सवाल चेहरों की साख पर

Last Updated 29 Jan 2012 01:18:06 AM IST

यों तो पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, किंतु सभी की निगाहें उत्तर प्रदेश पर टिकी हैं.


इस बार का चुनाव कई मायनों में महत्त्वपूर्ण है. कांग्रेस और सपा के लिए पीढ़ीगत बदलाव की अग्निपरीक्षा है तो बसपा के लिए दोबारा सत्ता में बने रहने की चुनौती. भाजपा के लिए अपने पुराने गौरव को हासिल कर 2014 के चुनाव में मजबूत विकल्प बनने का कड़ा इम्तिहान है क्योंकि सबसे बड़े राज्य होने के कारण सबसे ज्यादा सांसद यहीं से आते हैं. अत: इसके परिणामों का सीधा असर देश की राजनीति पर पड़ना लाजमी है. आगामी अप्रैल-मई में राज्यसभा और जुलाई में राष्ट्रपति के चुनाव होने जा रहे हैं. इतना ही नहीं चुनाव के बाद नए समीकरण बनेंगे जो देश की राजनीति को प्रभावित करेंगे. इसीलिए उत्तर प्रदेश का चुनाव खास है.

वर्ष 2012 का यह चुनाव पार्टियों के लिए ही नहीं कुछ हस्तियों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है. चुनावों के परिणाम उनके सपनों की रंगोली में तरह-तरह के रंग भरेंगे. कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और सपा के अखिलेश यादव की राजनीतिक हैसियत परिणामों की धमक से तय होंगे. वहीं मायावती जनता का दोबारा विास पाती है तो केंद्रीय राजनीति में उन्हें नई पहचान मिलेगी. भाजपा यदि कोई करिश्मा करती है तो पार्टी में प्रधानमंत्री के दावेदारों की सूची लम्बी हो सकती है. साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दबाव में मध्य प्रदेश से उत्तर प्रदेश आई उमा भारती और संजय जोशी की हैसियत बढ़ जाएगी और उनकी आम छवि ‘चुनाव जिताऊ’ नेताओं की हो जाएगी. ये सारे किंतु-परंतु इस चुनावी महासमर में कसौटी पर हैं.

कांग्रेस ने इस चुनाव में राहुल को युवा चेहरा और अपने राजनीतिक भविष्य के रूप में पेश किया है. उनकी ही पहल पर बिहार में कांग्रेस ने लालू प्रसाद यादव से पिंड छुड़ाकर अकेले विधानसभा चुनाव लड़ा था. हालांकि पार्टी वहां कुछ खास नहीं कर सकी थी. उसकी मेहनत जाया गई थी. किंतु उत्तर प्रदेश में पिछले दो सालों से राहुल कांग्रेस को मुख्यधारा में लाने और उसके पुराने वोट बैंक को वापस लाने की जद्दोजहद में लगे हैं. वैसे लोस चुनाव में मिली सफलता से पार्टी उत्साहित है. कांग्रेस के लोगों का कहना है कि दलित, ब्राह्मण और मुसलमान पार्टी की तरफ लौट रहे हैं. ये जातियां मायावती से नाराज हैं, जिसका लाभ चुनाव में उन्हें मिलेगा. इसी चुनावी अर्थशास्त्र की बदौलत उसे करिश्मा की उम्मीद है. यदि ऐसा होता है तो 2014 के चुनाव में राहुल की भूमिका बड़ी होगी और प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार होंगे. यदि ऐसा नहीं हुआ तो उनके नेतृत्व पर सवालिया निशान लगेगा. विपक्ष को मौका मिलेगा. जनता में उनकी लोकप्रियता कम होगी.

इसके साथ, कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का भी राजनीतिक भविष्य दांव पर है. वह राहुल के सबसे निकट सलाहकार बताए जाते हैं. मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने की उनकी कोशिशें भी कसौटी पर हैं. यदि इसमें कामयाबी नहीं मिलती है तो उन्हें पार्टी के अंदर और बाहर भारी विरोध झेलना पड़ेगा. उनके मुस्लिम राग के कारण कांग्रेस को कई अवसरों पर फजीहत झेलनी पड़ी है.

विरोधियों का कहना है कि उनके मुस्लिम प्रेम के कारण ही बहुसंख्यक बेवजह नाराज हो उठे हैं. दिलचस्प यह है कि उप्र के अंतिम चरण के चुनाव में ही मुस्लिम बहुल सीटें सबसे अधिक हैं. यदि कांग्रेस अपने पक्ष में बने माहौल को अंत तक कायम रखने में सफल रही तो मुस्लिम वोट पाने में उसे जरूर सफलता मिल सकती है अन्यथा मुसलमान बिहार का इतिहास उत्तर प्रदेश में भी दोहरा सकते हैं. इसलिए कि निचले स्तर तक कमजोर संगठनात्मक ढांचा ही कांग्रेस की असली मुसीबत है.

