मुद्दा : चंद्रयान मिशन के दरमियान तंत्र-मंत्र
वही क्षण था जब चंद्रयान-3 ने चांद की सतह पर भारत का झंडा स्थापित कर विज्ञान की नई ऊंचाइयों को छू लिया, लेकिन उसी समय भारत के ही एक गांव में कुछ लोगों ने एक परिवार के पांच सदस्यों को ‘डायन’ कह कर जिंदा जला दिया।
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ये दो घटनाएं किसी कल्पना की उपज नहीं, बल्कि हमारे समय और समाज की दो परस्पर विरोधी सच्चाइयों का आईना हैं। एक ओर अंतरिक्ष में विजय तो दूसरी ओर अंधविास की भट्ठी में झुलसती मानवता।
बिहार के पूर्णिया जिले के टेटगामा गांव में तीन महिलाओं और दो पुरु षों को ‘डायन’ बता कर पीटा गया और पेट्रोल छिड़क कर जिंदा जला दिया गया। इस अमानवीय कृत्य में लगभग 150 लोगों की भीड़ शामिल थी। यह केवल हत्या नहीं, बल्कि उस तार्किक चेतना की हार थी जो हमारी संस्कृति और संविधान, दोनों में प्रतिष्ठित है। यह घटना एक गांव या राज्य की समस्या नहीं, उस सोच का परिणाम है जहां विज्ञान का दीपक जलाए बिना ही हम आधुनिक बनने का भ्रम पालते हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 2000 से 2016 तक बिहार में 2,500 से अधिक डायन-हत्या की घटनाएं हो चुकी हैं। यह आंकड़ा केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि सवाल है कि हम किस दिशा में बढ़ रहे हैं?
क्या तकनीक की प्रगति का लाभ चंद महानगरों और उच्च वर्ग तक ही सीमित रहेगा? क्या गांवों तक वैज्ञानिक सोच, संवेदनशीलता और मानवाधिकारों की चेतना पहुंची है? या फिर आधुनिकता मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा तक ही सिमट गई है? यह घटना न केवल मानवाधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि संविधान और कानून की विफलता भी है। जब पूरा गांव एक अमानवीय कृत्य में शामिल हो, और पुलिस-प्रशासन निष्क्रिय बना रहे, तो सवाल उठता है कि लोकतंत्र के स्तंभ क्या चुनावों और भाषणों तक सीमित रह गए हैं? पुलिस की निष्क्रियता और प्रशासन की उदासीनता इस पूरे तंत्र पर गहरी चोट है, जो दिखाती है कि संवैधानिक ढांचे के भीतर भी बहुत सी दरारें हैं, जिन्हें भरने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं, पूरे समाज की है।
हमारे पूर्वजों की परंपरा में तर्क, विज्ञान और विवेक का बहुत महत्त्व था। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, चरक, सुश्रुत जैसे नाम केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि भारतीय बौद्धिक परंपरा की नींव थे। लेकिन क्या आज उनके विचारों की छाया हमारे गांव-कस्बों तक पहुंची है? किसी महिला के बीमार हो जाने पर भी उसका इलाज अस्पताल में कराने की बजाय उसे डायन कह कर जलाया जाता है, तो इसका मतलब है कि हमारा समाज अतीत के किसी अंधेरे कुएं में जा गिरा है।
मीडिया की भूमिका भी इस पूरे विमर्श में संदिग्ध है। आज की मीडिया सिर्फ सनसनी पर केंद्रत है। घटना की संवेदनशीलता को समझने के बजाय वे इसे टीआरपी की दौड़ में बदल देते हैं। क्या कोई समाचार संस्था बताती है कि इस तरह की घटनाएं क्यों हो रही हैं? क्या वे समाज को इस ओर मोड़ने का प्रयास कर रहे हैं कि अंधविास, अज्ञानता और पाखंड का समूल नाश हो? नहीं। वे केवल क्लिप बनाते हैं, भावनाएं भड़काते हैं, पर कोई वैचारिक आंदोलन नहीं चलाते। ऐसी घटनाओं में भीड़तंत्र को तो जिम्मेदार ठहराया ही जाना चाहिए लेकिन उससे भी अधिक जिम्मेदार हैं वे संस्थाएं जो समाज को दिशा देने के लिए बनी हैं-शिक्षा संस्थान, धार्मिंक संगठन, पंचायतें और प्रशासनिक तंत्र। अगर इन सबकी चुप्पी किसी एक क्रिया को संभव बनाती है, तो वह केवल सह-अपराध नहीं, बल्कि मानसिक अपराध भी है।
टीवी चैनल केवल सास-बहू के ड्रामे दिखाने की बजाय ‘डायन प्रथा खत्म करो’ जैसे अभियान को प्राथमिकता दें। पंचायतों में हर महीने तर्क आधारित संवाद हों। स्कूलों में छात्रों को परीक्षा की तैयारी नहीं, सामाजिक चेतना का पाठ भी पढ़ाया जाए। सनातन परंपरा का मूल तत्व ही है करु णा, विवेक और ज्ञान। यदि समाज में धर्म के नाम पर ही हिंसा होती है, तो वह धर्म नहीं, अधर्म है। हमें सनातन के उन मूल्यों की पुन: स्थापना करनी होगी जो हर जीव में आत्मा का दर्शन कराते हैं, न कि उसे जला देते हैं। जब चंद्रयान-3 भारत की तकनीकी क्षमता का प्रतीक बन कर चांद पर उतरता है, तो उसके साथ भारत की आत्मा भी आसमान छूने की आकांक्षा करती है।
लेकिन जब किसी गांव में एक महिला को डायन कह कर जिंदा जलाया जाता है, तो वह आत्मा चीत्कार करती है। यह हमारे समय का विरोधाभास है-एक ओर विज्ञान, दूसरी ओर अंधविास; एक ओर अंतरिक्ष में सफलता, दूसरी ओर सामाजिक अधपतन। भारत का भविष्य तभी सुरक्षित होगा जब विज्ञान और विवेक का उजाला हर गांव, घर और मन में पहुंचेगा। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल श्लोक नहीं, सामाजिक अभियान होना चाहिए-अज्ञान से ज्ञान, अंधकार से प्रकाश, हिंसा से करु णा, और भीड़ से विचार की ओर। तभी हम सच्चे अथरे में मानवता-सम्मत भारत बना सकेंगे।
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