ओबीसी और मुसलमान हैं चाबी

Last Updated 19 Feb 2012 01:00:29 AM IST

उत्तर प्रदेश में इस रविवार को चार चरणों का मतदान पूरा हो जाएगा. वातावरण में गुनगुनी ठंढ़क है तो फागुनी अल्हड़पन भी.


किंतु इस राजनीतिक महासमर में वादे, छल-प्रपंच, आरोप-प्रत्यारोप और जोड़-तोड़ का नित बनता-बिगड़ता खेल अपने शबाब पर है. पिछले दो दशकों से मुस्लिम और पिछड़ी जातियों ने अन्य जातीय समीकरणों के साथ प्रदेश की राजनीति में सत्ता की चाबी का काम किया है. इसी कार्ड के एकजुट प्रदर्शन के चलते वर्ष 1989 से कांग्रेस सत्ता से बाहर रही है.

हालांकि 2012 के इस विधानसभा चुनाव में हर दल ने इन्हीं दोनों जातियों पर बड़ा दांव लगाया है. पड़ोसी राज्य बिहार में नीतीश कुमार के मुस्लिम (पसमांदा) और अति पिछड़ा कार्ड के मेल को चुनाव में हिट होने के बाद से हर दल अब इस प्रयोग को आजमाने पर लगा हुआ है. यह अभी पहेली है कि उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन पर यह प्रयोग सफलता की शत-प्रतिशत गारंटी बनेगा. होली से एक दिन पहले चुनाव परिणाम आ रहे हैं. तब देखना दिलचस्प होगा कि यह जातीय समीकरण सत्ता के शिखर तक पहुंचाने में किस दल या परोक्ष गठबंधनों की राह आसान करता है.

मुस्लिम और पिछड़ी जातियां अनायास ही सभी दलों के एजेंडे में प्रमुखता से नहीं शामिल हो गए हैं. अल्पसंख्यकों का 18 प्रतिशत और पिछड़ी जातियों का 54 प्रतिशत मत है. इसीलिए सियासी पार्टियों की नजर इन वोट बैंकों पर टिकी हैं. इसी समीकरण का ही कमाल था कि मंडल कमीशन के बाद 1989 में मुलायम सिंह यादव को सत्ता सुख मिला और प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस को कमजोर खिलाड़ी बना दिया. वर्ष 2007 में मायावती को मिला बहुमत भी इसी समीकरण का कमाल था.

मंदिर आंदोलन के दौरान ये जातियां, मुसलमानों को छोड़कर, धर्म के नाम पर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में लामबंद हुई थीं और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तभी से अति पिछड़ी जातियों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में है किंतु भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की अहंकारी और अदूरदर्शी नीतियों ने उसके प्रयास पर पानी फेर दिया है. फिर भी मौजूदा चुनाव में भाजपा ने सबसे ज्यादा 130 ओबीसी को अपने उम्मीदवार बनाए हैं जबकि सपा 119, कांग्रेस 115 और बसपा ने 113 प्रत्याशियों को मैदान में उतारे हैं.

किसी प्रमुख दल ने इनके अलावा किसी और समुदाय के उतने प्रत्याशी खड़े नहीं किए. इसी तरह, बसपा ने 84 मुसलमानों को टिकट दिया है, जो पिछले (2007) विधानसभा चुनाव से 25 अधिक है जबकि सपा जो मुस्लिम मतदाताओं पर अपना एकाधिकार मानती है, उसने इस समुदाय को 75 टिकट दिए हैं. कांग्रेस ने 61 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं. मैदान में पीस पार्टी और उलेमा कौंसिल भी है, जो ओबीसी-मुस्लिम गठजोड़ के महत्त्व को दर्शाता है.

वैसे पिछड़ों में यादवों के बाद प्रदेश में सबसे बड़ी संख्या कुर्मियों की है. इस जाति के वोटर हर क्षेत्र में फैले हैं. सातवें दशक में चौधरी चरण सिंह (जाट) जयराम वर्मा (कुर्मी) की जोड़ी जाट, कुर्मी, पिछड़ी जातियों और मुस्लिम गठजोड़ से कांग्रेस को पहले भी चुनौती मिल चुकी है. आज भी उसकी राजनीति इसी दलदल में फंसी है. वैसे आज क्षेत्रों के हिसाब से कुर्मियों के अलग-अलग नेता  हैं लेकिन कांग्रेस उनके वोटों के लिए केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा सहित अन्य पिछड़े नेताओं के सहारे पर बड़ा दांव लगाया है.

इसके बाद लोध बिरादरी आती है. कल्याण सिंह की पहचान लोध नेता के रूप में है. भाजपा ने उन्हें कमजोर करने तथा लोध वोट बैंक पाने के लिए उमा भारती को बतौर मुख्यमंत्री उतारा है. वहीं, दो प्रतिशत कुशवाहा वोट पाने के प्रयास में घोटाले में लिप्त और बसपा से निष्काषित बाबू सिंह कुशवाहा को गले लगा लिया है. पार्टी अपनी छीछालेदर से बेपरवाह है-उसका तर्क है कि बुंदेलखंड में उसे उनका लाभ मिलेगा. अभी वहां बसपा का  कब्जा है.  

