धार्मिक-राजनीतिक असहिष्णुता नया साल, पुराना सवाल
साल नया है लेकिन सवाल पुराना है। 2022 की शुरु आत में जहां लोग कोरोना महामारी की तीसरी लहर को लेकर हलकान हैं, वहीं उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में कथित धर्म संसद में हुए संबोधनों ने एक बार फिर धर्म के नाम पर कट्टरता को राष्ट्रीय बहस का विषय बना दिया है। अभी बीते साल के आखिरी दिनों में ही पंजाब में बे-अदबी के नाम पर दो लोगों की हत्या हो चुकी है। वहीं, हिंदी बेल्ट में धार्मिंक असहिष्णुता, तो केरल जैसे शिक्षित राज्य में वैचारिक प्रतिद्वंद्विता से प्रेरित डराने-धमकाने और हत्याओं का दौर जारी है।
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कट्टरता के इस बढ़ते कल्चर के खिलाफ समाज की जिम्मेदार और समझदार आवाजों की चुप्पी एक नई सामाजिक प्रवृत्ति की शुरु आत का संकेत दे रही है। सामाजिक और धार्मिंक निगरानी के नाम पर बढ़ती गुंडागर्दी को तेजी से सामान्य किया जा रहा है और इस तरह की गुंडागर्दी को महिमामंडित किया जा रहा है। डिजिटल नफरत जमीन पर वास्तविक हिंसा में बदल रही है और जिन संस्थाओं पर कानून का राज कायम करने का दारोमदार है, वे अपराधियों के साथ मिलीभगत करने या मूकदशर्क बने रहने के आरोप के साथ स्वयं कटघरे में हैं।
जितनी तेजी से यह घटनाएं बढ़ रही हैं, लोगों का गुस्सा भी उतनी ही तेजी से बढ़ रहा है। मई, 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद यह आरोप लगता रहा है कि बहुसंख्यक धार्मिंक कट्टरपंथी आक्रामक हुए हैं, जिससे अल्पसंख्यक समुदाय सकते में हैं। इसके लिए तर्क यह दिया जाता है कि इस कालखंड में कथित इंसाफ अदालत के बजाय सड़क पर हो रहा है और फैसला कोई जज नहीं, बल्कि भीड़ सुना रही है। ज्यादातर घटनाएं एक धर्म विशेष को लक्ष्य करके घटी हैं और सत्ताधारी दल और उसकी राजनीति पर हमलावरों से संबंध के आरोप लगे हैं। सवालों का लहजा कई बार इस वजह से भी तल्ख हुआ है कि कसूरवारों को दंडित करने का पण्रतो दूर की बात है, सत्ताधारी दल ने कभी ऐसी घटनाओं की खुलकर आलोचना भी नहीं की। केवल सत्ता ही नहीं, कई जगह प्रशासन की भूमिका भी ऐसे लोगों की मददगार पाई गई है। ऐसे में इस तरह की घटनाएं राजनीतिक उद्देश्य के साथ धार्मिंक नफरत फैलाने की मिसाल बनती गई हैं।
हिंसा पीड़ितों में मुस्लिम ज्यादा
आंकड़ों पर नजर डालें तो हेट क्राइम, लव जिहाद और गौरक्षा के नाम पर जो हिंसा हुई है, उसमें मुस्लिम पीड़ितों की संख्या यकीनन ज्यादा है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि मोहम्मद अखलाक, पहलू खान और तबरेज अंसारी ही मॉब लिंचिंग का शिकार बने हैं। दूसरे समुदाय के लोग भी भीड़ की हिंसा का शिकार बने हैं। बुलंदशहर की घटना में इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या भीड़ की हिंसा का ही नतीजा थी। पंजाब में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर और कपूरथला की दो अलग-अलग घटनाओं में बेअदबी के आरोपियों को लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला। अफसोस की बात यह है कि हर घटना का माकूल समाधान तलाशने के बजाय इसे धार्मिंक और सियासी समस्या की तरह पेश कर दिया जाता है। मामला बेअदबी का हो या गो-हत्या के नाम पर लिंचिंग या धर्म संसदों में एक समुदाय विशेष के नरसंहार के आह्वान का, इन पर सियासत दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि लोकतंत्र में न्याय होने के साथ ही न्याय होते दिखना भी जरूरी है। ज्यादातर अवसरों पर यही नहीं हुआ है, और मामलों को मुद्दा बनाकर जिंदा रखा गया है, जिनका इस्तेमाल हम चुनावों में होते देखते हैं। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के लिए जोर पकड़ रहे प्रचार में इन मुद्दों का जोर-शोर से इस्तेमाल भी हो रहा है।
धर्म का उपयोग हुआ ‘अपरिहार्य’
