आखिर, गांधी का अपराध क्या है?

Last Updated 02 Jan 2022 01:58:59 AM IST

आजादी का कोई मतलब नहीं, अगर इसमें गलती करने की आजादी शामिल न हो।’


आखिर, गांधी का अपराध क्या है?

महात्मा गांधी ने जब अपनी इस उदात्त सोच से विचारों की दुनिया को समृद्ध किया होगा, तब क्या उन्हें इस बात का पूर्वाभास रहा होगा कि स्वाधीन देश में छद्म राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े अधम, ओछे और असभ्य नागरिकों का एक ऐसा झुंड भी उभरेगा जो न सिर्फ  उनके इस कथन की गलत व्याख्या करेगा, बल्कि उस सर्वोच्च बलिदान का उपहास भी उड़ाएगा जिसके सामने समूची मानवता दशकों से नतमस्तक होती आई है।

ताजा संदर्भ बापू पर कालीचरण महाराज की उस अमर्यादित टिप्पणी का है, जो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की धर्म संसद में की गई। इस धर्म संसद में भारत के राष्ट्रपिता को गाली देने का अधर्म हुआ और उनके प्राण हरने का खलकर्म करने वाले गोडसे का किसी नायक की तरह महिमामंडन किया गया। रायपुर में जो हुआ, उसकी तात्कालिक वजह हरिद्वार की धर्म संसद में दूषित किया गया माहौल है, जहां जरूरत पड़ने पर समाज के एक विशेष वर्ग के समूल नाश का खुलेआम आह्वान किया गया। संभव था कि अगर उत्तराखंड से उठी आवाज पर समय रहते कानून का प्रहार हो गया होता, तो छत्तीसगढ़ में राष्ट्रपिता के अपमान का प्रसंग भी प्रस्तुत नहीं होता। बहरहाल, अगर-मगर का प्रश्न विशेष महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि बापू की अवमानना का यह कोई पहला मामला नहीं है, और इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार की कार्रवाई के बाद समाज के एक वर्ग की जिस तरह की प्रतिक्रिया सामने आई है, उससे यह भी तय हो गया है कि देश पर जान लुटाने के सात दशक बाद भी महात्मा के इम्तिहान का दौर अभी बाकी है। गांधी जयंती हो या उनकी पुण्यतिथि या देश की आजादी का ही अवसर हो, सोशल मीडिया पर गोडसे के समर्थन में पैदा की जाने वाली लहर के पीछे कौन होता है, यह सर्वविदित है। इसके बावजूद यह क्रम निर्बाध जारी रहता है, तो इसका मंतव्य क्या समझा जाए? यहां मैं जानबूझकर सियासी टिप्पणियों का जिक्र नहीं कर रहा हूं क्योंकि उससे भटकाव का खतरा निहित है।

आखिर, गांधी का अपराध क्या है? क्यों कुछ पथभ्रष्ट लोग उस शख्स के पीछे पड़े हैं, जो नेहरू से पटेल तक, विनोबा से जयप्रकाश तक, मंडेला से मार्टनि लूथर तक और टॉलस्टॉय से ओबामा तक के पथ-प्रदशर्क रहे। आखिर, क्यों फांसी पर चढ़ा दिए जाने के बावजूद ‘गोडसे’ आज तक जिंदा है? दरअसल, इसकी एक बड़ी वजह बापू से भारतीय समाज का लगाव और उनका प्रभाव है। यह आत्मीयता उन तत्वों को खटकती है, जो गांधी को विभाजन का जिम्मेदार मानते हैं, और इस भ्रांति को लगातार वैचारिक खाद-पानी देकर प्राणवान बनाए रखने की कुत्सित भावना में लिप्त रहते हैं, और येन-केन-प्रकारेण गांधी के विचारों की हत्या के अवसर तलाशते रहते हैं। यह पृष्ठभूमि ठीक वैसी ही है जैसी गांधी की शारीरिक हत्या के समय थी। आजाद भारत में बापू की आकाशीय लोकप्रियता को जब नफरती विचारों से परास्त नहीं किया जा सका, तो उन्हें रास्ते से हटाने की साजिशें रची गई। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि 30 जनवरी, 1948 से पहले बापू की हत्या की पांच असफल कोशिशें हुई जिनमें से ज्यादातर में गोडसे को शामिल किया गया। आज के दौर में भी गांधी जी की वैचारिक हत्या के षडयंत्र में कुछ चिह्नित चेहरे शामिल दिखते हैं। यह कैसा संयोग है कि पराधीन भारत में जिस तरह अंग्रेजों ने जानते-बूझते भी ऐसे लोगों को दंडित करने की जरूरत नहीं समझी, उसी तरह स्वाधीन भारत में भी ऐसे तत्वों की सजा माफी पर बहस के इर्द-गिर्द सिमट कर रह जाती है।

