नया साल.. आइए, बनाएं अमृतकाल
आप सभी को नव वर्ष की अनेकानेक शुभकामनाएं। देश आजादी के अमृतकाल में प्रवेश कर चुका है, और इस लिहाज से भी नया वर्ष एक अलग महत्त्व के विषय का अवसर है। जिस तरह समुद्र मंथन से विष और अमृत, दोनों की उत्पत्ति हुई, उसी तरह यह अमृतकाल भी नई चुनौतियां, नई संभावनाएं और राष्ट्र विकास के नये संकल्प लेकर प्रस्तुत हुआ है।
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इस संकल्प के शीर्ष पर फिलहाल तो उस महामारी पर विजय का हमारा प्रण ही विराजमान दिखता है, जो विगत दो वर्ष से भारतवर्ष ही नहीं, वि भर में समूची मानवता पर एक दोधारी तलवार की तरह लटकी हुई है। तो क्या इस वर्ष हम कोरोना महामारी को मात दे पाएंगे? डब्ल्यूएचओ की कोरोना सुनामी वाली चेतावनी के बीच सात समंदर पार से आ रहे संक्रमण के संकेत भले ही डरावने हों, लेकिन इस बार हम भी पूरी तरह तैयार दिख रहे हैं। निश्चित रूप से कोरोना की पहली और दूसरी लहर से देश में घनघोर विचलन की स्थितियां बनीं। नये वेरिएंट ओमीक्रोन पर सवार कोरोना की आशंकित तीसरी लहर पुन: वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण नहीं कर सके, इसके लिए देश की सरकार ने पिछले अनुभवों से सबक लेकर व्यापक तैयारियां की हैं, जो इस बात का भरोसा दिला रही हैं कि जो बीत गया है वो अब फिर से रीत नहीं बनेगा। लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा, जब एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में प्रत्येक देशवासी भी कोरोना प्रोटोकॉल की अपनी जवाबदेही निभाने के इम्तिहान पर खरा उतरे। नव वर्ष का यह एक संकल्प राष्ट्र कल्याण की राह से कई बाधाएं दूर करने का सामथ्र्य रखता है।
एंटीबॉडी का सबब बनेगा ओमीक्रोन
वैसे राहत की बात यह है कि दुनिया भर के विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि कम घातक परिणाम वाला ओमीक्रोन जितनी तेजी से फैलेगा उतनी ही तेजी से एंटीबॉडी भी बनेगी। ऐसे में यह वेरिएंट वैक्सीन की तरह काम करेगा और एक तय समय के बाद कोरोना महामारी के अंत की वजह बनेगा। इस लिहाज से आजादी के अमृतकाल में ओमीक्रोन अमृत के वरदान की संभावनाएं लेकर आया दिखता है।
इसमें हमारे देश में वैक्सीनेशन की बढ़ती रफ्तार का भी बड़ा हाथ रहने वाला है। यही वैक्सीनेशन पटरी पर लौट रही और मजबूत प्रदशर्न कर रही हमारी अर्थव्यवस्था की ढाल भी बन सकता है। कुछ दिनों पहले नवम्बर माह की रिव्यू रिपोर्ट जारी करते हुए वित्त मंत्रालय ने स्वयं स्वीकार किया है कि अर्थव्यवस्था पर ओमीक्रोन के संकट के बीच वैक्सीनेशन एक उम्मीद बन कर उभरा है। हालांकि रेटिंग एजेंसी फिंच, भारतीय उद्योग परिसंघ और ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डवलपमेंट जैसे इकोनॉमिक थिंक टैंक ने ओमीक्रोन को खतरा मानकर प्रतिकूल परिस्थितियों के निर्माण की आशंका जताई है। इसी सप्ताह जारी हुई आरबीआई की दूसरी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ने की स्थिति में बैंकों का सकल एनपीए यानी फंसा कर्ज सितम्बर, 2021 के 6.9 फीसद से सितम्बर, 2022 में बढ़कर 8.1 से 9.5 फीसद तक पहुंचने का अनुमान है।
