पीएम की सुरक्षा को लेकर जवाबदेही तय हो
पांच जनवरी को पंजाब में प्रधानमंत्री का काफिला रोका जाना देश के संघीय ढांचे के लिए शुभ संकेत नहीं है।
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और इस घटनाक्रम के बाद पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से हो रही सियासत तो और भी चिंताजनक है। आरोप-प्रत्यारोप और वार-पलटवार की इस होड़ में सामान्य शिष्टाचार ही नहीं, यह सामान्य समझ भी पीछे छूटती दिख रही है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की सुरक्षा राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा एक संवेदनशील मामला है और इसे राजनीतिक अखाड़ा बनाए जाने का कोई भी प्रयास घोर निंदनीय है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम का सिलसिला यूं बना कि पांच जनवरी की सुबह प्रधानमंत्री बठिंडा पहुंचे। यहां से उन्हें हेलीकॉप्टर से हुसैनीवाला स्थित राष्ट्रीय शहीद स्मारक जाना था। बारिश और खराब दृश्यता के कारण लगभग 20 मिनट तक मौसम साफ होने का इंतजार किया गया। जब हालात नहीं सुधरे, तो तय हुआ कि प्रधानमंत्री सड़क मार्ग से जाएंगे। रास्ते में एक फ्लाईओवर पर कुछ प्रदशर्नकारियों ने सड़क को रोक दिया जिससे काफिला वहां फंस गया और 15-20 मिनट तक प्रधानमंत्री की सुरक्षा दांव पर लगी रही। यकीनन यह बड़ी चूक है, बहुत बड़ी चूक। अब तक आजाद भारत के किसी प्रधानमंत्री को ऐसी स्थिति से कभी नहीं गुजरना पड़ा। घटना की संवेदनशीलता को घटनास्थल की प्रकृति ने और भी गंभीर बना दिया। जिस जगह प्रधानमंत्री के काफिले को रोका गया वह सरहदी इलाका है। पाकिस्तान का बॉर्डर वहां से महज 30 किलोमीटर के फासले पर है। सरहद पार से ड्रोन के जरिए विस्फोटकों की तस्करी के कारण यह क्षेत्र वैसे भी अलर्ट पर था। बीते सितम्बर में ही फिरोजपुर गांव में टिफिन बम की बरामदगी और आसपास के जिलों में आईईडी विस्फोट हो चुके थे। ऐसे हालात के बीच देश के प्रधानमंत्री का वहां 20 मिनट फंसे रहने का मतलब था कुछ भी अनिष्ट होने की पूरी-पूरी आशंका। और यह सब कुछ तब हुआ जब दौरे से पहले सुरक्षा एजेंसियां प्रधानमंत्री को विभिन्न आतंकवादी संगठनों से गंभीर खतरे के बारे में राज्य पुलिस को पहले ही आगाह कर चुकी थीं।
इस सुरक्षा उल्लंघन के बाद सामने आई इस रिपोर्ट में ऐसे तमाम आतंकी संगठनों के नाम दर्ज हैं। इनमें इंडियन मुजाहिद्दीन, इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया, लश्कर-ए-तैयबा और जैश समेत हरकत-उल-मुजाहिद्दीन, हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी, तहरीक-ए-तालिबान और हिज्बुल-मुजाहिद्दीन जैसे पाकिस्तान परस्त संगठन और कई सिख आतंकवादी समूह तक शामिल बताए गए हैं। रिपोर्ट को पढ़ने पर पता चलता है कि वधावा सिंह बब्बर, परमजीत सिंह पंजावर, रंजीत सिंह नीता, लखबीर सिंह रोडे जैसे पाकिस्तान में पनाह लिए हुए आतंकी आरडीएक्स सहित आतंकवादी हार्डवेयर भेजकर पंजाब में आतंकवाद को पुनर्जीवित करने की कोशिश में रहे हैं। रिपोर्ट की सबसे महत्त्वपूर्व बात वो इशारा है जो पांच जनवरी को सच भी साबित हो गया। यह इशारा संयुक्त किसान मोर्चे के उन नेताओं को लेकर था, जो संयुक्त समाज मोर्चा में शामिल नहीं हुए हैं। रिपोर्ट में इस बात की ‘भविष्यवाणी’ है कि फिरोजपुर दौरे पर ये नेता प्रधानमंत्री का घेराव कर सकते हैं। हुआ भी ठीक यही। यही घेराव फिरोजपुर फ्लाईओवर पर प्रधानमंत्री का काफिला फंसने की वजह बना। इसका जिम्मेदार कौन है? पंजाब पुलिस? एसपीजी? आईबी? या कम ज्यादा अनुपात में सभी? इस मामले में दिलचस्पी रखने वाला हर शख्स जान चुका है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कई परतें होती हैं। इसकी मुख्यत: जवाबदेही एसपीजी की होती है लेकिन जब प्रधानमंत्री दौरे पर निकलते हैं तो यह जवाबदेही कई एजेंसियों में बंट जाती है। प्रधानमंत्री के दौरे से पहले हमेशा उस रास्ते पर स्थानीय पुलिस की तरफ से रिहर्सल की जाती है, जहां से उन्हें गुजरना होता है। सुरक्षा के मद्देनजर प्रधानमंत्री के लिए हमेशा वैकल्पिक मार्ग तैयार रखे