डोलने से बचा सिंहासन

Last Updated 05 Feb 2012 02:09:17 AM IST

यूपीए सरकार के लिए शनिवार का दिन महत्त्वपूर्ण रहा.


टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में गृह मंत्री को सह आरोपित करने की सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका खारिज कर सीबीआई की अदालत ने न केवल पी. चिदंबरम को क्लीन चिट दे दी है बल्कि यूपीए सरकार को भी बड़ी राहत दी है. यह बात वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी को ही नहीं बल्कि देश के व्यापक प्रबुद्ध तबके को भी समझ में आई है. तय है कि अदालत ने अपने फैसले तथ्यों की रोशनी में ही दिए हैं. हालांकि टूजी स्पेक्ट्रम के आवंटित 122 लाइसेंसों को रद्द करने के ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने (साक्ष्यों के मुताबिक ही) यही कहा था कि तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए.राजा न तो वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की सलाह मान रहे थे और न प्रधानमंत्री की. इसके विपरीत, स्वामी का दावा है कि चिदंबरम की राजा से सांठगांठ थी. वह लगातार संपर्क में थे. ऐसे में हो सकता है कि निचली अदालत ने तथ्यों के अलावा सर्वोच्च अदालत की टिप्पणियों में भी अपने लिए कोई नजीर पाया हो. खैर, यह अंतिम फैसला नहीं है और यह कांग्रेस के मनमुताबिक इस पर अंतिम विराम नहीं लगने जा रहा है. स्वामी ने ऊंची अदालतों तक जाने का मंसूबा जता रहे हैं. इसलिए यह मुकदमा मरा नहीं है और उसकी तार्किक परिणति अभी बाकी है.

इतनी बात तो तय है कि टूजी के 122 लाइसेंसों को रद्द किए जाने के फैसले से मनमोहन सरकार सकते में है तो कांग्रेस इसके दूरगामी राजनीतिक परिणामों को लेकर चिंतित है. अदालत के फैसले से सरकार की नीतियों का खोट जरूर उजागर हुआ है जबकि वह इस मामले पर देश को लगातार गुमराह कर रही थी. इस महाघोटाले को छुपाने के लिए भरपूर कोशिश की गई. कैग की रिपोर्ट को झुठलाने के लिए तो तर्क गढ़े ही गए, पीएसी की बैठकों में कांग्रेसी सांसदों ने जमकर हंगामा किया था. किंतु अदालत के फैसले ने इस घोटाले के सच को उजागर कर दिया है और यह घोटाला बोफोर्स से भी बड़ा घोटाला निकला है, जिससे सरकारी खजाने को भारी नुकसान हुआ है. इतना ही नहीं सरकार नौकरशाही और औद्योगिक घरानों के गठजोड़ का सच सामने आया है. कैसे औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार चुप्पी ही नहीं साधे रही बल्कि लीपापोती करती रही.

यद्यपि फैसला आने के बाद अब सरकार इस भ्रष्टाचार का ठीकरा तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए.राजा (साल भर से जेल में बंद) के माथे फोड़ रही है. साथ ही 2001 की एनडीए सरकार की ‘पहले आओ पहले पाओ’ की नीति को जिम्मेदार ठहरा रही है. किन्तु यह उसकी कमजोर पैरवी है और यह उसे भी पता है. सचाई यह है कि इस फैसले से औद्योगिक घरानों को तगड़ा झटका लगा है तो सरकार पर लगा भ्रष्टाचार का दाग और गहरा हुआ है. अब सरकार इसी को लेकर हैरान-परेशान है.

हर कोई सवाल कर रहा है कि इतना बड़ा घोटाला अकेले ए.राजा ने किया? यह सवाल न्यायालय के फैसले के बाद सरकार की सफाई के बाद उठ खड़ा हुआ है. इसलिए इस सच को यहां समझना जरूरी है. दरअसल, अगस्त 2007 में ही ट्राई ने स्पेक्ट्रम लाइसेंस की कीमतों के निर्धारण के लिए प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रिया अपनाने के सुझाव दिया था. इस आशय की प्रेषित रिपोर्ट को संचार मंत्रालय ने चंद समय में ही खारिज कर दिया था और 2001 में बनाई नीति ‘पहले आओ पहले पाओ’  को ही अपनाया. ऐसा नहीं कि उस समय इसका विरोध नहीं हुआ था. तत्कालीन सचिव और वित्तीय मामलों के सदस्य के विरोध करने पर दोनों की फाइल पीएमओ गई. यह सच है कि इस विरोध का खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा. इतना ही नहीं, उस समय कानून मंत्रालय ने भी एक नोट के जरिये सुझाव दिया था कि जिन्हें लाइसेंस दिया जा रहा है, उनके गुण-दोष को परखना जरूरी है. यह भी देख लिया जाए कि सरकार को इससे घाटा तो नहीं हो रहा है. राजस्व का सवाल तत्कालीन वित्त मंत्री पी.चिदंबरम की टिप्पणी के बाद दब गया, जिसमें उन्होंने ए.राजा के ‘पहले आओ पहले पाओ’  (2001 के खुले नियम) की नीति का समर्थन किया था.

