दोहरी तलवार पर है कांग्रेस

Last Updated 25 Dec 2011 01:04:52 AM IST

सम्पूर्ण विपक्ष और अपने कई सहयोगी दलों के विरोध के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार ने लोकपाल विधेयक लोकसभा में पेश कर पहली लड़ाई जीत ली है.


किंतु संसद में विरोधी दलों के तेवर को देखते हुए इसके अंजाम तक पहुंचने को लेकर आशंकाएं उठने लगी हैं. यद्यपि 27 से 29 दिसम्बर तक संसद के दोनों सदनों में इस विधेयक का भविष्य देखना दिलचस्प होगा. मैं आशावादी हूं. इसलिए मेरी सोच है कि कुछ संशोधनों के साथ यदि लोकपाल दोनों सदनों से पास होता है तो भ्रष्टाचार पर कुछ अंकुश तो जरूर लगेगा. इसके खिलाफ देशव्यापी माहौल बनेगा.

हालांकि अन्ना और उनके सहयोगी सरकारी विधेयक को भ्रष्टाचार रोकने में विफल मान रहे हैं. उनका तर्क है कि 90 प्रतिशत राजनेताओं और 95 प्रतिशत कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है जबकि आम लोगों को इसके दायरे में रखा गया है. प्रधानमंत्री द्वारा भेजे गए पत्र में जिन तीन बिंदुओं को लोकपाल में शामिल किए जाने का वादा किया गया था, उन्हें भी पूरा न होने से टीम अन्ना नाराज है. इसीलिए अन्ना 27 दिसम्बर से अनशन और जनवरी से ‘जेल भरो आंदोलन’ की राह पर है. ऐसी स्थिति में देश की जनता की नजरें अब कांग्रेस पर टिकी हैं.

तो कांग्रेस के लिए यह सुनहरा मौका है. आम आदमी को सशक्त बनाने की दिशा में वह पहले भी कई ठोस कदम उठा चुकी है. 2009 के आम चुनावों में दूसरी बार उसकी वापसी के पीछे ठोस आधार वे निर्णय ही रहे हैं. राइट टू इनफॉम्रेशन, राइट टू एजूकेशन, मनरेगा तथा किसानों की कर्ज माफी आदि बड़े-बड़े फैसलों के जरिये ही उसने आम जनता का विश्वास जीता था. हालांकि अपने दूसरे शासनकाल में ताबड़तोड़ घोटालों के चलते सरकार की साख गिरी है. उसकी आम छविश्व भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने और भ्रष्टाचारियों को बचाने की बन गई है.

लोकपाल के आने के बाद जनता की धारणा में सार्थक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है. तब कांग्रेस अपने समर्थन में कह सकती है कि भ्रष्टाचार से निपटने की उसकी आग बुझी नहीं है. वह जनता के बीच जोरदारी से कह सकती है कि पिछले साल दिसम्बर के तीसरे हफ्ते में बुराड़ी (नई दिल्ली) में कांग्रेस महाधिवेशन में पार्टी ने भ्रष्टाचार के खात्मे का संकल्प लिया था, वह लोकपाल लाकर उस दिशा में कदम बढ़ा दिया है. दूसरे, खाद्य सुरक्षा बिल लाकर सरकार ने गरीबों को सम्मानपूर्वक दो जून पेट भर भोजन का अधिकार उपलब्ध करा कर उसे मजबूत करने की कोशिश की है. यह सच है कि जिन आनन-फानन में खाद्य सुरक्षा बिल और मुसलमानों को 4.5 प्रतिशत का आरक्षण देने का फैसला हुआ है, वह पांच राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारी का भी हिस्सा माना जा रहा है (जिसकी तिथियां निर्वाचन आयोग ने घोषित कर दी है) .