समाजवादी पार्टी की पहचान उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की पार्टी के रूप में पहले से ही है जबकि बसपा अति पिछड़ों को जोड़ने में लगी है. अति पिछड़ी जातियां राजनीतिक क्षितिज पर 2001 में उभर कर आई. उस समय के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने सभी पिछड़ी जातियों को आबादी के हिसाब से आरक्षण देने की व्यवस्था की. सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट पर कानून भी बनाया किंतु न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी.

उसी के बाद इन जातियों के वोटों में बिखराव की राजनीति शुरू हो गई. गड़ेरिया, पाल, तेली, कुम्हार, कहार, केवट, बघेल, कश्यप, नाई, राजभर, मोमिन तथा बढ़ई आदि जातियों ने आबादी के हिसाब से आरक्षण की मांग शुरू कर दी है. यद्यपि कांग्रेस ने ऐन चुनाव से कुछ दिन पूर्व ओबीसी के 27 प्रतिशत कोटे के अंदर अल्पसंख्यकों को 4.5 प्रतिशत कोटे की घोषणा कर पिछड़ों की राजनीति में तूफान ला दिया है.

उसका मकसद इसके जरिये मुस्लिम-ओबीसी गठबंधन की कमर तोड़ना है, जिसकी एकजुटता की वजह से  दो दशक से वह सत्ता से बाहर है. भाजपा कांग्रेस के इस कदम को अपने लिए शुभ मानती है और उसने इसे अपना चुनावी मुद्दा बना लिया है. इतना ही नहीं, कांग्रेस की इस राजनीति की काट के लिए सपा और बसपा ने मुसलमानों को अलग से आरक्षण देने की घोषणा की है. ऐसे हालात में पिछड़ी जातियों के मतदाता सभी दलों के दुलारे बन गए हैं.

इसी तरह, मुसलमानों को लेकर सियासी जंग हो रही है. मुस्लिम आरक्षण और बाटला मुठभेड़ कांड सुर्खियों में है. कांग्रेस मुस्लिम वोट के लिए एक के बाद एक दांव चल रही है. केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने चुनाव प्रचार के दौरान बयान दिया ‘बाटला हाउस’ की तस्वीरें देखकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की आंखों से आंसू छलक पड़े थे. यह मुसलमानों की सहानुभूति पाने की कोशिश थी.

इससे पहले भी, युवा मुसलमानों की कांग्रेस के प्रति नाराजगी कम करने के लिए आजमगढ़ शिबली कॉलेज में पार्टी महासचिव राहुल गांधी को ठहराया गया किंतु वह दांव भी उलटा चला गया. वहां के युवकों ने राहुल का घेराव कर डाला. ऐसे में पहले से लिखी गई पटकथा का क्लाईमेक्स पलट गया. इसी के बाद, खुर्शीद ने मुसलमानों के लिए नौ प्रतिशत आरक्षण का राग अलापा और कहा कि चुनाव आयोग उन्हें सूली पर चढ़ा दे पर वह नौ प्रतिशत आरक्षण दिलाकर रहेंगे. इस पर खूब बवाल हुआ.

चुनाव आयोग ने इसके बाबत राष्ट्रपति तक चिट्ठी लिख दी. मौके की नजाकत देखते हुए उन्होंने चुनाव आयोग से माफी मांग कर बला टाली. अब बेनी प्रसाद वर्मा ने वही बयान देकर कांग्रेस को नई मुसीबत में डाल दिया है. पार्टी की कोशिश किसी न किसी तरह मुस्लिम वोट हथियाने की है, जो उससे बिदक गया है. ये मतदाता 130 सीटों पर सीधे असर डालते हैं. मोटे अनुमान के तौर पर पश्चिमी उप्र की 20, पूर्वी उप्र की 10, मध्य उप्र की पांच सीटों पर मुस्लिम आबादी 30 से 40 प्रतिशत के बीच है.

कांग्रेस के लिए यह नया खेल नहीं है. राजीव गांधी ने भी कट्टरपंथियों के दबाव में शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलट दिया था. इसी तरह, अयोध्या में शिलान्यास कराया और जब दबाव पड़ा तो उस पर रोक लगवा दी. क्या मुसलमानों को रिझाने की कांग्रेस की यह कोशिश इस बार रंग लाएगी? वह मुस्लिम मतदाताओं का भरोसा जीत पाएगी?

इसके विपरीत राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो अभी हुए मतदानों में मुसलमान मतदाताओं का रुझान सपा के पक्ष में दिखा है, जो उन्हें 18 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत कर रही है. हालांकि भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने की मंशा रखने वाली बसपा की भी पैनी नजर इन मतदाताओं पर है. उप्र में मुस्लिम-ओबीसी गठजोड़ सबसे बड़ा वोट बैंक है. किंतु दलों की राजनीति के चलते इनके वोटों में बिखराव आ गया है. ये दोनों हर दल के एजेंडे में हैं.

ऐसे में 2012 का यह चुनाव बड़े बदलाव का संकेत है क्योंकि ये जातियां जीत-हार के कोण को किसी के भी पक्ष में झुका सकती हैं. अत: जैसे भी हो, इनका समर्थन पाने में सभी पार्टियां लगी हैं. तरह-तरह के हथकंडे अपनाने में कोई भी दल किसी से पीछे नहीं है. ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनावी अंकगणित को आसानी से समझ पाना आसान नहीं है.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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