देर आए पर कितना दुरुस्त आए?

Last Updated 16 Jan 2022 12:07:38 AM IST

बहुत पुरानी कहावत है कि ‘जो घी सीधी उंगली से नहीं निकलता है, वो उंगली टेढ़ी करने पर निकल आता है।’


देर आए पर कितना दुरुस्त आए?

रोजमर्रा की जिंदगी से लेकर कई खास मौकों तक में यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है, लेकिन सहज अनुभव से निकली यह बात कहने वाले को भी शायद इस बात का अंदाज नहीं रहा होगा कि कभी यह फलसफा दो देशों के आपसी संबंधों पर भी लागू होगा।

पिछले कुछ वर्षो में पाकिस्तान के खिलाफ भारत के रवैये में नये सिरे से आई सख्ती के बरक्स जब वहां की नई राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को रखकर देखा जाए तो आईने से जो तस्वीर निकल कर आती है, उस पर यह बात सौ फीसद खरी उतरती है। इस नई नीति की रिपोर्ट को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान नियाजी ने इसी हफ्ते जारी किया है। वैसे इस नीति का मूल दस्तावेज 100 पन्नों का है, लेकिन फिलहाल इसके 50 गैर-गोपनीय यानी नॉन क्लासीफाइड पृष्ठ को ही सार्वजनिक किया गया है। इसमें पड़ोसियों के साथ शांति और आर्थिक कूटनीति को पाकिस्तान की विदेश नीति का केंद्रीय विषय बताया गया है। तो इसमें बड़ी बात क्या है?

दरअसल, इस दस्तावेज में ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की ऐसी कई ‘पतली गलियां’ हैं, जिन्हें पाकिस्तान अपनी हेकड़ी, नासमझी और विनाशकारी सोच के कारण अब तक झुठलाता रहा है। इसमें दो बड़ी बातें हैं। पहली; तो अगले 100 वर्षो तक भारत के साथ शत्रुता नहीं करने की ‘प्रतिज्ञा’ है। दूसरी; भारत के साथ व्यापार और निवेश को प्रोत्साहित करने की ऐसी ‘व्याकुलता’ है कि इसके लिए पाकिस्तान की राजनीतिक जमात अपने सियासी अस्तित्व की सबसे बड़ी धुरी कश्मीर समस्या को भी ताक पर रखने के लिए तैयार है। शर्त यह कि परमाणु ताकत रखने वाले दोनों पड़ोसियों के बीच बातचीत में प्रगति हो। बातचीत में प्रगति तब होगी जब बातचीत शुरू होगी और यहीं घी निकालने के लिए उंगली टेढ़ी करने वाला प्रसंग सामयिक हो जाता है। भारत से जिस बातचीत के लिए पाकिस्तान बेचैन हो रहा है, वो समग्र वार्ता तो भारत ने 2013 से रोक रखी है। द्विपक्षीय वार्ता भी 2016 के पठानकोट हमले से बंद है।

करतारपुर कॉरिडोर का मामला बेशक, अपवाद कहा जा सकता है, लेकिन उसकी वजहें दूसरी हैं। वैसे पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला तो भारत ने 26/11 के मुंबई हमले के बाद भी रोका था, लेकिन फिर कुछ समय बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव में भारत ने इस रोक को हटा लिया था। साल 2015 में अपने पहले कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी नवाज शरीफ परिवार के विवाह समारोह में अचानक शामिल होकर दोस्ती की एक नई लकीर खींचने की कोशिश की थी, लेकिन भारत का ‘दोस्ताना’ शायद पाकिस्तान को रास नहीं आया। इसके बाद शुरू हुई उंगली टेढ़ी करने की प्रक्रिया। पठानकोट में जब पाकिस्तान ने भारत की पीठ में छुरा घोंपा, तो भारत ने जिस नई परंपरा की शुरुआत की, उसके सामने पाकिस्तान की कोई दाल नहीं गल पाई और इस बात का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दिया जाना चाहिए, जो राष्ट्रीय हित में आतंक जारी रहने तक बात नहीं करने के अपने फैसले पर डटते हुए न केवल उसे अमल में लाए, बल्कि इस मामले पर भारत के पक्ष में दुनिया के बाकी देशों की सहमति बनाने में भी सफल हुए हैं।