दरअसल, गांधी के संपूर्ण व्यक्तित्व को देखें तो वो अपने जीवनकाल में ही एक विचार का रूप ले चुके थे और ये विचार ही एक सदी बाद भी गांधी को प्रासंगिक बनाए हुए हैं। इसलिए भी उनके दामन पर दाग लगाने की कोशिश आसमान की दिशा में सिर उठाकर थूकने जैसी साबित होती है। जीवन का कौन सा एक पक्ष है, जिसे गांधी दर्शन प्रभावित नहीं करता है। सत्य के साथ उनके प्रयोग जीवन-धर्म से कम नहीं हैं। सत्य और अहिंसा, प्रेम और भाईचारा यही तो वो मूल्य हैं, जो भारतीय समाज को वैश्विक पहचान और सम्मान, दोनों देते हैं। विचार के रूप में जीवन के हर पक्ष पर गांधी की छाप है, और इसमें भी सबसे ऊपर है उनका नैतिक पक्ष। इस मामले में स्वयं गांधी जी ने खुद से असहमति रखने वालों के सामने अनगिनत उदाहरण रखे हैं। देश की आजादी के लिए समय-समय पर किए गए उनके आंदोलन आखिर, असहमति के प्रतीक ही तो थे और उनका नैतिक बल भी ऐसा था कि जो अंग्रेज अपने साम्राज्य में सूरज न डूबने की गर्वोक्ति से अघाते नहीं थे, वे ही बार-बार इस महात्मा के सामने अपने ही हाथों अपने दंभ को डुबोने के लिए मजबूर हो जाते थे।

आज के दौर में जो लोग गांधी पर उंगली उठाते हैं, उनके लिए यह एक और उपयुक्त अवसर है कि वे गांधी के जीवनकाल की स्थितियों का स्वयं विश्लेषण करें। जिस समय देश आजादी की ओर कदम बढ़ा रहा था तब गांधी ऐसे दोराहे पर खड़े थे जिसमें एक तरफ साम्राज्यवादी ताकत के रूप में अंग्रेजों की हिंदू और मुसलमानों को बांटकर राज करने की नीति अपने चरम पर थी, तो दूसरी ओर सांप्रदायिक नेताओं की टोली शिकारी जानवरों के झुंड की तरह मौका देखकर शिकार लपकने की ताक में बैठी थी। ‘एकला चलो रे’ की तर्ज पर वो गांधी ही थे जो एकता की मशाल में भाईचारे का तेल डाल रहे थे।

धार्मिंक-सामाजिक कठमुल्लाओं से उनकी असहमति बंटवारे की उपज नहीं थी, वो तो गांधी में जन्मजात थी। बंटवारा तो इस अभिव्यक्ति का महज सर्व उपयुक्त अवसर बना। यही असहमति आजादी मिलने और बापू को गंवाने के बाद हमारे लोकतंत्र की धुरी बनी। जो लोग गांधी पर सवाल उठाते हैं, दरअसल, उन्हें गांधी जी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने अभिव्यक्ति के अधिकार को दबाने-कुचलने के तमाम कुचक्रों के बीच देश और समाज को असहमति के स्वर और उसकी सुनवाई के महत्त्व का पाठ पढ़ाया।

गांधी जी को स्नेहवश साबरमती का संत कहा जाता है। यह मेरा व्यक्तिगत मत हो सकता है, लेकिन मुझे भरोसा है कि देश की अधिसंख्य जनता भी यह स्वीकारेगी कि असलियत में तो गांधी संत परंपरा के आखिरी महानतम प्रतिनिधि हैं। आज के दौर में संत बनी बैठी और उन पर सवाल उठाने वाली स्वयंभू जमात तो दरअसल, उस महात्मा के आलोक में असत्य से प्रयोग की होड़ में लगी है, जो अपना मंतव्य सिद्ध करने के लिए बड़ी चतुराई से बापू के सांप्रदायिक और सामाजिक सद्भाव के मूल संदेशों को किनारे कर उनके जीवन के चुनिंदा हिस्सों को सामने ला रही है। कल तक जो काम एक खास तरह की सियासी जमात कर रही थी, आज उसके लिए तथाकथित साधु-संतों को आगे किया जा रहा है।

गांधी का महात्म्य देखिए कि ऐसी स्थितियों के लिए भी अगर समाज उनके पास मार्गदर्शन के लिए जाता है, तो गांधी उसे खाली हाथ नहीं लौटाते। गांधी ने लिखा है, ‘मौन तब कायरता बन जाता है जब अवसर संपूर्ण सत्य बोलने और उसके अनुसार कार्य करने की मांग करता है।’ आजादी के अमृतकाल पर हम लाख बातें कर लें लेकिन इसका संकल्प तभी पूर्णता को प्राप्त करेगा जब समाज इस गांधी मंत्र को समझेगा और हमारा तंत्र ऐसे अवांछित गिरोहों के छल-कपट की दिशा बदलेगा।

उपेन्द्र राय


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