बंद करें आतंकवाद का तुष्टीकरण
दिल्ली हाईकोर्ट विस्फोट कांड के तुरंत बाद आई अमेरिकी संसद की रिपोर्ट का खुलासा है-भारत में घरेलू इस्लामी आतंकवाद खतरनाक तरीके से बढ़ा है.
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खुफिया अफसरों की बैठक में चिदंबरम इसे घुमाकर पुष्टि करते हैं, 'नया उभरता आतंकी संगठन 'इंडियन मुजाहिदीन' सिमी का दूसरा नया रूप है.' लेकिन अमेरिकी रिपोर्ट को खुले में कबूल करने में सरकार को हिचक है. इसलिए कि ऐसा करने से उसकी राजनीति डगमगाती है और वोट बैंक लुटता लगता है. यह रवैया तब है जबकि ताबड़तोड़ आतंकी हमलों से देश कराह रहा है.
आतंकवाद निरोधक एजेंसी के गठन की दिशा में आगे बढ़ने, मौजूदा पुलिस बल और खुफिया तंत्र को मजबूती देने के साथ उन्हें समन्वित-सक्रिय करने के बजाए आतंकियों/अपराधियों को जाति-धर्म और क्षेत्र के नजरिये से देखने की भयानक भूल की जा रही है. आतंकियों की फांसी की सजा की माफी के लिए विधानसभाओं से प्रस्ताव पारित कराने की मानो होड़ सी लगी है. यह आग से खेलने जैसा है. यह 'राजनीतिक तुष्टीकरण' की तर्ज पर नया 'आतंकी तुष्टीकरण' है, जो पहले से ही 'नरम' करार दिए गए देश को आतंक का स्थायी शरणगाह बना देगा. तब यह हमसे न भरपाई न हो सकने वाली अपनी कीमत वसूलेगा.
देखिए तो हम 26/11 के बाद हुई आतंकवादी हमलों के साजिशकर्ता और हमलावरों को नहीं पकड़ पाए हैं. हमारे गृहमंत्री को सिद्धांततः सारी जानकारियां हैं, 'सिमी के ही कार्यकर्ता आईएम के नाम से सक्रिय हैं, कई समूह बनाकर घटना को अंजाम दे रहे हैं. पाकिस्तान और अफगानिस्तान आतंक के केन्द्र हैं, जहां से तीन आतंकी संगठन लश्कर, हिजबुल मुजाहिद्दीन और जैश-ए-मोहम्मद लगातार भारत को निशाना बना रहे हैं.' यह जानकारी नई नहीं है. इसके बावजूद आतंकियों के खिलाफ काम करने वाले नेटग्रिड के काम करने में देरी हुई.
अब कहा जा रहा है कि यह अगले बीस महीनों में प्रभावी हो जाएगा. जवाबी रणनीति की हमारी धीमी चाल के आगे सजा की माफी की संकीर्ण राजनीति नई मुसीबत बनकर खड़ी है. राजीव गांधी के हत्यारों की सजा माफ करने को लेकर तमिलनाडु विधानसभा में आम राय से प्रस्ताव पारित करने बाद अब जम्मू-कश्मीर विधानसभा संसद पर हमले के गुनहगार अफजल गुरु और पंजाब विधानसभा देवेन्द्र सिंह भुल्लर की फांसी की सजा माफी के लिए प्रस्ताव लाने जा रही है. कुछ साल पहले कोयंबटूर धमाके के दोषी अब्दुल नासिर मदनी की रिहाई को लेकर केरल विधानसभा में ऐसा ही प्रस्ताव पारित किया गया था.
राजनीतिक दलों की यह नई पहल आतंकियों के हौसले पस्त करने के बजाए बढ़ाने वाली ही साबित हो रही है. जाति-धर्म के नाम पर भावनाओं को सियासी ढर्रे ने आतंकवाद का नया घर देख लिया है. राष्ट्र की संप्रभुता और सामाजिक समरसता को तोड़ना राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है. इसको चुनौती देने वाला देशद्रोही होता है. इसलिए वह अवाम की सहानुभूति का हक खो देता है. यह समझ हमारे नेताओं को क्यों नहीं आ रही है? यह जानते हुए भी कि आतंकियों की न कोई जाति होती है और न कोई धर्म; आंखें मूंदकर नई नजीर बनाई जा रही है. याद नहीं आता कि जम्मू-कश्मीर में शुरू हुए आतंकवाद के लगभग ढ़ाई दशक बाद किसी विधानसभा ने इस आशय का प्रस्ताव पारित किया हो, जिसमें इस खूनी खेल को खत्म करने के लिए केंद्र पर एक स्पष्ट और कारगर राष्ट्रीय नीति के लिए पुरजोर दबाव डाला गया हो. अगर ऐसा हुआ होता आतंकवाद की देश में कब की कमर टूट गई होती.
