युवा मुस्लिम बदलेंगे वोटिंग ट्रेंड ?

Last Updated 15 Jan 2012 01:14:14 AM IST

उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट के लिए राजनीतिक जंग छिड़ गई है. हर दल अपने को मुसलमानों का बड़ा हितैषी साबित करने में लग गया है.


 एक अजीब सी होड़ लगी है. मुस्लिम नेताओं को अपने पाले में करने का सियासी खेल परवान चढ़ रहा है. सचाई यह है कि हर दल ने समय-समय पर उन्हें सत्ता की सीढ़ी के रूप में उपयोग किया है. राजनीति के इस खेल में मुस्लिम नेताओं, इमामों और मौलानाओं की सामाजिक व आर्थिक हैसियत तो जरूर बढ़ी है लेकिन आम मुसलमानों की हैसियत और कमजोर हुई है.

ऐसे में अहम सवाल यह है कि क्या सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मुस्लिम मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों के बारे में नए सिरे से सोचने के लिए विवश करेगी? क्या मुस्लिम मतदाताओं के स्थापित नजरिये में बदलाव आएगा? क्या मुसलमान आरक्षण और सरकारी घोषणाओं में ही फंसकर रह जाएगा? क्या वह बाटला (नई दिल्ली), अयोध्या और गुजरात के भय को दरकिनार कर साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने वालों को करारा जवाब देगा? या वह उत्तर प्रदेश में भी बिहार का इतिहास दोहराकर अवसरवादी राजनीतिक दलों को आईना दिखाएगा?

युवा मुस्लिम की बड़ी तादाद बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात दंगे के साये से निकलकर पहली बार अबकी मतदान में शिरकत करेगी. उनकी यह भागीदारी निश्चित रूप से मुस्लिम राजनीति को नई दिशा देगी. इन युवाओं के लिए ये घटनाएं बीते कल की बातें हो चुकी हैं, जो उस समय जवान थे, वे बूढ़े हो चले हैं. युवा पीढ़ी इस दु:स्वप्न को भूलना चाहती है. उन्हें एहसास हो चुका है कि धार्मिक भावनाओं को उभारकर और दंगों का भय दिखाकर राजनीतिक दलों ने अभी तक कैसे ठगा है? धार्मिक गुरुओं, मस्जिदों तथा मदरसों का अपने राजनीतिक हित साधने के लिए समय-समय पर कैसे इस्तेमाल किया?

सत्ता तक पहुंचने के लिए राजनीतिक दलों ने उन्हें बैसाखी जरूर बनाई किंतु उनकी माली हालत सुधारने के लिए कोई ठोस कम नहीं किया. इसीलिए उनकी सोच में अब सामाजिक व आर्थिक बदलाव की आकांक्षा है. उनका यकीन वादे और घोषणाओं में नहीं रह गया है. इक्कीसवीं सदी की इस पीढ़ी के युवाओं की आकांक्षाओं में बदलाव के पीछे सच्चर कमेटी की रिपोर्ट अहम कारक है, जिसने उन्हें उनकी जमीनी हकीकत पूरे देश को दिखाने का काम किया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर है. इसीलिए असुरक्षा के साये से बाहर निकलकर वह अपने हकों के लिए बदलाव का रास्ता खोजने लगे हैं.

सामाजिक और आर्थिक बदलाव को लेकर उनके मन में उकताहट है. यही कारण है कि वह भाजपा के खिलाफ किसी भी पार्टी के मजबूत उम्मीदवार को वोट देने की रणनीतिक समझदारी को छोड़कर अपनी भूमिकाएं बदलना चाहते हैं. उनकी इसी सोच ने उन सभी राजनीतिक पार्टियों की बेचैनी बढ़ा दी है, जो उनके सहारे अब तक चुनावी वैतरणी पार करते आ रहे थे और इस बार भी  करना चाहते हैं.

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के बाद कांग्रेस मुसलमानों की दूसरी पसंद रही है. इससे उत्साहित कांग्रेस पार्टी इस बार उन्हें रिझाने में लग गई है. बुनकरों के लिए पैकेज की घोषणा और चुनाव घोषणा से ठीक पहले 4.5 प्रतिशत का आरक्षण देकर वह उस समुदाय से अपनी निकटता दिखा रही है. कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो नौ प्रतिशत आरक्षण देने का वादा कर वाहवाही लूटने की कोशिश की है. हालांकि इसी क्रम में पूर्वाचल के बुनकर मुसलमानों को अपने पक्ष में करने का महासचिव दिग्विजय सिंह का दांव कांग्रेस के लिए उलटा पड़ गया है.

वह आजमगढ़ के शिबली कॉलेज में राहुल गांधी को ठहराकर और उनसे संवाद कराकर पूर्वाचल के मुसलमानों की नाराजगी दूर करना चाहते थे. पर हो गया सब कुछ उनकी रणनीति के उलट. चार साल पुराना बाटला मुठभेड़ कांड का जिन्न उनके ही गले पड़ गया. वहां के उत्तेजित युवकों ने कांग्रेस के युवराज के ही पुतले फूंक डाले क्योंकि दिग्विजय सिंह मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए बाटला मुठभेड़ को फर्जी बता रहे थे. इसके पहले उन्होंने इसकी जांच का आासन दिया था. किंतु इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई. इसलिए वह कांग्रेस से नाराज थे.

