सेमीफाइनल और संभावनाएं

Last Updated 15 Jan 2022 04:34:34 PM IST

उत्तर प्रदेश‚ उत्तराखंड़‚ पंजाब‚ गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनावों के ऐलान के साथ ही इन राज्यों में राजनीतिक गतिविधियों में रवानी आ गई है‚ लेकिन सर्वाधिक गहमागहमी उत्तर प्रदेश में है।


सेमीफाइनल और संभावनाएं

पांचों राज्यों में मणिपुर और गोवा को छोड़़कर बाकी तीनों हिंदी पट्टी के राज्य हैं। वहां के जनादेश से अंदाजा लग सकेगा कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के लिए आने वाले आम चुनाव–2014 में स्थितियां कैसी रहनी हैं। एक तो ये हिंदी पट्टी के राज्य हैं‚ दूसरे‚ उत्तर प्रदेश से लोक सभा में सर्वाधिक सांसद चुने जाते हैं‚ और तीसरे‚ एक साल से ज्यादा समय तक चले किसान आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश‚ उत्तराखंड़ और पंजाब के किसानों के रुख से ही ज्यादा परखा जा सकेगा। विपक्ष की पार्टियों की मतदाताओं से अपील में दम नहीं हुआ तो उनके हाशिये पर और खिसक जाने का अंदेशा है। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने प्रदर्शन से संजीवनी पा सकती है‚ जहां वह तीन दशक से ज्यादा समय से सत्ता से बाहर है। बहरहाल‚ चुनावी बेला में एक पार्टी छोड़़ने और दूसरी में शामिल होने के सिलसिले ने फिर जाहिर कर दिया है कि सिद्धांतों की राजनीति किताबी बात ज्यादा है‚ व्यवहार से शायद उसका उतना लेना देना नहीं है‚ जितना दम भरा जाता है। इसी सब पर है इस बार का हस्तक्षेपः

भारत में मकर संक्रांति के पर्व को सूर्य के उत्तरायण होने से गरम मौसम की शुरु आत माना गया है‚ उसी तरह लोकतंत्र में चुनाव प्रतीक होते हैं सियासी पारे में उछाल के। देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की तारीख घोषित होने के साथ ही अब पूरा देश इस सियासी गर्मी में हाथ तापता दिखाई दे रहा है। पांच राज्यों में उत्तर प्रदेश के शामिल होने के कारण इन चुनावों को साल 2024 में होने वाले आम चुनाव का सेमीफाइनल भी कहा जा रहा है। इस लिहाज से ये चुनाव देश के आम आदमी के साथ–साथ राजनीतिक दलों के लिए भी अग्निपरीक्षा की तरह देखे जा रहे हैं। खासकर बीजेपी और कांग्रेस के लिए।

जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं‚ उनमें उत्तर प्रदेश‚ उत्तराखंड‚ गोवा और मणिपुर यानी चार राज्यों में बीजेपी की सरकारें हैं जबकि पंजाब में कांग्रेस सत्तासीन है। बीजेपी के लिए जहां चैलेंज परंपरागत सत्ता विरोधी रुझान से पार पाते हुए अपनी संभावनाओं को पुख्ता करना है‚ वहीं कांग्रेस के लिए सवाल वजूद बचाने का है। सीधा समीकरण यह है कि बीजेपी को एक तरफ चार राज्य में अपनी सरकार बचानी है‚ और पंजाब में इस बार अकालियों के बजाय कैप्टन अमरिन्दर सिंह का हाथ थामकर जंग जीतना है। दूसरी तरफ‚ कांग्रेस को पंजाब बचाकर बाकी राज्यों उत्तराखंड‚ गोवा और मणिपुर में अपना दमखम दिखाते हुए विस्तार करना है। कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश सबसे बड़ा प्रश्न है क्योंकि यहां दांव पर सूबे में पार्टी का भविष्य ही नहीं‚ बल्कि उसका नेतृत्व कर रहीं प्रियंका गांधी के कारण आला कमान यानी गांधी परिवार की साख भी दांव पर लगी है।

