हिजाब पर हंगामा, सियासत का फसाना
चंद दिनों पहले सड़क पर नारे लगाती एक अकेली लड़की और उसे घेरे लड़कों के एक हुजूम का एक वीडियो देश में खूब वायरल हुआ।
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वीडियो में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी, तो इससे जुड़ी जानकारियों का पिटारा खुलते भी देर नहीं लगी। तालिबानी कलेवर वाले इस वीडियो का भारत से कनेक्शन निकलने पर थोड़ी हैरानी भी हुई। पता चला कि वीडियो कर्नाटक में मांडया के पीईएस कॉलेज का है, जहां एक मुस्लिम छात्रा को ‘जय श्रीराम’ के नारे लगा रहे प्रदशर्नकारियों ने घेर लिया था और बदले में इस छात्रा ने भी ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारे लगाए।
भीड़ के खिलाफ अकेली खड़ी होने वाली इस छात्रा ने बाद में जानकारी दी कि वो कॉलेज में अपना असाइनमेंट जमा करने गई थी लेकिन हिजाब पहने होने के कारण लड़के उसे अंदर नहीं जाने दे रहे थे। इनमें कुछ लड़के कॉलेज के थे, कुछ बाहर के भी थे। जब उन्होंने नारे लगाए, तो छात्रा ने भी नारे लगाए। छात्रा का कहना है कि बाद में उसके टीचर और प्रिंसिपल ने भी उसे सपोर्ट किया और वहां से बचाकर ले गए।
यह लड़की अब पूरे देश में ‘हिजाब गर्ल’ के नाम से मशहूर हो गई है या मशहूर कर दी गई है? और यहां सवाल मैं इसलिए उठा रहा हूं क्योंकि कॉलेज कैम्पस में हुए इस विवाद में मुझे ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि इसके लिए पूरे देश को सियासी अखाड़ा बना दिया जाए। वास्तव में भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में इस विवाद को सामने आना ही नहीं चाहिए था। यह एक साधारण अपील से तय हो सकता था कि मुस्लिम लड़कियां निजी/सार्वजनिक जगहों पर अपनी मर्जी और सुविधा से हिजाब पहन सकती हैं। लेकिन चूंकि यह यूनिफॉर्म के अनुशासन का उल्लंघन करता है, इसलिए इसे स्कूलों/कॉलेजों में न पहना जाए।
यदि लड़कियां ऐसा करने में खुद को असहज महसूस कर रही थीं, तो उन्हें हिजाब पहनकर आने की मंजूरी दे भी दी जाती तो कौन-सा पहाड़ टूट जाता? ऐसा भी नहीं है कि देश में दूसरी जगहों पर या दूसरे धर्मो के लिए ऐसी रियायत न दी जा रही हो। यह तर्क बेतुका है कि आगे चलकर यह कानून और व्यवस्था का एक मुद्दा हो सकता था। कर्नाटक के पड़ोसी केरल में ही मुस्लिम छात्राओं को हिजाब पहनने की अनुमति है। कई मुस्लिम लड़कियां फिर भी इसे नहीं पहनती हैं। वहां इस कारण आज तक कानून-व्यवस्था की कोई समस्या नहीं हुई, बल्कि मुस्लिम महिलाओं की साक्षरता दर सबसे अधिक और उच्च माध्यमिक विद्यालयों में मुस्लिम लड़कियों का नामांकन भी सबसे अधिक केरल में ही है। जिस उडुपी जिले में यह बवाल हुआ है, वहीं के एक अन्य कॉलेज, भंडारकर आर्ट्स एंड साइंस डिग्री कॉलेज में मुस्लिम लड़कियों को हिजाब पहनने की अनुमति है। बस शर्त यह है कि उसका रंग दुपट्टे के समान होना चाहिए और लड़कियां खुशी-खुशी इस ड्रेस कोड का पालन कर रही हैं।
बेशक, ड्रेस कोड संस्थानों से संबंधित होते हैं, और इससे जुड़े अनुशासन को तोड़ने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि अनुशासन ही इन संस्थानों की नींव है। लेकिन यह तर्क भी गले नहीं उतरता कि अगर किसी को यूनिफॉर्म पसंद नहीं है, तो उसे संस्थान छोड़ देना चाहिए, जबकि आसानी से इसमें राह निकाली जा सकती है।