यह मोदी सरकार के सख्त रवैये का ही कमाल है कि आज एक तरफ अमेरिका और मुस्लिम देश पाकिस्तान से लगातार दूर होते जा रहे हैं, वहीं आतंक की फंडिंग के सबूत मिलने के बाद विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी पाकिस्तान को और कर्ज देने से इनकार कर दिया है। नतीजा यह हुआ है कि आतंकी सोच का गुलाम पाकिस्तान अब आर्थिक रूप से भी आजाद नहीं रहा है। उसकी कंगाली का आलम यह है कि आज जितनी उसकी कुल जीडीपी नहीं है, उससे ज्यादा उस पर कर्ज चढ़ गया है। इस आर्थिक स्थिति का सरल अनुवाद यह है कि अगर आज पाकिस्तान खुद को बेच भी दे, तो भी उसके कर्ज की भरपाई नहीं हो सकती। ताजा सूरतेहाल यह है कि पाकिस्तान का कर्ज और देनदारियां 50 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो गई हैं और वह एक बार फिर एक अरब डॉलर लोन के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे पर झोली फैलाए खड़ा है। ऐसे में यदि भारत से संबंध बहाल हो जाएं, तो पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था को काफी राहत मिल सकती है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कारोबार की क्षमता 10 बिलियन डॉलर से 20 बिलियन डॉलर आंकी गई है। बेशक, इससे पाकिस्तान की दिक्कतें तुरंत हल नहीं होंगी, लेकिन कम-से-कम उसे अपनी ही 100 साल की तय की हुई मियाद का भी इंतजार नहीं करना पड़ेगा।

पाकिस्तान की नई नीति के मद्देनजर यह ध्यान रखना भी महत्त्वपूर्ण है कि स्वतंत्रता के पहले तीन दशकों तक उसकी सुरक्षा नीति भारत केंद्रित ही रही थी। 1948, 1965 और 1971 के तीनों युद्ध भारत विरोधी जुनून वाली उसी नीति के परिणाम हैं। पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व की जिहादी मानसिकता वहां के समाज और अर्थव्यवस्था के लिए विनाशकारी साबित हुई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 22 बार बेलआउट की जिल्लत झेलने के अलावा भी पाकिस्तान को कई बार अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को पहले अमेरिका और अब चीन के हाथों गिरवी रखना पड़ा है, जो बताता है कि एक साथ आजाद देश का सफर शुरू करने के बाद भी पाकिस्तान किस तरह अपने नेतृत्व की गलत सोच और सेल्फ गोल की प्रवृत्ति के कारण भारत से हर मोर्चे पर कितना पिछड़ चुका है।

खैर, देर आए, दुरुस्त आए। पाकिस्तान की ओर से दावा किया जा रहा है कि नई नीति के माध्यम से आर्थिक सुरक्षा को व्यापक सुरक्षा के मूल में रखा गया है। सोच यह है कि पारंपरिक सुरक्षा को मजबूत बनाने और उसमें निवेश बढ़ाने के लिए पहले मानव संसाधन को समृद्ध बनाना जरूरी है। इसलिए पाकिस्तान की नई सुरक्षा नीति कागजों पर बेशक, उसके रु ख में बदलाव की उम्मीद जगाती हो, लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि यह दुनिया की आंखों में धूल झोंकने की नई कोशिश भी हो सकती है। नई नीति का सबसे बड़ा पेच यह है कि इसमें भारत की मौजूदा मोदी सरकार के रहते ‘मेल-मिलाप’ की किसी भी संभावना को सिरे से खारिज किया गया है।

यह उस पुराने राग को अलापने की नई भूमिका हो सकती है, जिसमें पाकिस्तान इस बात का रोना रोएगा कि वो तो क्षेत्रीय शांति और स्थिरता के लिए प्रयत्नशील है, लेकिन भारत ही इसमें सहयोग नहीं कर रहा। नई नीति आतंकवाद को पोषित करने के दाग और विमर्श से ध्यान भटकाने का प्रयास भी हो सकती है। जाहिर तौर पर यह भारत की आर्थिक उन्नति और सुनहरे भविष्य के सहारे अपनी आर्थिक बदहाली को सुधारने की कवायद तो है ही। वैसे भी पाकिस्तान का इतिहास सदैव संकटों में घिरा रहा है, और सैन्य दखल ऐसा है कि अवाम से चुना गया कोई भी प्रधानमंत्री आराम से अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। ऐसे में पांच साल के लिए तय की गई नई सुरक्षा नीति कैसे अपनी मियाद और अपने लक्ष्य में कामयाब होगी, अभी तो यही बड़ा सवाल है। हां, इस नीति से इस बात का जवाब जरूर मिलता है कि पाकिस्तान को लेकर मौजूदा भारतीय नेतृत्व की सोच सही रास्ते पर है।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment