पुरानी आदत के नए बहाने

Last Updated 26 Feb 2012 12:58:19 AM IST

उत्तर प्रदेश में चुनावी महासमर अब खत्म होने को है तो निर्वाचन आयोग के अधिकारों में कटौती का सवाल सुर्खियों में है.


कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए-2 सरकार चुनाव आचार संहिता को कानूनी जामा पहनाने की फिराक में है. हालांकि इस मंसूबे का पहले ही खुलासा हो जाने और इस पर बढ़ते विरोध के कारण सरकार ने अपने कदम पीछे खींच लिये हैं. लेकिन इससे उसकी मंशा तो जाहिर हो ही गई है. इसी तरह, राष्ट्रीय आतंक निरोधी केन्द्र (एनसीटीसी) मुद्दे पर भी मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण सरकार को झुकना पड़ा है.

ये दो अहम सवाल हैं, जिनके मर्म को समझना जरूरी है. पहला सवाल निर्वाचन आयोग के अधिकार को लेकर है. कांग्रेस आयोग से खफा है क्योंकि उसके तीन मंत्री और राहुल गांधी आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन में फंस गए हैं. इसीलिए कांग्रेस ऐसे मामलों की सुनवाई का अधिकार अदालत को देना चाह रही है ताकि निर्वाचन आयोग को शक्तिहीन किया जा सके.

उप्र में बसपा के हाथी की मूर्तियों को ढंकने तथा पंजाब में अकाली दल के खिलाफ आयोग की चाबुक का स्वागत करने वाली कांग्रेस अपने नेताओं के आचार संहिता उल्लंघन मामलों में फंसने के बाद आंखें तरेरने लगी है. उसकी यह कार्यशैली पुरानी है. संवैधानिक संस्थाओं को कागजी शेर बनाकर रखना उसकी आदत में शुमार है. इसी तरह, एनसीटीसी पर अमल से पहले राज्यों को भरोसे में नहीं लेना और बवाल मचने पर फैसले को मुल्तवी कर देना ऐसा ही है.   

निर्वाचन आयोग पिछली सदी के नौंवे दशक से ही सरकारों की आंखों की किरकिरी बना हुआ है. समय-समय पर तरह-तरह के तर्क के आधार पर उसके अधिकारों के हनन के प्रयास हुए हैं. यद्यपि सरकार ने आयोग के अधिकारों में कटौती के ऐसे किसी प्रस्ताव से इनकार किया है किंतु सचाई इसके उलट है. कहावत है कि बिना आग के धुआं नहीं उठता. इसी बुधवार को भ्रष्टाचार मसले पर मंत्री समूह की बैठक में आदर्श आचार संहिता को वैधानिक दर्जा देने का विवादास्पद प्रस्ताव आना था. किंतु अभी हो रहे चुनाव और विपक्षी तथा यूपीए के सहयोगी दलों के विरोध के कारण यह मामला ठंडे बस्ते में डाला गया है किंतु मुद्दा पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. वैसे चुनावी हिंसा और बूथ लूटने की घटनाएं उस दौर (1990) में आम थीं.

तब राजनेता दबी जुबान कहते थे कि चुनाव जीतने के लिए धन से अधिक बाहुबलियों की जरूरत है. यह उनकी निराशा और चुनाव आयोग की कमजोर भूमिका को उजागर करती थी. 1989 के चुनाव में अमेठी में संजय सिंह को मतदान के दौरान खुलेआम गोली मारी गई थी. उस समय वह विपक्ष में थे और राजीव गांधी अमेठी से चुनाव  लड़ रहे थे. बाद के चरणों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था. उस दौर में चुनावी हिंसा बड़ा मुद्दा था.

किंतु टीएन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त की कमान संभालने के कुछ ही दिनों बाद अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के जरिये आम मतदाताओं और ईमानदार उज्ज्वल छवि वाले नेताओं को जता दिया कि अब कोई बाहुबली न बूथ लूट सकेगा और न ही उन्हें डरा-धमका सकेगा. अपनी जन छवि की बदौलत ही कोई नेता चुनाव जीत सकता है. मुझे याद है कि 1991 के विधानसभा चुनाव में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे. उनके समर्थकों ने उनके खिलाफ लड़ रहे दर्शन सिंह यादव व उनके लोगों पर गोलियां चलाई थीं. इसकी रिपोर्ट मिलने के बाद शेषन ने उनका चुनाव ही रद्द कर दिया था.

उनके इस फैसले से दबंग नेताओं को दिन में तारे नजर आने लगे थे. उनके दौर में बिहार में चुनावों के दौरान बूथ लूट का धंधा करने वालों का धंधा ठप्प पड़ गया था. सीएसडीएस की मानें तो शेषन के कार्यकाल में जनता ने अन्य संवैधानिक संस्थाओं की तुलना में सबसे ज्यादा भरोसा निर्वाचन आयोग पर ही किया था. विडंबना यह है कि तत्कालीन सत्ताधीशों को शायद यह रास नहीं आया.

वैसे निर्वाचन आयोग की स्थापना के बाद से वर्ष 1989 तक एकल निर्वाचन आयुक्त का ही प्रावधान था. इस पर सरकारी लगाम लगाने के लिए अक्टूबर 1989 से एक जनवरी 1990 की अवधि में दो और निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त किया गया. बाद में संसद ने 1993 में कानून पारित कर इसे स्थायी तौर पर तीन सदस्यीय निकाय में तब्दील कर दिया. तब से फैसले लेने की प्रक्रिया में तीनों आयुक्तों की भागीदारी रहती है. यह काम कांग्रेस के पीवी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में किया गया. उनके इस फैसले को शेषन के पर कतरने के रूप में देखा गया.

हालांकि कांग्रेस अपने जुमले में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के संचालन के लिए जिम्मेदार निकाय के ‘आंतरिक लोकतांत्रिकरण’ बताती रही थी. आज वही कांग्रेस निर्वाचन आयोग पर फिर आग बबूला हो उठी है क्योंकि उसके दो केंद्रीय मंत्री और उसके ‘युवराज’ आचार संहिता उल्लंघन को लेकर आयोग के रडार पर हैं. चुनाव से कुछ ही दिन पूर्व कांग्रेस ने पिछड़ों के 27 फीसद आरक्षण में से 4.5 फीसद कोटा मुसलमानों को देने की घोषणा की थी.

कांग्रेस ने यह कदम मुसलमानों को रिझाने के लिए उठाया था किंतु आयोग ने उसके मंसूबे पर पानी फेर दिया. इसी के बाद कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने मुसलमानों के लिए नौ प्रतिशत का राग अलापा. आयोग ने इसे आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए राष्ट्रपति को पत्र लिखा था. इसके बाद इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने भी इसी मसले पर ढिठाई की.

अब आयोग ने उन्हें तलब किया है. कानपुर में तो कांग्रेस ने हद पार कर दी. यहां कांग्रेस ने राहुल गांधी के रोड शो के लिए 35 किलोमीटर की दूरी तय करने की अनुमति मांगी थी जबकि प्रशासन ने केवल 20 किलोमीटर की इजाजत दी थी. रोड शो में इसकी परवाह न कर आचार संहिता का मखौल उड़ाया गया. प्रशासन ने राहुल सहित अन्य लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है. तिलमिला उठी कांग्रेस ने निर्वाचन आयोग के पर कतरने के लिए फिर से भूमिका बनानी शुरू कर दी है.

माना जा रहा है कि संसद के बजट सत्र से पूर्व लोकपाल विधेयक के विवादास्पद प्रावधानों पर सहमति बनाने के लिए सरकार एक सर्वदलीय बैठक बुलाना सोच रही है. उसमें आचार संहिता पर भी चर्चा हो सकती है. आचार संहिता को कानूनी जामा पहनाने के समर्थक कांग्रेसियों का तर्क है कि इससे आयोग को वैधानिक ताकत मिलेगी. यही तर्क राव सरकार ने बहुसदस्यीय आयोग बनाने के समय दिया था.

यद्यपि मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी सरकार के ताजा प्रस्ताव का विरोध कर चुके हैं. माना जा रहा है कि जून में उनके रिटायर होने के बाद स्थिति की अनुकूलता को देखते हुए सरकार नए चुनाव आयुक्त के साथ समन्वय कर ऐसा करें. कुल मिलाकर चुनाव आयोग के अधिकारों में कटौती की तलवार लटक रही है. आश्चर्य इसलिए भी नहीं है कि संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने का कांग्रेस का पुराना शगल है.

अभी केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने यह बयान दे कर सबको स्तब्ध कर दिया कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को स्पष्ट बहुतम मिलने की संभावना है लेकिन यदि खंडित जनादेश आएगा तो राष्ट्रपति शासन लगेगा.  यह दर्शाता है कि कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं के सम्मान के प्रति कितनी गंभीर है. आयोग ने इस मामले में उनके खिलाफ आचार संहिता के उल्लंघन का नोटिस जारी किया है.

भूले नहीं होंगे लोग कि जब समाजवादी नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनावी धांधली और दुरुपयोग का इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया था, ठीक उसी समय कांग्रेस के अंदर से देश में राष्ट्रपति शासन पण्राली की वकालत शुरू हुई थी. वरिष्ठ मंत्री बसंत साठे इसके मुख्य प्रवर्त्तक थे किंतु प्रबल विरोध के चलते पार्टी ने इसे उनका निजी विचार बताकर विवाद पर विराम लगा दिया था. बाद में कोर्ट का फैसला इंदिरा जी के विपरीत आया और देश को आपातकाल का दंश झेलना पड़ा.

मेरा मत है कि संवैधानिक संस्थाओं की सार्वभौमिकता और संप्रभुता हर हाल में अक्षुण्ण रहनी चाहिए. चुनाव आयोग ने विगत दो दशकों में शांतिपूर्ण निष्पक्ष चुनाव करा कर देश-दुनिया में अपनी दक्षता और विसनीयता साबित की है. जनमानस ने इसकी सराहना ही की है. उसका उसमें अटूट विास बढ़ता ही जा रहा है. मतदान का बढ़ा प्रतिशत चुनाव आयोग की सजगता का ही परिणाम है. इसलिए लोकतंत्र की मजबूती और सुरक्षा के लिए हमारे निष्पक्ष निर्वाचन आयोग का अधिकार संपन्न बना रहना जरूरी है.

वैसे ही जैसे सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता के कारण टूजी स्पेक्ट्रम समेत कई घोटाले का पर्दाफाश हुआ और बड़े-बड़े लोगों का सलाखों के पीछे जाना संभव हो पाया. इसलिए संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने की कोशिश नहीं होनी चाहिए.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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