चुनाव जीतने के लिए अब विकास और सुनहरे भविष्य के दावों के साथ धर्म और सामाजिक परंपराओं का अपने-अपने नफे-नुकसान के हिसाब से आकलन आज के दौर में ‘अपरिहार्य’ जैसा हो गया है। उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब तक का चुनाव प्रचार इसी बात की बानगी पेश कर रहा है।
एक नई परंपरा यह भी देखने में आ रही है कि पिछली सरकारों की घटनाओं का रक्षा कवच और समुदाय विशेष के तुष्टिकरण पर लगाम लगाने को आधार बनाकर मौजूदा घटनाओं पर उठ रहे सवालों का जवाब दिया जा रहा है। वैसे बहस का एक विषय यह भी है कि इस प्रकार के मामलों को तभी तूल दिया जाता है, जब बहुसंख्यक समुदाय इसमें शामिल हो। आरोप लगे हैं कि तबरेज आलम, पहलू खान और मोहम्मद अखलाक की हत्या के मामले को सांप्रदायिक मोड़ देने के लिए उछाला गया। तर्क यह कि अगर मॉब लिंचिंग शब्द का इस्तेमाल बहुसंख्यकों को बदनाम करने के लिए नहीं किया गया, तो फिर नालंदा के शुभम पोद्दार, कासगंज के चंदन गुप्ता या दिल्ली दंगों में अंकित शर्मा की हत्या को इस श्रेणी से बाहर क्यों रखा गया? सवालों की इस श्रृंखला में 1984 के दिल्ली दंगे, 1990 में कश्मीरी पंडितों के साथ अन्याय और 2002 में गोधरा कांड का जिक्र भी चला आता है।
वर्तमान की बेहतरी का सवाल
ऐसे में सवाल उठता है कि कि क्या इतिहास को गाली देने से वर्तमान बेहतर हो सकता है? आजादी के 75वें साल में भी हम 1947 की विभाजनकारी मानसिकता से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे? क्यों हम कट्टरपंथी और समाज को बांटने वाले तत्वों से सख्ती से नहीं निपट पा रहे हैं? साल 2016 में टाऊन हॉल कार्यक्रम में एक सवाल के जवाब में दिया गया प्रधानमंत्री का बयान इस समस्या का स्वरूप और समाधान, दोनों प्रस्तुत करता है। तब दौर गौरक्षा के नाम पर हिंसा का था और प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘रात भर असामाजिक काम में लिप्त रहने वाले कई लोग गौरक्षा का लबादा पहन कर समाज में इज्जत पाना चाहते हैं। अगर इनका डॉजियर तैयार हो तो 70 फीसद लोग ऐसे निकलेंगे जिनका गौरक्षा से कोई मतलब नहीं है। वे रात में असामाजिक काम करते हैं और दिन में गौरक्षा के नाम पर दूसरों को प्रताड़ित करते हैं।’ प्रधानमंत्री मोदी की यह सोच इस बात का स्पष्ट संदेश है कि जिसमें भी विवेक होगा, उसे इस बात पर कोई संशय नहीं होगा कि सांप्रदायिकता और धार्मिंक कट्टरता न तो आध्यात्मिकता का स्रेत हो सकती हैं, न ही किसी समृद्ध राष्ट्र के निर्माण में योगदान दे सकती हैं। हमारे पड़ोस में ही पाकिस्तान और बांग्लादेश इस बात के ज्वलंत उदाहरण हैं। बेशक, सरहद पार की घटनाएं विचलन का विषय हों, लेकिन उनसे प्रभावित होकर प्रतिघात की मानसिकता हमें भी उसी गरल को पीने को मजबूर करेगी जो इन दोनों देशों के समाज में व्याप्त है।
धर्म की आड़
हमें आस्था के रूप में धर्म और सत्ता के साधन के रूप में धर्म के बीच का अंतर स्पष्ट करना होगा। कट्टरता की ऐसी निंदक घटनाओं के लिए धर्म की आड़ का प्रयोग रोकना है तो कड़े संदेश के साथ ही कड़ी कार्रवाई भी करनी होगी। झारखंड, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और मणिपुर ने अपने राज्यों में कानून लाकर एक अच्छी पहल की है। अक्सर कहा जाता है कि भीड़ के पास कोई दिमाग नहीं होता, लेकिन असलियत यह होती है कि हर भीड़ के पीछे उसे भड़काकर अपने मंसूबे पूरे करने वाला कोई-न-कोई दिमाग जरूर काम कर रहा होता है। ऐसे विषधरों को जब तक माला पहनाने, लड्डू खिलाने और उनके सार्वजनिक सम्मान का चलन रहेगा, तब तक हमारा सामाजिक ताना-बाना भी तलवार की धार पर रहेगा। न्याय तंत्र के साथ राजनीतिक नेतृत्व और समाज को भी इस पर कड़ा संदेश देना होगा। ऐसे में सबका साथ, सबका विकास और सबका विास के मंत्र को फलीभूत करने के लिए यह जरूरी है कि सबको मिल जुलकर प्रयास भी करना होगा।
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