तेजी से बदलते राजनीतिक हालात में सहयोगी दल जिस तरह सरकार को अस्थिर करने में लगे हैं उससे सरकार का संकट टलता नहीं दिखता. यद्यपि कांग्रेस ने मुलायम सिंह की मध्यावधि चुनाव की आशंका को खारिज कर दिया है.

उसका कहना है कि बहुमत का जादुई आंकड़ा 272 फिलहाल उसके पास है इसलिए इस आशंका का कोई आधार ही नहीं है. किन्तु जिस तेजी से राजनीतिक हालात बदल रहे हैं, उसमें सरकार की आगे की राह आसान नहीं दिखती है, जिससे मध्यावधि चुनाव की आशंका को बल मिल रहा है.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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