कालाधन के खेल पर जरूरी नकेल
विदेशों में जमा कालेधन का मामला अचानक गर्म हो उठा है.
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जिनेवा स्थित बहुराष्ट्रीय बैंक के गोपनीय खातों से मिली जानकारी के तहत वहां भारतीयों का लगभग तीन हजार करोड़ रुपये का कालाधन जमा है. यह विपुल कालाधन उद्योगपतियों, राजनेताओं तथा अन्य भारतीयों का है. सरकार को मिली जानकारी के बाद इनमें हड़कंप मच गया है क्योंकि आपराधिक जांच निदेशालय ने उन्हें नोटिस थमा दिया है. राजनीतिक हल्कों में सरगर्मी इसलिए भी है क्योंकि इनमें तीन सांसदों के नाम होने का तथ्य उजागर हुआ है. हर आम भारतीय विदेशों में कालाधन जमा करने वालों के नाम जानना चाहता है. पर आयकर विभाग के स्तर से मुकदमा दायर किए बगैर सरकारी तौर पर इनका नाम सामने आ पाना आसान नहीं है. सवाल यह है कि क्या विदेशों में जमा अवैध धन का राष्ट्रीयकरण होगा और क्या सरकार इसके लिए कोई नीति बनाएगी?
विदेशों में जमा कालेधन का मामला भारत के लिए विकट समस्या है. 2009 के लोकसभा चुनाव में यह प्रमुख चुनावी मुद्दा बना था. इस सवाल पर यूपीए सरकार की उदासीनता को देखते हुए स्वामी रामदेव ने अनशन और रैली के जरिए दबाव डाला था. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कालेधन की जांच के लिए जांच दल गठित कर दिया है. वित्त मंत्रालय की मानें तो विभिन्न देशों में भारतीय नागरिकों के संदेहास्पद लेनदेन के 9900 मामलों की जानकारी मिली है, जिनकी जांच चल रही है. हमें इन जानकारियों से चौंकना नहीं चाहिए. अपनों के सितम भारत ने सबसे ज्यादा उठाए हैं. यह न सिर्फ एक तारीखी सच है बल्कि यह हमारी परंपरा में भी शामिल है, जो आज भी किसी न किसी रूप में जारी है.
एक जानकारी के अनुसार विभिन्न विदेशी बैंकों में 1450 बिलियन अमेरिकी डॉलर पड़ा हुआ है. बेहिसाब धन का यह आंकड़ा माथा ठनका देने वाला है. इसलिए भारत को विदेशों में ब्लैकमनी रखने वाले सबसे बड़ा खाताधातिरयों का देश माना भी जाता है. हमारे देश में काली कमाई का विचित्र खेल है. इस खेल में औद्योगिक घराने, नौकरशाह और राजनेता- तीनों शामिल हैं. उदारीकरण के दौर में तो यह खेल ज्यादा तेजी से और व्यापकता के साथ खेला जा रहा है. देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए बनी योजनाओं ने और किसी को आत्मनिर्भर बनाया हो या न हो, इस शातिर और खतरनाक गठजोड़ को जरूर आत्मनिर्भर बनाया है.
हकीकत यह है कि राजनेताओं से रसूखके चलते प्रभावी औद्योगिक घरानों ने मनमाने ढंग से औद्योगिक लाइसेंस हथियाए. इसके लिए उन्होंने ब्लैकमनी का सहारा लिया. उधर, सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें औद्योगिक घरानों से मदद मिलती रही. इतना ही नहीं, समय के साथ राजनीति का जबर्दस्त अपराधीकरण भी हुआ. आज आलम यह है कि कारोबारियों, अपराधी नेताओं और उगाही करने वाले बाबुओं के गठजोड़ ने देश भर में तबाही मचा दी है. ऐसे में भ्रष्टाचार भारत का लोकाचार बन गया है.
ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक ब्लैकमनी के एक बड़े हिस्से की जड़ें चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी हैं. ऐसे में राजनेता अपने निजी हित के लिए व्यवस्थित तरीके से ऐसा माहौल तैयार करते हैं, जिनमें औद्योगिक घरानों के भी हित जुड़े होते हैं. सरकार की लचर नीति के कारण ही प्रमोटर अपनी कंपनियों से करोड़ों रुपये निकालकर गुपचुप तरीके से दुनिया भर के उन देशों में भेज रहे हैं, जिन्हें टैक्स चोरी के मामले में स्वर्ग कहा जाता है. यह सिलसिला यही नहीं रुकता. इसमें क्लर्क से लेकर चपरासी तक सभी शामिल हैं, जो देश के निर्धनतम व्यक्तियों से भी उगाही करने से नहीं चूकते.
एक शोध के अनुसार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करीब पांच करोड़ भारतीय अपना काम कराने के लिए हर साल 9000 करोड़ रुपये बतौर घूस देते हैं. स्वास्थ्य, शिक्षा, मनरेगा में रोजगार, पुलिस तथा भू-अभिलेख विभाग में लोगों को प्रताड़ित कर उनसे पैसे झपटने का कोई अवसर नहीं छोड़ा जाता है. फिर उस पैसे को विदेशों में गुपचुप लगा दिया जाता है. आज गांधीवादी अन्ना हजारे इसी बीमारी से गरीबों को राहत दिलाने के लिए मजबूत लोकपाल की वकालत कर रहे हैं, जिसकी परिधि में निचले स्तर के कर्मचारी भी आ सकें. बढ़ते भ्रष्टाचार को रोकने और विदेशों में जमा कालेधन को वापस लाने को लेकर देशव्यापी माहौल बन रहा है.
इस बीच, देश के प्रमुख उद्योगपतियों ने भी इन्हीं मुद्दों पर अपनी चिंता जताई है. इसी के साथ देश के प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए ऑनलाइन नीलामी की प्रक्रिया को लागू करने की वकालत की गई है. उनका मत है कि इस तरह बदनामी का असर भारतीय उद्योग की विसनीयता पर पड़े बिना नहीं रह सकता, नहीं तो वि में अर्जित प्रतिष्ठा को खासी क्षति पहुंचेगी. देश के कई राज्यों में खदानों के आवंटन में मिलीभगत और भाई-भतीजावाद की अनेक घटनाओं को देखते हुए पारदर्शी नीलामी की आवश्यकता पर जोर दिया गया है क्योंकि भ्रष्टाचार व काली कमाई का यह एक बड़ा जरिया है.
आंदोलनों तथा कुछ प्रमुख उद्योगपतियों की नाराजगी से सरकार दबाव में है. यह अकारण नहीं है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जी-20 की बैठक में कालेधन का मुद्दा प्रमुखता से उठाया और कहा कि विकासशील देशों के सामने कालेधन की विकट समस्या है. यह कालाधन विदेशों में बड़ी मात्रा में जमा है. जी-20 देशों को इस समस्या को खत्म करने के लिए कड़ा संदेश देना चाहिए. यह उनकी चिंता दर्शाता है. यह सरकारी स्तर पर कालेधन को लेकर आई गंभीरता का अच्छा संकेत है. उम्मीद यह भी की जा सकती है कि इस संकेत से आगे कुछ कारगर फौरी कदम भी उठाए जाएं.
बहरहाल, सरकार को इस नए तथ्य की ओर भी ध्यान देना चाहिए कि कि देश में कालेधन को लेकर बढ़ती सजगता और अदालतों की लगातार दखलंदाजी के चलते लोग विदेशों में जमा कालाधन मॉरीशस और सिंगापुर जैसी जगहों को भेज रहे हैं. लिहाजा, इस पर भी कड़ी नजर रखने की जरूरत है. कालाधन की बात चले और भारतीय राजस्व को लगातार हो रहे घाटे दर घाटे पर चिंता न की जाए, यह हो ही नहीं सकता. ऐसा ही एक बड़ा बड़ा तथ्य राजकीय खजाने को हो रहे नुकसान को लेकर है. यह जानने के बावजूद कि भारतीय बैंकों में अरबों रुपये पड़े हैं, जिन पर किसी ने दावा नहीं किया है, अब तक इस बाबत कोई कदम नहीं उठाया गया. सरकार को ऐसी रकम को भी सरकारी खाते में लेने के लिए नियम बनाने चाहिए ताकि भारतीय अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सके.
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