सवाल है कि लोकपाल विधेयक पारित कराना इतना आसान है? जिन पार्टियों ने इसी 11 दिसम्बर को दिल्ली में अन्ना के मंच पर जन लोकपाल का समर्थन किया था, संसद में उनका रुख बदला-बदला सा था. वहीं कांग्रेस पर भी आरोप लग रहा है कि उसने सेंस ऑफ द हाउस (संसद की भावना) के सम्मान में यह बिल ले आई है पर वह खुद इसे पारित कराना नहीं चाहती. तो जो स्थितियां बन रही हैं, उनसे यह आशंका बलवती होती दिख रही हैं कि कहीं इसकी भी दशा महिला आरक्षण विधेयक जैसी न हो जाए.

कानून के जानकारों का कहना है कि यदि यह विधेयक संसद से पास भी हो गया तो सर्वोच्च अदालत में अटक जाएगा क्योंकि सरकार ने संवैधानिक संस्था में आरक्षण का रास्ता खोला है. उसने राजनीतिक दबाव में न केवल धर्म आधारित आरक्षण का प्रावधान किया है बल्कि आरक्षण की सीमा भी लांघ ग्दिया है. मंडल कमीशन के बाद आए इंदिरा साहनी मामले पर दिए अपने फैसले में कोर्ट ने कहा है कि आरक्षण 50 फीसद से ज्यादा नहीं हो सकता जबकि लोकपाल में आरक्षण की न्यूनतम सीमा ही 50 फीसद रखी गई है. इसी तरह, विधेयक के मसौदे में संशोधन पत्र के जरिये ‘अल्पसंख्यक’ शब्द जोड़ने पर भी मामला फंस सकता है.

वैसे लोकपाल विधेयक कांग्रेस व उसकी सरकार के लिए दोधारी तलवार बन गया है. यदि यह विधेयक पास नहीं हुआ तो जनता में संदेश जाएगा कि मनमोहन सरकार ने भी पिछली सरकारों की तरह महज रस्म अदायगी की. दूसरे, यदि उपरोक्त विसंगतियों के बीच लोकपाल विधेयक पास भी हुआ और कोर्ट में जाकर लटका तो कांग्रेस और सरकार की और भद्द पिटेगी. ऐसे में कांग्रेस को गंभीर राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ सकता है. इसलिए सरकार को संसद में होने वाली बहस के दौरान इन विसंगतियों को दूर कर अपनी प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए. 

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में पिछले तीन साल में भ्रष्टाचार बहुत बढ़ा है. राजनेता और पुलिस सबसे अधिक भ्रष्ट हैं, जिन्हें काम आगे बढ़ाने और अधिकारियों के साथ टकराव से बचने के गुर मालूम हैं. आम आदमी को मूलभूत सुविधाएं पाने के लिए उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है. सबसे ज्यादा रिश्वत भूमि सेवा से जुड़े अधिकारियों, रजिस्ट्री और परमिट सेवाओं के लिए दी जाती है. इसीलिए अन्ना हजारे निचली श्रेणी के कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने की बात कर रहे हैं. अभी कुछ दिनों पहले उज्जैन के एक स्टोरकीपर के घर से छापे में 12 करोड़ की सम्पत्ति मिलना और इंदौर के आरटीओ क्लर्क के यहां से 40 करोड़ की सम्पत्ति का मिलना, इस रिपोर्ट की विसनीयता पर मुहर लगाती है.

इसलिए सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों को जनभावनाओं का आदर करते हुए लोकपाल विधेयक को और मजबूत बनाने के साथ ही साथ पास करना चाहिए ताकि भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग शुरू हो सके. सभी को 1974 में बिहार की तत्कालीन गफूर सरकार के भ्रष्टाचार के विरोध में शुरू होकर देशव्यापी हो गए जेपी आंदोलन से सबक लेना चाहिए,जिसकी परिणति तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्ताच्युत होने के रूप में हुई थी. इसलिए कांग्रेस के कंधे पर अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी देशव्यापी आंदोलन से पंगा न लेने और लोकपाल बिल पास कराने का ऐतिहासिक दायित्व है.

रणविजय सिंह
समूह सम्पादक, राष्ट्रीय सहारा हिन्दी दैनिक


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