नये दौर की आहट?

Last Updated 09 Jul 2022 06:18:22 AM IST

विवाद पर एक टीवी परिचर्चा के दौरान विवादित टिप्पणी से शुरू हुआ विवाद उदयपुर में पाशविक कृत्य तक पहुंच गया। गलत-सही बहस का विषय है। मगर जिस तरह और जिन लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया वो सामाजिक सौहार्द के लिए चिंता का विषय है। चाकू के 28 वार और फिर वीडियो में इस नृशंसता का इकरार किसी संतुलित दिमाग का नहीं, बल्कि दिमाग में जड़ें जमा चुकी किसी पाशविक सोच का ही काम हो सकता है। पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी से लेकर ‘सर तन से जुदा’ नारे के बीच के इस समूचे प्रकरण ने भारत में कट्टरपंथी तालिबानी सोच के प्रसार के एक नए चरण की शुरुआत कर दी है।


नये दौर की आहट?

रामनवमी के अवसर पर कर्नाटक, गुजरात, पश्चिम बंगाल, झारखंड और मध्य प्रदेश में हिंदू जुलूसों में भारी पथराव, आगजनी और यहां तक कि कट्टरपंथी मुसलमानों की ओर से हिंदू घरों पर हमला करने का प्रयास देखा गया। मध्य प्रदेश के खरगोन में भी इस्लामिक कट्टरवादियों ने एक मंदिर में तोड़फोड़ की और मूर्तियों को अपवित्र किया। पश्चिम बंगाल में, विश्व हिंदू परिषद के जुलूस पर हावड़ा के फजीर बाजार के पास पथराव किया गया था। ऐसे में अमरावती और उदयपुर की घटना को अपवाद मानना भूल हो सकती है। दोनों घटनाओं के आरोपी स्पष्ट रूप से इसी तरह की हत्याओं और उस बर्बरता से प्रेरित लगते हैं, जिसे हमने आईएसआईएस को नियमित रूप से करते देखा है।

संयोग नहीं है हमलों का पैटर्न
हमलों के ये परेशान करने वाले और घातक पैटर्न किसी भी तरह से एक संयोग नहीं हैं, बल्कि हिंदुओं या ‘काफिरों’ के खिलाफ हिंसा और आतंक को सामान्य करने का प्रयास लगता है, जिनके बारे में उनका मानना है कि वे अपने विश्वास की पवित्रता का उल्लंघन कर रहे हैं। घृणा से प्रेरित इनमें से कोई भी अपराध क्षणिक भावावेश में नहीं किया गया है। वे हिंदुओं को उनके सबसे बड़े त्योहारों में से एक पर आघात करने के लिए सुनियोजित और समन्वित थे, ठीक उसी तरह जैसे 1990 के दशक में कश्मीरी हिंदू नरसंहार के बाद कश्मीर में वैष्णो देवी और अमरनाथ यात्रा जैसे तीर्थस्थलों पर जिहादी आतंकी हमलों के मामले में हमें देखने को मिला था। घाटी में वो सिलसिला अब भी जारी है, बस पैटर्न बदल गया है। धार्मिंक यात्राओं की सुरक्षा के स्तर में सुधार को लेकर बरती जा रही गंभीरता के कारण अब मजहबी विचारधारा से प्रेरित हत्याओं का रुख कश्मीर की आम और बेकसूर अवाम की ओर मुड़ गया है। नाम पूछकर जान लेने वाली टारगेट किलिंग जनवरी, 2021 से अब तक 55 लोगों को अपना शिकार बना चुकी है।

इसी साल सरकारी कर्मचारी राहुल भट से शुरू हुआ मजहबी हत्याओं का सिलसिला 20 लोगों की जान ले चुका है। ये टारगेट किलिंग भले ही भारतीय सरजमीं पर हो रही हों लेकिन उनके पीछे दिमाग पाकिस्तान का है, जिसने जिहाद के नाम पर हथियार पकड़ाकर स्थानीय युवाओं की हाइब्रिड फौज तैयार कर दी है। इसके पीछे प्रोत्साहन भी यकीनन उसी तालिबानी विचारधारा का है, जिसका एक ही फंडा है, धार्मिंक अल्पसंख्यक और वे मुसलमान जो उसकी कट्टर विचारधारा को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं, उनके लिए धरती पर कोई जगह नहीं है। ‘जान गंवाओ या इस्लाम अपनाओ’ की इसी तालिबानी सोच ने अफगानिस्तान में बचे-खुचे सिखों और हिंदुओं को भारत वापसी के लिए मजबूर किया है। संदेश स्पष्ट है - इस्लाम के सच्चे अनुयायी ही आखिरकार विजयी होंगे और यही दार-उल-इस्लाम यानी वह क्षेत्र जहां इस्लाम का शासन चलता है, का एकमात्र तरीका है।