आज सचाई यह है कि चाहे राष्ट्रीय दल हों अथवा क्षेत्रीय दल आतंकवाद को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है. लगता है कि उन्हें देश की सुरक्षा की परवाह नहीं है. कांग्रेस सजा माफी के पारित प्रस्तावों के राजनीतिक खेल को न्यायालय की आड़ लेकर बच रही है जबकि द्रमुक और नेशनल कान्फ्रेंस केन्द्र में कांग्रेस की यूपीए सरकार के सहयोगी दल हैं. करुणानिधि तमिलनाडु में राजीव के हत्यारों की माफी की बात कर तो मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अफजल पर ट्वीट कर आग में घी डालने का काम किया है. पंजाब में भुल्लर के मामले में कांग्रेस अकालियों के साथ खड़ी दिख रही है. वैसे भाजपा अफजल की सजा माफी के प्रस्ताव का विरोध कर रही है पर उसकी राष्ट्रप्रेम की असली अग्निपरीक्षा पंजाब में होनी है, जहां अकालियों के साथ उसकी सरकार है.
विडंबना यह है कि ये राष्ट्रीय दल, क्षेत्रीय दलों के साथ राष्ट्रीय सवालों पर तालमेल बैठा ही नहीं पाते हैं. दूसरे ये क्षेत्रीय दल अपने राज्यों में इतने मजबूत होते हैं कि राष्ट्रीय पार्टियों की परवाह ही नहीं करते. उनका वास्ता क्षेत्रीय राजनीति के नफा-नुकसान तक ही सीमित रहता है. इसीलिए राष्ट्रीय सोच उनकी राजनीति का हिस्सा नहीं बन पाती. नक्सल समस्या, गोरखालैण्ड की मांग तथा पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति उनकी इसी सोच की ही उपज है. राजनीति पार्टियों के नेताओं को आईना दिखाने के लिए 26/11 को मुंबई हमले में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा के. मोहनन की चर्चा यहां प्रासंगिक है.
सरकार के तुष्टीकरण की नीति से आहत होकर उन्होंने संसद भवन के निकट विजय चौक के पास कुछ दिनों पहले आत्मदाह कर लिया था. उनके पास से मिली डायरी में उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार किया था-'जिन आतंकियों ने उनके भतीजे को गोलियों से भून डाला. उनको फांसी देने में सरकार ढिलाई बरत रही है. इस मुद्दे पर राजनीति हो रही है.' तब लगा था कि यह दु:खद घटना सरकार और दलों के नेताओं की आंख खोलने के लिए काफी है. किंतु ताजा उदाहरण तो ज्यादा ही निराश करते हैं.
यहां आगे बढ़कर आतंकवाद के प्रति कोई नरमीयत नहीं दिखाने या इसके खिलाफ की गई कार्रवाई को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक में बांट कर न तो देखने और न ही तय करने की जरूरत है. इसका संदेश देने के बदले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सुरक्षा एजेंसियों से अल्पसंख्यकों के खिलाफ पूर्वाग्रह को दूर करने की नसीहत ने देश को सिरे से चौंका दिया है. अब तक की ज्यादातर आतंकी कार्रवाइयों में एक खास सुमदाय की अधिकतर संलिप्तता, अपने ही गृहमंत्री के बयान और अमेरिकी रिपोर्ट के बरअक्स उनकी यह नसीहत क्या सचाई से मुंह छिपाना नहीं है? क्या इसी विभाजित और भेदभावकारी सोच के रहते आतंकवाद पर हम फतह हासिल कर पाएंगे?
पीएम को यह सोचना चाहिए कि महज राजनीतिक फायदे के लिए दिए उनके ऐसे बयान से आम जनता और सुरक्षा बल का मनोबल टूटता है. सियासत के इस रवैये से हलकान जनता इसलिए अब सवाल कर रही है कि क्या वोट बैंक की राजनीति के चलते ऐसे ही लोग उड़ाए जाते रहेंगे? क्या सत्ता सुख देश की सुरक्षा से बढ़कर हो गया है? कब कहेंगे हम कि हमने आतंकवाद को मिटा दिया? ये सवाल जनता की अकुलाहट को दर्शाते हैं. इसलिए आतंकियों के समर्थन में भावनात्मक होकर प्रस्ताव पारित करने की प्रवृत्ति से तौबा करना चाहिए.
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