फोकस उत्तर प्रदेश पर केंद्रित

वैसे तो संघीय व्यवस्था में हर राज्य की बराबर अहमियत होती है‚ लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम के कारण इस बार चुनाव का पूरा फोकस उत्तर प्रदेश पर केंद्रित हो गया है। जिस तरह पंजाब में कुछ दिनों पहले तक महज औपचारिक लग रही कांग्रेस की जीत अब आम आदमी पार्टी (आप) से कांटे की टक्कर में बदल गई‚ ठीक वही हालात उत्तर प्रदेश में बन गए हैं। ऐन चुनाव से पहले दलबदलू नेताओं की भगदड़ ने बीजेपी के सामने असहज हालात पैदा कर दिए हैं। अवतार सिंह भड़ाना के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो पार्टी छोड़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे तमाम मंत्री और विधायक उस गैर–यादव पिछड़ी जातियों के कुनबे से आते हैं‚ जो 2017 में बीजेपी के लिए सत्ता की कुंजी साबित हुए थे। बीजेपी के लिए दिक्कतें इस बात से भी बढ़ सकती हैं कि इसका सीधा फायदा समाजवादी पार्टी (सपा) को मिलता दिख रहा है‚ जो सूबे के बहुकोणीय चुनावी संग्राम में बीजेपी की प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में ताल ठोक रही है।

इतना ही नहीं‚ सपा इस बार बीजेपी के मुकाबले उत्तर प्रदेश में जीत के लिए जरूरी छोटे दलों के ‘इंद्रधनुषी गठबंधन' को साधने में ज्यादा कामयाब हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों को लुभाने के लिए उसने राष्ट्रीय लोकदल को साथ लिया है‚ तो सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से गठबंधन कर पूवाचंल में राजभर वोट बैंक को साधा है। इसके अलावा एसपी के इंद्रधनुष में प्रसपा‚ जनवादी सोशलिस्ट पार्टी‚ महान दल‚ तृणमूल कांग्रेस‚ एनसीपी‚ गोंडवाना गणतंत्र पार्टी‚ अपना दल (कृष्णा) और सावित्री बाई फूले की पार्टी कांशीराम बहुजन समाज पार्टी तक शामिल हैं। इसकी तुलना में बीजेपी को महज अपना दल–एस और निषाद पार्टी का साथ मिल पाया है। उत्तर प्रदेश का ही अनुभव बताता है कि बड़े दलों के वोट एक–दूसरे दलों में शत–प्रतिशत ट्रांसफर नहीं होते‚ लेकिन जाति आधारित छोटे दलों का वोट बैंक अपने नेता के पीछे एकजुट होता है। इस लिहाज से अखिलेश यादव नफे की हालत में दिख रहे हैं।

जाति आधारित राजनीति की एक और बड़ी खिलाड़ी रहीं मायावती हालांकि इस बार मैदान से गायब दिख रही हैं‚ लेकिन अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने अपमान और प्रताड़ना के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिलाओं पर दांव लगाकर लड़ाई को और रोचक बना दिया है। इनमें उन्नाव में अपनी बेटी के बलात्कार के बाद सत्ताधारी बीजेपी के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ लड़ने वाली आशा सिंह‚ लखीमपुर खीरी में ब्लॉक प्रमुख चुनावों में बीजेपी की कथित हिंसा की शिकार का प्रतीक बनी ऋतु सिंह‚ शाहजहांपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जनसभा में विरोध प्रदर्शन करने वाली आशा कार्यकर्ता पूनम पांडेय‚ नागरिकता कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शनों के दौरान पुलिस ज्यादती की शिकार कांग्रेस कार्यकर्ता सदफ जफर‚ प्रयागराज में बड़े खनन माफिया के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली अल्पना निषाद शामिल हैं। बेशक‚ कांग्रेस की कमजोर राजनीतिक जमीन इन प्रत्याशियों की जीत के आड़े आ जाए‚ लेकिन अगर ये समाज की संवेदना को जगाने में कामयाब रहीं तो आखिरी वक्त में सियासत का करवट बदल भी सकता है यानी परिणाम अपने पक्ष में करने के लिए इस बार विकास और अयोध्या–काशी–मथुरा के साथ–साथ पीएम मोदी और सीएम योगी की जोड़ी को जमकर पसीना बहाना पड़ सकता है।