इसी तरह, सपा के लिए यह चुनाव ‘करो या मरो’ का सवाल बन गया है. वह हर हाल में सत्ता में वापसी चाहती है. मुलायम सिंह यादव ने अपनी ताकत झोंक दी है. उनके वारिस के रूप में चुनाव की कमान अखिलेश यादव के हाथों में है. चुनाव घोषणा पत्र के जरिये उन्होंने अपनी सोच से जनता को रू-ब-रू कराया है कि सपा तेजी से बदल रही है. अब पार्टी पहले वाली नहीं रही. उसमें युवकों के सपनों को बढ़ाने की ताकत और बेहतर कार्यक्रम है. इससे समाजवादी विचारधारा को बल मिलेगा. यदि वह अपने इस मिशन में चूकते हैं तो पार्टी अनुशासन में दबी घरेलू कलह सतह पर आ जाएगी. सपा को बड़ा झटका लगेगा और अखिलेश राजनीतिक हाशिये पर आ जाएंगे.

सत्तारूढ़ बसपा की सर्वजन की सोशल इंजीनियरिंग की परीक्षा है तो दलित वोटों में सेंध न लगने देने की चुनौती है. बदली हालत में उसे 2007 की तरह इस बार सत्ता वापसी का बड़ा भय सताने लगा है. सत्ता से बाहर होने की स्थिति में प्रधानमंत्री की कुर्सी तक (2014) पहुंचने के मायावती के सपने का भी चकनाचूर होना तय है. दूसरे, प्रदेश में सत्ता के नए समीकरण बनने की स्थिति में विधायकों के टूटने का खतरा सालता रहेगा. यदि मायवती दोबारा सफल होती हैं तो बसपा के विस्तार को रोका न जा सकेगा और 2014 में केंद्र की राजनीति में निश्चित ही उनकी अलग भूमिका होगी.

इसके विपरीत, हार की स्थिति में सबसे ज्यादा जूतम-पैजार भाजपा में देखने को मिलेगी क्योंकि आरएसएस के दबाव पर ही उमा भारती और संजय जोशी को प्रदेश की चुनावी कमान सौंपी गई है. इसलिए सबसे बड़ा इम्तिहान इन्हीं का है. दूसरे, नितिन गडकरी भी कसौटी पर हैं. कुशवाहा प्रकरण पर उनकी काफी फजीहत हुई है. अगर पार्टी मौजूदा 51 सीटों में इजाफा करती है तो गडकरी की किस्मत का सितारा चमकेगा और पार्टी पर संघ का शिंकजा और कसेगा. पिछड़ों में भाजपा की पहचान बनेगी. यदि नतीजे भाजपा की उम्मीदों के विपरीत हुए तो 2009 के आम चुनाव के बाद पार्टी के भीतर पैदा हुई स्थिति दोहरा सकती है. इतना ही नहीं जद यू जो एनडीए का घटक दल है प्रदेश में चुनावी समझौता न होने की दशा में अकेले चुनाव मैदान में है. यहां यदि भाजपा कमजोर प्रदर्शन करती है तो जद यू आंखें तरेर सकती है और वह एनडीए के लिए कमजोरी का सबब बन सकती है. ऐसी ही दशा कांग्रेस की भी है. उसकी सहयोगी तृमूकां चुनावी तालमेल के अभाव में मैदान में है. ममता के व्यवहार से कांग्रेस उनसे दूरी बना रही है. यदि उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब में कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा तो डेढ़ साल से बचाव की मुद्रा में रहने वाली कांग्रेस को अपने सहयोगियों को गठबंधन धर्म समझाने का मौका मिलेगा. यदि ऐसा न हुआ तो तृणमूल को झेल पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा.

चूंकि मतदान की तिथियां नजदीक आ गई हैं. इसलिए संभावित चुनाव परिणामों और राजनीतिक गठजोड़ को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगनी भी शुरू हो गई हैं. हर दल अपने पक्ष में हवा की बात कर रहा है पर मतदाता चुप और सावधान हैं. वह अभी खुलकर सामने नहीं आ रहे हैं. किंतु मतों में जिस तरह के बिखराव हैं,उनमें किसी भी दल को अकेले बहुमत मिलने की संभावनाएं क्षीण ही दिखती हैं. ऐसे में चुनाव बाद सत्ता के लिए गठबंधन को लेकर कयास लगने लगे हैं. कौन दल मिलकर साझा सरकार बनाएंगे. संघ ने भाजपा कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया है कि जहां उसके प्रत्याशी हार रहे हों, वहां वह बसपा को वोट करें. इससे ध्वनित होता है कि यदि भाजपा सम्मानजनक सीटें पाती हैं तो बसपा के साथ समझौता कर सरकार बना सकती है. यदि ऐसा नहीं हुआ और सपा कहीं प्रमुख पार्टी बनी तथा कांग्रेस को करिश्माई सीटें मिलीं तो दोनों मिलकर सरकार बना सकती हैं. ऐसे में सपा केंद्र में भी सत्ता में शामिल हो सकती है. कांग्रेस तृमूकां से खफा है. वह रोज रोज की उसकी घुड़की से छुटकारा चाहती है. दूसरे, 2014 में मुलायम सिंह यादव तीसरे मोच्रे की मजबूत धुरी बन सकते हैं.
वैसे उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में भी कांग्रेस की स्थिति हुलसाने वाली नहीं है. ऐसे में राज्यसभा और राष्ट्रपति के चुनाव में उसे बड़े दबाव का सामना करना पड़ सकता है. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम राजनीतिक पार्टियों के साथ दांव पर लगे चेहरों की अहमियत के भी पैमाने होंगे, जिनका असर केंद्र की राजनीति पर पड़ना लाजमी है.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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