उनकी नाराजगी को कम करने और वोट के लिए दिग्गी राजा ने अपने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है. इसलिए कि यूपीए सरकार की लाइन मुठभेड़ को सही मान रही है. दिग्गी के अलग सुर ने पार्टी की दुविधा बढ़ा दी है. सदा की तरह इस बार भी कांग्रेस ने दिग्गी और खुर्शीद के बयान से किनारा कर लिया है. हालांकि दोनों ही नेता व्यक्तिगत और मंत्री नहीं नेता की हैसियत से दिए बयान बता कर अपने-अपने कथन पर कायम हैं. जो भी हो, इन प्रकरणों से कांग्रेस के मुस्लिम प्रेम का सच एक बार फिर उजागर हो उठा है.

इतना ही नहीं, सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को अक्षरश: लागू करने में हीलाहवाली से भी मुसलमान सहज नहीं दिखते हैं. वह अपनी खस्ताहाल सामाजिक स्थिति के लिए कांग्रेस को ही जिम्मेदार मानते हैं. शिबली कॉलेज की घटना से कांग्रेस के चुनावी  अभियान को बड़ा झटका लगा है. मुसलमानों के बीच कांग्रेस की कथनी व करनी का भेद उजागर हुआ है. इसके विपरीत, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजित सिंह से गठजोड़ और सपा छोड़कर आए रशीद मसूद सरीखे नेताओं व मुस्लिमों को अधिक टिकट देने की उनकी रणनीति कितनी कारगर होती है, यह चुनाव के बाद सामने आएगा. किंतु सच यह है कि मुसलमान कांग्रेस से उतना सहज नहीं है, जितना वह समझ रही है क्योंकि उसके और मुसलमानों के बीच में रोड़े बहुत हैं.

इसके विपरीत, बसपा दावा कर रही है कि उसके शासनकाल में दंगे नहीं हुए तथा अयोध्या पर फैसला आने के बाद राज्य में शांति बनी रही. किंतु मुसलमान उसकी दावेदारी को फिलहाल अभी कम प्राथमिकता दे रहे हैं. उनका आरोप है कि उनके सामाजिक स्तर को सुधारने के लिए सरकार ने कुछ खास नहीं किया जबकि सपा उनके विास को संजोकर रखने की हर कोशिश में लगी है और इसमें कोई अवसर छोड़ नहीं रही है.

मुस्लिम मतदाताओं का मानस बदल रहा है. नए मतदाता पुराने मतदाताओं के पुराने आग्रहों को तोड़ने में लगे हैं. इनकी झलक बिहार के चुनाव में दिखी भी है. कांग्रेस वहां भी उत्तर प्रदेश जैसी उछल-कूद की थी.

अधिकाधिक मुस्लिम प्रत्याशियों को टिकट दिए थे. लालू और पासवान भी उनकी रहनुमाई का दम भरते थे. वे भी मुसलमानों के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने के सपने संजोए थे, लेकिन यह सपना ही रह गया. मुसलमानों ने नीतीश कुमार के विकास के मॉडल पर भरोसा किया और जद यू-भाजपा गठबंधन के तहत भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में भी वोट करने में गुरेज नहीं किया. उनके सोच में आए इस बदलाव ने उस समय सभी को चौंका दिया था.

इस लिहाज से उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाता कसौटी पर हैं. वे सवाल कर रहे हैं कि सच्चर की रिपोर्ट के बाद की योजनाओं का कब लाभ मिलेगा? वह मुख्यधारा में आने के लिए अच्छी शिक्षा और उद्यमशीलता चाहते हैं. इसलिए उन्हें चुनावी सौगातों, वादों की नहीं बल्कि ऐसे परिवेश की चाहत है, जो उनकी प्रतिभा को विकसित करने का मौका दे. उन्हें पता है कि पिछली विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या 56 हो गई थी जबकि 1991 में केवल 17 थी. इसके बावजूद मुसलमानों की सामाजिक स्थिति कमजोर बनी हुई है.

वह मुस्लिम वोटों के तथाकथित ठेकेदारों और धार्मिक प्रमुखों से भी सवाल कर रहे हैं, जो अभी तक हुक्म देते थे कि किसे वोट देना है, अथवा नहीं देना है. ये मतदाता अब इन्हीं मजहबी नेताओं को सियासत के दायरे से बाहर निकालने की कवायद में जुट गए हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों को उनकी आकांक्षाओं को समझना चाहिए. कांग्रेस बिहार जैसी भूल उत्तर प्रदेश में भी कर रही है, जो उनके घावों को कुरेदने का काम कर रही है. उसे समझना चाहिए कि चुनावी सौगातें और आासन मुसलमानों पर कोई खास असर नहीं छोड़ पाएंगे.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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