जाते हैं, जो जाहिर है कि गोपनीय होते हैं और राज्य पुलिस, एसपीजी और आईबी के अतिरिक्त किसी और पर जाहिर नहीं किए जाते। लेकिन प्रदशर्नकारियों का रास्ता रोक कर बैठना बताता है कि गोपनीयता नहीं बरती गई। घटना के तत्काल बाद इसे लेकर राज्य पुलिस की भूमिका पर सवाल उठे लेकिन अब प्रदशर्नकारी किसान संगठनों के बयान सामने आने के बाद मामला ‘रास्ता खाली नहीं करने की उनकी हठधर्मिंता’ का बनता दिख रहा है। इस आधार पर भी राज्य सरकार को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती क्योंकि इससे तो प्रधानमंत्री को आगे किसी भी राज्य में कार्यक्रम से रोकने की नई परंपरा शुरू हो सकती है। सूबे के मुख्यमंत्री का प्रदशर्नकारियों पर गोली चलवा देने वाला बयान भी नासमझ प्रतिक्रिया जान पड़ती है।
मुख्यमंत्री का कहना कि प्रधानमंत्री की सड़क मार्ग से यात्रा करने की योजना में बदलाव से राज्य सरकार को अवगत नहीं कराने और इसे केंद्रीय एजेंसियों का फैसला बताने का बयान भी सवाल खड़े करता है क्योंकि केंद्र की ओर से दावा किया जा रहा है कि राज्य पुलिस ने ही प्रधानमंत्री को सड़क मार्ग से यात्रा करने की मंजूरी दी थी। यह इतनी विरोधाभासी स्थिति है कि दोनों पक्षों में से कम-से-कम एक पक्ष तो गलतबयानी करता दिख रहा है। फिरोजपुर जैसे संवेदनशील क्षेत्र में प्रधानमंत्री जैसे अति महत्त्वपूर्ण अतिथि को 122 किमी. सड़क के रास्ते से ले जाना अपने आप में सवालिया निशान खड़ा करता है। यह भी अस्वाभाविक लगता है कि डीजीपी जैसे पद पर बैठा पुलिस अधिकारी गलत जानकारी देगा। यह उतना ही अस्वाभाविक है जितना प्रधानमंत्री के काफिले में मुख्य सचिव और डीजीपी का शामिल नहीं होना। मुख्य सचिव की अनुपस्थिति की वजह कोरोना संक्रमण बताई जा रही है, लेकिन डीजीपी की गैरहाजिरी पर हमें ज्यादा कुछ पता नहीं चल रहा है। इसी तरह प्रधानमंत्री के काफिले के रूट पर तैनात पुलिसकर्मिंयों के प्रदशर्नकारियों के साथ चाय की चुस्की लेते दिखना अपने काम में चाक-चौबंद रहने के पंजाब पुलिस के दावे पर सवाल खड़े करता है। यह तथ्य भी खंगालने की जरूरत है कि आखिर, एसपीजी ने किस वजह से प्रधानमंत्री के काफिले को एक असुरक्षित क्षेत्र में 20 मिनट तक रुकने दिया जबकि ब्लू बुक में ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री के काफिले को 30 सेकंड से लेकर अधिकतम एक मिनट में किसी ‘सेफ हाउस’ यानी सुरक्षित क्षेत्र में ले जाने के साफ निर्देश होते हैं। यह भी आश्चर्यजनक है कि 500 करोड़ से ज्यादा के सालाना बजट, अत्याधुनिक तकनीक और हथियार से लैस और प्रधानमंत्री के लिए विशेष तौर पर कार्यरत एसपीजी का दस्ता दिल्ली से बाहर निकलने के बाद कैसे पूरी तरह राज्य बल पर आश्रित हो जाता है। क्या यह घटना इस व्यवस्था में परिवर्तन की एक शुरु आत बन सकती है? खुफिया इनपुट देने के लिए जिम्मेदार आईबी को कैसे इस बात की भनक नहीं लग पाई कि करीब 100 की तादाद में प्रदशर्नकारी काफिले का रास्ता रोके बैठे हैं? क्या फ्लैश मॉब का राज्य पुलिस का दावा सही है?
यह बड़ी अजीब स्थिति है जिसमें जवाबदेही पर खरे उतरने का अनुपात भले कम-ज्यादा हो, लेकिन कोई भी जिम्मेदार सवालों के दायरे से बाहर नहीं है। तथ्य क्या हैं यह जांच से ही पता चल सकेगा, लेकिन इस सबके बीच देश की सर्वोच्च अदालत ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए तमाम रिकॉर्ड तलब कर लिए हैं। इतना तय है कि यह मामला बेहद गंभीर है। हो सकता है कि राज्य सरकार की ऐसी कोई मंशा न रही हो, सरकार ऐसा कर भी नहीं सकती। इसलिए सीधे-सीधे सरकार पर आरोप लगाना ठीक भी नहीं होगा लेकिन देश के प्रधानमंत्री का काफिला 20 मिनट तक अफरा-तफरी के बीच सड़क पर फंसा रहे और निर्णय लेने वाली ताकत इतनी असंवेदनशील दिखने लगे कि प्रधानमंत्री की सांसें दांव पर लग जाएं तो ऐसी स्थिति के लिए हर सफाई अपर्याप्त और सियासत किसी साजिश जैसी दिखने लगती है। संघीय ढांचे पर आंच न आए, इसके लिए इस मामले पर सियासत से ज्यादा जवाबदेही तय किए जाने की जरूरत है।
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