इसलिए नव वर्ष में हम जितनी जल्दी और अपनी आबादी का जितना ज्यादा टीकाकरण कर पाएंगे, उतना ही बेहतर हम अपनी आर्थिक और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़ी चुनौतियों से निबट पाएंगे। यह प्रक्रिया अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में हमारी विदेश नीति की चुनौतियों को सरल करने में भी सहायक हो सकती है। वैसे चीन और पाकिस्तान का सिरदर्द कितना कम होगा, इसका दावा मुश्किल है। हालांकि चीन के साथ एक दिलचस्प स्थिति बन रही है। एक तरफ भारतीय क्षेत्रों में उसकी घुसपैठ वाली आपदा एक वर्ष बाद भी बरकरार है, तो दूसरी तरफ कई देशों का अपनी जरूरत के उत्पादों के लिए चीन से अलग दूसरे देशों का रु ख करना भारत के लिए एक अवसर भी बन सकता है। वैसे एलएसी की यथास्थिति का मसला संवेदनशील है और नये साल में इसका जवाब तलाशना हमारी सुरक्षा और संप्रभुता के साथ ही वैिक छवि के नजरिए से भी जरूरी होगा। पाकिस्तान को लेकर पठानकोट हमले के बाद 2016 से बंद बातचीत के रास्ते खुलने की न तो कोई सूरत नजर आ रही है, न ही कोई वजह। अफगानिस्तान के एंगल से इस रु ख में कोई बदलाव आ जाए, तो अलग बात होगी। बीते वर्ष रूस से हमारी पुरानी दोस्ती में नई गर्मी दिखी है। अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार के बाद ईरान के रास्ते व्यापारिक गतिविधियों के लिहाज से भी रूस की दोस्ती जरूरी है। फिलहाल, अमेरिका-चीन के तनाव भरे रिश्तों के कारण रूस से हमारी करीबी पर अमेरिका चाह कर भी हमसे ज्यादा दूर नहीं जा सकता।
अंतरराष्ट्रीय राजनीति की ही तरह इस वर्ष हमारी घरेलू राजनीति भी कई दिलचस्प पड़ाव से गुजरेगी। पिछले साल केंद्र सरकार को उत्तर भारत के किसानों के भारी विरोध से बाद कृषि कानून वापस लेने और तमाम संसाधन झोंक देने के बावजूद पश्चिम बंगाल में हार झेलने जैसी असामान्य परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। वर्ष 2022 तय करेगा कि इसका प्रभाव तात्कालिक रहेगा या दूरगामी और इस मामले में इस साल होने जा रहे उत्तर प्रदेश एवं गुजरात के चुनाव पैमाने का काम करेंगे। लोक सभा में 80 सांसद भेजने वाला उत्तर प्रदेश दिल्ली की कुर्सी का सबसे बड़ा संकेतक माना जाता है।
उप्र में चुनावी कशमकश करीबी
साल 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बंपर जीत का असर यह रहा कि इसके बाद हुए मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद बीजेपी साल 2019 के लोक सभा चुनाव में बहुमत वाली पार्टी बन कर उभरी। हालांकि इस बार कश्मकश करीबी दिख रही है। एक तरफ राम मंदिर, काशी विनाथ प्रोजेक्ट और प्रधानमंत्री मोदी एवं मुख्यमंत्री योगी की जोड़ी का करिश्मा बीजेपी को ताकत दे रहा है, तो दूसरी तरफ किसान आंदोलन, लखीमपुर हिंसा जैसे मुद्दों से बना माहौल और रणनीतिक गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में उतरी समाजवादी पार्टी भी जोरदार टक्कर दे रही है। गुजरात में चुनौती शायद ज्यादा करीबी रह सकती है। वहां 1995 से अजेय बीजेपी प्रधानमंत्री के केंद्र में जाने से लगातार कमजोर हुई है। पिछले चुनाव में तो उसकी जीती सीटों का आंकड़ा दो अंकों में ही सिमट गया था। हालांकि अहमद पटेल जैसे धाकड़ नेता के निधन के बाद विपक्षी कांग्रेस भी फिलहाल कमजोर नजर आ रही है और किसी तीसरे दल की उपस्थिति नहीं होने का बीजेपी को फायदा मिल सकता है।