बहुसंख्यकवाद को जिम्मेदार ठहराया जाना
आलोचक तबका देश के इस माहौल के लिए सरकार के कथित बहुसंख्यकवाद को जिम्मेदार ठहराता है। ऐसी हर नई घटना मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, तबरेज अंसारी की लिंचिंग को ताजा कर देती है। अब की बार उदयपुर और अमरावती की घटनाओं ने साल 2017 में राजस्थान के ही राजसमंद की उस घटना को चर्चा में ला दिया है जिसमें शंभूलाल रैगर नाम के शख्स ने बंगाल से आए एक प्रवासी मुस्लिम मजदूर की कुल्हाड़ी से हत्या ही नहीं की, उसे फेसबुक पर लाइव भी दिखाया था। तकरे की कड़ियों में फिर बीते साल दिसंबर में हरिद्वार में हुई धर्म संसद से मुस्लिमों के नरसंहार और अन्य अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने का उद्घोष भी जुड़ जाता है। धार्मिंक आराध्यों के कथित अपमान के एक जैसे मामलों में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा और नूपुर शर्मा पर अलग-अलग कार्रवाई को लेकर भी सरकार को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है।

नूपुर शर्मा के मामले में भी एक तबके का मत है कि भारत सरकार को आधिकारिक रुख नहीं अपनाना चाहिए था। तर्क यह है कि विदेशों में भारत को सत्ताधारी दल की वजह से जो आलोचनाएं झेलनी पड़ीं इसकी जिम्मेदारी पार्टी को लेनी चाहिए थी ना कि सरकार को। इस तबके का आरोप है कि राष्ट्र का ख्याल पहले रखने की जगह सरकार ने अपने घरेलू राजनीतिक हित को ज्यादा तवज्जो दी जिसकी वजह से देश को कतर, कुवैत, सऊदी अरब, ईरान जैसे देशों ने मानवाधिकार का पाठ पढ़ा दिया जिनका खुद कभी लोकतंत्र से दूर-दूर
तक का वास्ता नहीं रहा।

इस पूरे प्रकरण में कठघरे में वो टेलीविजन चैनल भी हैं, जो एक-दूसरे पर चीखने-चिल्लाने, भड़काऊ और अमर्यादित टिप्पणियां करने वाले और आदतन एक-दूसरे के धर्मो को निशाना बनाने वाले लोगों को नियमित तौर पर बहस का मंच मुहैया करवाते हैं। मैंने अपने पिछले लेख में भी सामाजिक समरसता के लिए बड़ी चुनौती बन रही इस समस्या का जिक्र किया था। ताजा विवाद की चिंगारी का स्रेत भी एक मीडिया चैनल की प्राइम टाइम बहस ही है। ज्यादा बड़ी चिंता की बात यह है कि सरकार की ओर से समय-समय पर जारी होने वाली गाइडलाइंस के बावजूद मीडिया चैनल बार-बार मिसगाइडेड मिसाइल की तरह लगातार मिसफायर कर रहे हैं।

टिप्पणी ने खोली बहस की नई खिड़की
नूपुर शर्मा पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने बहस की एक और नई खिड़की खोल दी है। विचारकों का एक दूसरा तबका मानता है 2014 में राजनीतिक बदलाव के बाद देश को लगातार किसी-न-किसी बहाने सांप्रदायिक उन्माद में ढकेलने की कोशिश चल रही है। सरकार के वैचारिक विरोधी अल्पसंख्यकों की भावनाओं को उद्वेलित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। इसी साल मार्च महीने में आई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वार्षिक रिपोर्ट में भी जोर देकर कहा गया है कि संविधान और धार्मिंक स्वतंत्रता की आड़ में देश में धार्मिंक कट्टरता और सांप्रदायिक उन्माद फैलाया जा रहा है, और हिंदू समाज में ही विभिन्न विभाजनकारी प्रवृत्तियों को उभारकर समाज को कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है। एक विशिष्ट विचारधारा से संबद्ध होने की वजह से आरएसएस की चिंता को अकारण भी मान लिया जाए तब भी देश को विकास के पथ से भटकाकर आंतरिक संघर्ष में उलझाने की चीन-पाकिस्तान की साजिशों को तो अनदेखा नहीं किया जा सकता। दिवंगत सीडीएस जनरल बिपिन रावत की ‘ढाई मोर्चे के युद्ध’ की चेतावनी अभी ज्यादा पुरानी नहीं पड़ी है। ऐसे चुनौती भरे माहौल में देश में धार्मिंक या सांप्रदायिक विभाजन के खतरे का प्रभाव सीमा पर छिड़े किसी बड़े युद्ध से कम नहीं होगा।

इसलिए यह बात किसी ‘सौभाग्य’ से कम नहीं है कि बीते दो दशकों में देश कमोबेश किसी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में नहीं आया है। प्यू रिसर्च सेंटर की एक स्टडी बताती है कि अलग-अलग धर्मो का पालन करने वाले अधिकांश भारतीय धार्मिंक सहिष्णुता को ‘भारतीयता’ का एक जरूरी अंग मानते हैं। वैसे यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि मुसलमान हिंदू उदारवादियों से प्यार करते हैं, और दूसरी तरफ मुस्लिम उदारवादियों से हर हाल में नफरत करते हैं। यही बात कट्टरवादी हिंदुओं के लिए भी उतनी ही सही है। पूरा खेल समझ का है, और समझदारी यही कहती है कि किसी एक समुदाय के नरसंहार का आह्वान हो या ‘सर तन से जुदा’ करने वाले नारे, धर्म के चोले में ली गई ऐसी कोई भी शपथ समस्या का समाधान नहीं, बल्कि नई चुनौतियों का अग्निपथ ही तैयार करेगी।

उपेन्द्र राय


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