स्पष्ट है कि कानून मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और पीएमओ की नजरों तले संचार मंत्रालय काम कर रहा था और मोटे तौर पर नौ हजार करोड़ में ऐसी कम्पनियों को लाइसेंस बांटे गए जो टेलीकॉम क्षेत्र में मुनाफा कमाने के लिए आई थी. इनमें देशी-विदेशी कम्पनियां शामिल हैं. यह औद्योगिक घरानों का मुनाफा बनाने का विस्तारवादी चेहरा नहीं तो क्या है, जिसकी पैरोकारी में यूपीए सरकार खड़ी है. यदि ऐसा नहीं होता तो 16 माह पहले आई कैग की रिपोर्ट पर सरकार कार्रवाई कर सकती थी. कैग की रिपोर्ट नवम्बर 2010 में संसद में पेश हुई थी, जिसमें सरकारी खजाने को 1,76,645 करोड़ रुपये के नुकसान की आशंका जताई गई थी. किंतु संचार मंत्री कपिल सिब्बल ने उस समय यहां तक कहा था कि इस आवंटन से सरकार को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ है. कैग की रिपोर्ट त्रुटिपूर्ण है.

वास्तव में इस फैसले ने सरकार के झूठ को एक साथ उजागर ही नहीं किया बल्कि सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि सरकार देश की संपदा के साथ किस तरह खेल रही है. ऐसे में यह कैसे संभव है कि सिर्फ संचार मंत्री इतने महत्त्वपूर्ण मामले में अपने दम पर फैसला ले लें? लाइसेंस आवंटन की प्रक्रिया पहले से ही संदिग्ध थी. कम्पनियों को लाइसेंस मनमाने तरीके से लाभ पहुंचाने के लिए बांटे गए.

अब अदालत के फैसले के बाद सरकार अपना दामन पाक-साफ दिखाने में लगी है. क्या जनता विास करेगी? जवाब ‘न’ ही होगा क्योंकि नवम्बर 2009 में जनता पार्टी नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने पत्र लिखकर प्रधानमंत्री से ए.राजा के खिलाफ टूजी मामले में अभियोजन चलाने की अनुमति मांगी थी.

लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोई उत्तर नहीं दिया. इस अवधि में फाइल इधर-उधर घूमती उसी मंत्रालय जा पहुंची, जिसके खिलाफ शिकायत थी. यह नौकरशाही की कार्यशैली को उजागर करने के लिए काफी है. इसी शैली से परेशान होकर स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें अदालत ने अपने फैसले में प्रधानमंत्री के कार्य करने के तरीके पर सवाल खड़े किए हैं. इससे प्रधानमंत्री की ईमानदारी छविश्व पर बट्टा लगा है और सरकार की साख पर भ्रष्टाचार का लगा दाग और गहरा हुआ है. इतना ही नहीं, अदालत का यह फैसला भविष्य में नजीर बनेगा.

अब सरकार द्वारा मंत्रिमंडल के विशेषाधिकार के नाम पर इस तरह के किसी भी फैसले को संरक्षण नहीं मिल सकेगा. अगर लाइसेंस आवंटन नीति का सही तरीके से पालन नहीं होता है तो यह फैसला आगे लाइसेंस रद्द करने का आधार बन सकता है. ऐसे में कारपोरेट जगत पर अब शॉर्टकट अपनाकर लाइसेंस पाने की प्रतिस्पर्धा पर भी विराम लगेगा. साथ ही लाइसेंस खरीद और बेचकर मुनाफा कमाने वाली कम्पनियों पर भी अंकुश लगेगा. यह फैसला राजनीतिकों को भी नीतियों के गलत इस्तेमाल और उनकी गलत व्याख्या करने से रोकेगा.

यद्यपि कारपोरेट जगत और उदारीकरण के हिमायती तर्क दे रहे हैं कि इस फैसले से निवेश प्रभावित होगा किन्तु मेरा मानना है कि निवेश के नाम पर लूट की खुली छूट की वकालत नहीं होनी चाहिए. सरकार को देश का हित पहले रखना चाहिए, जिसकी इस घोटाले में पूरी तरह अनदेखी की गई है. सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकती क्योंकि स्वामी सहित विपक्ष भी इस घोटाले में राजा की तरह चिदंबरम को भी बराबर का जिम्मेदार मानता है. यहां हमें देश के उन जिम्मेदार जागरूक नागरिकों का भी शुक्रगुजार होना चाहिए, जिनके साहसिक प्रयास से यहां महा घोटाला घोटाला उजागर हुआ है. वैसे अदालत का फैसला ऐसे समय आया है, जब चुनाव हो रहे हैं. इसने विपक्ष को कांग्रेस पर हमले का बड़ा अवसर मुहैया करा दिया है. भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त लोकपाल को लेकर सरकार पहले से ही निशाने पर है. 

ऐसे में यह फैसला उसके लिए कोढ़ में खाज बन गया है. अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव के अलख का चुनाव में प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना से कांग्रेस हलकान है. इतना ही नहीं, इस घोटाले के लिए सीधे तौर पर अपने सहयोगी दल द्रमुक के पूर्व मंत्री ए.राजा को दोषी ठहराकर उसने एक और नई मुसीबत मोल ले ली है. सहयोगी तृमूकां पहले से नाराज हैं तो एनसीपी पर कांग्रेस का भरोसा कम है. ऐसे में द्रमुक की नाराजगी भी आगे उसके लिए परेशानी का सबब बन सकती है. ऐसे में यूपीए के लिए आगे की राह आसान नहीं दिखती है.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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