वैसे भी कांग्रेस के लिए यह वर्ष एक तरह से करो या मरो का साल रहने वाला है। कांग्रेस पिछले कुछ समय से लगातार पतन देख रही है, और माना जा रहा है इसकी बड़ी वजह पूर्णकालिक अध्यक्ष का न होना है। बीजेपी जैसी सुसंगठित सेना के खिलाफ कांग्रेस बिना सेनापति के लड़ रही है। इसका नतीजा यह निकला है कि अब सत्ता तो दूर, विपक्ष के नेतृत्वकर्ता की उसकी भूमिका भी खतरे में पड़ रही है।
मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष को लामबंद करने में जुटी तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी इस मामले में सबसे ज्यादा मुखर हैं। प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनने का ममता बनर्जी का सपना विधानसभा चुनाव में करीब-करीब एकतरफा जीत के बाद और बुलंद हुआ है, लेकिन इस मामले में ममता इतनी जल्दी में हैं कि वो कई मौकों पर विपक्ष को पीछे छोड़कर अकेले आगे निकलती दिख रही हैं। हाल ही में यूपीए के अस्तित्व पर उन्होंने जिस तरह सवाल उठाए, उसके बाद तो उनकी छवि बीजेपी विरोधी की जगह कांग्रेस विरोधी की बन गई। शिवसेना के संजय राउत से लेकर एनसीपी के शरद पवार तक ने इस मामले में ममता को हिदायत दी है। नतीजतन, कांग्रेस ही नहीं, बाकी विपक्ष भी ममता के मंसूबे ताड़ कर उनसे दूरी बनाने लगा है। यह दूरी कम होगी या बड़ी दरार बनेगी इसका जवाब हमें नये साल में मिलेगा।
यह दरार तो सियासी है, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी ही दरार हमारी क्रिकेट टीम में भी दिखाई दे रही है जहां कप्तानी के सवाल ने विराट कोहली और सौरव गांगुली की अगुवाई में चल रहे भारतीय क्रिकेट बोर्ड को आमने-सामने ला दिया है। इस विवाद पर लाख लकीरें पीट ली जाएं, लेकिन हकीकत यही है कि पारदर्शिता और अहम के सांप ने एक बार फिर भारत में धर्म समझे जाने वाले खेल को डसा है। देरी हो जाए इससे पहले ही नये साल में मिल-बैठकर विवाद को सुलझाना समझदारी होगी।
क्रिकेट का मैदान और हमारी संसद
क्रिकेट के मैदान का यह सूरतेहाल हमारी संसद का भी एक प्रतिबिंब है, जहां लगातार बढ़ता विरोध ऐसे गतिरोध में बदल गया है, जो लोकतंत्र की स्वस्थ परंपरा को ही दूषित करने लगा है। इसी लोकतंत्र में ऐसी सैकड़ों मिसालें मौजूद हैं, जब विरोधी विचारों के बावजूद राष्ट्रीय मतैक्य के प्रयास फलीभूत हुए हैं। लेकिन बीते कुछ समय से जनता की इस सबसे बड़ी अदालत में बहस का शोर इतना ऊंचा हुआ है कि विवेकपूर्ण दलीलें सुनाई नहीं दे रही हैं। पक्ष और विपक्ष इन दिनों आजादी के अमृत महोत्सव के सिलसिले में कई कार्यक्रम में भाग ले रहा है। अच्छा तो यही होता कि इन कार्यक्रमों में ही सब इस बात का संकल्प लेते कि आर्थिक-सामाजिक चुनौतियों के इस दौर का सब मिलजुल कर सामना करेंगे। हाईवे, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशनों के आधुनिकीकरण, मूर्तियों और मंदिरों के निर्माण के साथ ही संसद में साथ आकर देश के सामने खड़ी गरीबी, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास की समस्याओं पर भी राह निकालेंगे। ऐसा होगा तभी तो विकसित देश का संकल्प और अमृत महोत्सव के आयोजन का मंतव्य सार्थक और साकार हो पाएगा।
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