पंजाब में सूरतेहाल दिलचस्प
उत्तर प्रदेश की ही तरह इस बार पंजाब में सूरतेहाल बेहद दिलचस्प हैं‚ जहां बहुकोणीय संघर्ष में कांग्रेस‚ आप‚ अकाली–बसपा गठबंधन‚ बीजेपी–कैप्टन अमरिन्दर गठबंधन के साथ ही वरिष्ठ किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की अगुवाई में बनी किसानों की पार्टी भी शामिल है। आपसी सिर–फुटव्वल के बाद पंजाब का पहला दलित सिख मुख्यमंत्री बनाने का कांग्रेस का मास्टरस्ट्रोक अब अपनी चमक गंवा चुका है लेकिन किस्मत इसलिए अभी भी कांग्रेस के साथ दिख रही है क्योंकि दूसरे दलों की हालत भी कुछ खास बेहतर नहीं है। पंजाब को दिल्ली मॉडल के सब्जबाग दिखाने के अरविंद केजरीवाल के मंसूबे परवान नहीं चढ़ पा रहे हैं‚ तो बाकी दोनों गठबंधन भी विनिंग कॉम्बिनेशन से कोसों दूर दिखाई दे रहे हैं। एंटी इनकंबेंसी और बेअदबी जैसे मामलों का ठीकरा कैप्टन के सिर फूट रहा है‚ तो किसान आंदोलन को लेकर बीजेपी और अकाली से नाराजगी है। किसान नेताओं ने बेशक‚ अपनी पार्टी बनाई है‚ लेकिन व्यापारियों‚ उद्योगपतियों‚ सेवा क्षेत्र और महिलाओं जैसे समाज के दूसरे वर्गों के प्रतिनिधित्व के बिना उससे किसी कमाल की उम्मीद रखने में राजनीतिक नासमझी का खतरा है।

उत्तर प्रदेश और पंजाब के मुकाबले उत्तराखंड में लड़ाई सीधे–सीधे बीजेपी और कांग्रेस के बीच है। वहां पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदलने के कारण बीजेपी को जनादेश के अपमान और सरकार के कमजोर प्रदर्शन जैसे सवालों का जवाब देना मुश्किल हो रहा है। वहीं‚ गोवा में भी मनोहर पर्रिकर की अनुपस्थिति में पहला चुनाव लड़ रही बीजेपी के लिए राह कोई आसान नहीं है‚ लेकिन वहां आप और तृणमूल कांग्रेस की मौजूदगी सत्ता की दावेदार लग रही कांग्रेस की संभावनाओं में पलीता लगाने का काम कर रही है। उधर‚ मणिपुर में बीजेपी‚ कांग्रेस से दलबदल कर आए नेताओं के सहारे चुनाव मैदान में है‚ तो कांग्रेस ने इस बार नई टीम पर दांव लगाया है। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सर्मा वहां बीजेपी के खेवनहार बने हुए हैं। गोवा और मणिपुर में अभी वोट भी नहीं डले हैं‚ लेकिन इन अटकलबाजियों पर चर्चा शुरू हो गई है कि गोवा और मणिपुर में सबसे बड़ा दल बनने के बाद भी कांग्रेस बहुमत से चूकी तो सरकार बनाने में बीजेपी फिर बाजी मार लेगी।

जहां तक मुद्दों का सवाल है तो यकीनन किसान आंदोलन और कृषि कानूनों की वापसी का पश्चिम उत्तर प्रदेश और पंजाब में असर दिखेगा। इसका नुकसान सीधे तौर पर बीजेपी के खाते में जाने के आसार हैं। हालांकि सरकार ने गन्ना किसानों को बकाए का भुगतान और किसान सम्मान निधि के जरिए इस गुस्से को कम करने की कोशिश की है‚ लेकिन यह कोशिश क्या रंग लाएगी चुनाव बाद ही पता चलेगा। विपक्ष अपने प्रचार में महंगाई‚ तेल के दाम जैसे मुद्दों को भी हवा देने का भरसक प्रयास कर रहा है‚ लेकिन उसकी कोशिश अब तक तो परवान चढ़ती नहीं दिख रही। बिहार और बंगाल के चुनावों की ही तरह मुद्दों के महाभारत में मुकाबला भी ध्रुवीकरण बनाम अन्य का बनता दिख रहा है।

बीते दो वर्षों में हुए तमाम चुनावों की तरह ये चुनाव भी कोरोना की तीसरी लहर के बीच हो रहे हैं। पुराने अनुभवों से सबक लेते हुए चुनाव आयोग ने बड़े पैमाने पर बदलाव किए हैं। रैलियों और जलसों में भीड़ जुटाने पर लगी पाबंदी की आज नए सिरे से समीक्षा हो रही है। भीड़ से बचने के लिए इस बार नामांकन के लिए भी ऑनलाइन सुविधा दी गई है। अब यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों और आम मतदाताओं की है कि चुनाव को डिजिटल करने के चुनाव आयोग के प्रयास को समर्थन देकर सफल बनाएं और कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए लोकतंत्र के उत्सव में अपनी आहुति दें।

उपेन्द्र राय


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