इसके उलट हो यह रहा है कि मामला सुलझाने के बजाय इसे महिलाओं की आजादी, शिक्षा के अधिकार, धर्म पर खतरा जैसे बहुत बड़े और बहुत व्यापक तकरे से उलझाया जा रहा है। विवाद की पृष्ठभूमि को लेकर भी विरोधाभासी बातें सामने आ रही हैं। कहा जा रहा है कि हिजाब विवाद से जुड़ी याचिकाएं लगाने वाली छह मुस्लिम छात्राएं कुछ समय पहले तक एबीवीपी का समर्थन करती थीं। पिछले अक्टूबर में किसी अन्य संस्थान की छात्रा से कथित दुष्कर्म के विरोध में निकली रैली में इन छात्राओं ने एबीवीपी का झंडा थामा था। लेकिन जब इस रैली में उनकी बिना हिजाब पहने तस्वीरें वायरल हुई तो बखेड़ा खड़ा हो गया। परिवारों ने आपत्ति की तो पता चला कि कॉलेज प्रबंधन ने कक्षाओं में हिजाब पहन कर बैठने पर पाबंदी लगाई हुई है। अब कर्नाटक सरकार को उडुपी प्रशासन की ओर से भेजी गई एक खुफिया जानकारी का हवाला देकर कहा जा रहा है कि इस्लामिक संगठन पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) की छात्र इकाई कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया यानी सीएफआई ने लड़कियों के परिजनों को मसला सुलझाने का आासन देकर भड़काया है। अगर ऐसा हुआ भी है तो इसकी भनक नहीं लगने की पहली जवाबदेही तो उडुपी प्रशासन की ही बनती है। उडुपी प्रशासन पर यह सवाल भी उठना चाहिए कि राज्य सरकार को भेजी उसकी खुफिया जानकारी सार्वजनिक कैसे हो रही है? बिना उडुपी प्रशासन या कर्नाटक सरकार की मिलीभगत के यह संभव कैसे हो सकता है।
इस पूरे प्रकरण में हीला-हवाली के ऐसे कई सबूत मिल जाएंगे जो इस बात का इशारा करते हैं कि इस विवाद को जान-बूझकर हवा दी जा रही है। कुछ महीने पहले हिजाब मुद्दा कहां था? यह अचानक क्यों इतना बड़ा हो गया है? संबंधित पक्षों को फैसले पर पहुंचने की इतनी जल्दबाजी क्यों है? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव को इसकी तात्कालिक वजह बताना तार्किक लग सकता है, लेकिन ये पता लगाना भी महत्त्वपूर्ण है कि हमारे युवाओं को धार्मिंक आधार पर विभाजित करने की साजिश कौन रच रहा है? कौन है जो यूनिफॉर्म की आड़ लेकर इस विवाद पर राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग चढ़ा रहा है? कैम्पस के मामले को मंदिर-मस्जिद की तकरार में आखिर कौन बदलना चाहता है? कट्टरपंथ के जिन मसलों पर देश पहले ही अपनी बहुत सारी ऊर्जा नष्ट कर चुका है, उन्हें फिर से हमारी क्षमताओं की परीक्षा लेने का मौका क्यों दिया जा रहा है?
कट्टरपंथ की सोच ने अपना पोषण करने वालों का क्या हाल किया है, उसके लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। हमारा पड़ोसी पाकिस्तान इसकी एक बड़ी मिसाल है। कट्टरता के कपट ने आज पाकिस्तान को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर दिया है। तालिबान की हुकूमत वाला अफगानिस्तान भी उसी राह पर है। इसके विपरीत न्यूयॉर्क, लंदन, दुबई की चमक-दमक में केवल इन शहरों की आर्थिक तरक्की का ही नहीं, प्रगतिशील विचारों की रोशनाई का भी भरपूर योगदान है। कई वजहों से मेरा इन शहरों और खासकर दुबई में लगातार आना-जाना बना रहता है। मेरा अनुभव है कि वहां समाज का ताना-बाना इतना मजबूत है कि इन प्रश्नों पर विचार की जरूरत ही नहीं पड़ती। कई बार तो यह भाव भी आता है कि वहां के प्रशासन को शायद इस बात की जानकारी भी न हो कि दुनिया भर के कितने धर्म-सम्प्रदाय-मूल के लोग वहां बसे हुए हैं।
विकास की राह पर बढ़ रहा हमारा देश भी इससे सीख लेकर प्रगति की अपनी रफ्तार तेज कर सकता है। देश की सर्वोच्च अदालत अगर कह रही है कि वो समय आने पर इस मामले की सुनवाई करेगी और इस स्थानीय विवाद को बेवजह राष्ट्रीय स्तर का मुद्दा न बनाएं, तो इसमें बड़ी चेतावनी के साथ एक बहुत बड़ा संदेश भी है। ऐसे सभी लोग जो धार्मिंक नारे लगाकर विवाद की आग को भड़का रहे हैं, वो ये जान लें कि यह देश न तो शरिया से चलेगा, न ही सनातन धर्म से बल्कि यह चलेगा उस संविधान से जिसे डॉ भीमराव अंबेडकर ने तैयार किया है। इसमें किंचित भी विफलता हुई तो खतरा बहुत बड़ा है। यह केवल कट्टरवाद और धर्म की राजनीति में डूबे लोगों की भस्मासुरी महत्त्वाकांक्षाओं का ही विस्तार करेगा।
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