’वन इंडिया-वन वोट‘ में क्यों दिख रहा खोट?

Last Updated 26 Dec 2021 12:02:45 AM IST

बीते सप्ताह विपक्ष के भारी विरोध के बीच एक और बिल संसद के दोनों सदनों में पास हो गया।


’वन इंडिया-वन वोट‘ में क्यों दिख रहा खोट?

 ‘एक और’ का उपयोग इसलिए क्योंकि हाल के दिनों में कई सुधार बिलों की यही नियति रही है, फिर या तो वो कानून बने हैं या फिर अदालत की बहस में उलझे हैं। चुनाव सुधार से जुड़े इस बिल को भी विपक्षी पार्टियां संसदीय समिति को भेजने की मांग कर रही थीं, लेकिन सरकार ने इस मांग को ठुकरा दिया। दोनों सदनों से पास होने के बाद अब इस बिल के कानून बनने में बस राष्ट्रपति की मंजूरी का फासला बाकी रह गया है। इस बिल के जरिए सरकार ने जन प्रतिनिधित्व कानून के कई प्रावधानों में बदलाव किया है। मुख्य रूप से इसमें वोटर आईडी को आधार कार्ड से जोड़ने का प्रावधान है। चूंकि इसे लेकर विवाद की स्थिति बनी है तो जाहिर है कि इसमें दो ऐसे पक्ष हैं जो एक-दूसरे को अपने तकरे से आस्ति का भाव नहीं दे पा रहे हैं।  

सरकार का कहना है कि इस बदलाव से वोटर लिस्ट में नामों का दोहराव खत्म किया जा सकेगा, जिससे फर्जी वोटिंग पर नकेल लगेगी। वहीं, विपक्ष निजता हनन का हवाला देकर तर्क दे रहा है कि नये प्रावधान से वोटरों की निगरानी की आशंका है जिससे मतदान गुप्त नहीं रह जाएगा और निष्पक्ष चुनाव का सिद्धांत प्रभावित होगा। कुछ विपक्षी नेताओं को तो यहां तक अंदेशा है कि यह कानून जनता को दबाने, मताधिकार से वंचित करने और भेदभाव करने का हथियार तक साबित हो सकता है। मूल रूप से इस विरोध के तीन सिरे दिखाई देते हैं। विरोध की पहली और सबसे बड़ी जड़ है निजता को खतरा क्योंकि इसमें डाटा चोरी की आशंका है। दूसरा यह कि सरकार की यह पहल निजता को नागरिकों के मौलिक अधिकार का दर्जा देने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन भी है। तीसरा यह कि चूंकि आधार कार्ड नागरिकता का नहीं केवल निवास का प्रमाण है इसलिए इसे वोटर आईडी से जोड़ कर सरकार संभवत: गैर-नागरिकों को भी वोटिंग का अधिकार दे रही है।

यह कितनी दिलचस्प बात है कि किसी व्यक्ति की पहचान को विशिष्टता का दर्जा देने वाले आधार को अपने जन्मकाल से ही अपनी पहचान के लिए संघर्ष करना पड़ा है। समय के साथ तकनीक की मदद से भले ही इसे सुरक्षा के नजरिए से मजबूती दी जाती रही हो, इसके बावजूद इसके तहत निजी जानकारी की सुरक्षा हमेशा से सवालों के घेरे में रही है। आज मतदान की निष्पक्षता को लेकर सरकार पर हमलावर विपक्ष कभी इसके बायोमेट्रिक फीचर को लेकर सवाल उठाया करता था, जबकि कालांतर में वैज्ञानिक तरीके से दो व्यक्तियों में सूक्ष्म अंतर और करोड़ों लोगों के बीच भी अपराधियों तक का पता लगा लेने वाली यही विशेषता इसका दुरुपयोग रोकने की सबसे बड़ी ताकत साबित हुई है। आधार से जुड़ कर मोबाइल सिम को मिली नई पहचान ‘प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम’ की सटीक मिसाल है। अपराधियों पर कानून का शिंकजा कसने के साथ ही इसका सबसे बड़ा लाभ बेनामी संपत्ति पर अंकुश लगाने, घर बैठे बैंकिंग सेवा मिलने और सरकारी योजनाओं के फायदों का उसके सही लाभार्थियों तक पहुंचाने में दिखा है। इसकी मदद से गरीबों के हक पर डाका डाल रहे नकली लाभार्थी सिस्टम से बाहर हुए हैं और अकेले केंद्र सरकार की योजनाओं में ही डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर से दो लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की बचत हुई है। इसमें राज्य सरकार की योजनाओं का आंकड़ा जोड़ेंगे तो यह बचत वास्तव में कई गुना ज्यादा बड़ी है। आधार को वोटर आईडी से जोड़कर सरकार दरअसल देश के मताधिकार को प्रभावित करने वाले ऐसे ही नकली वोटरों को सिस्टम से बाहर निकालना चाहती है। डिजिटल लेन-देन से लेकर कोरोना टीकाकरण अभियान का प्रबंधन तक आधार पर आधारित है।

कोविड के मुश्किल दौर में जान बचाने से लेकर जीविका चलाने तक में आधार आधारित यही प्रणाली लाखों-करोड़ों देशवासियों के लिए संजीवनी साबित हुई है। यदि निजता के सवाल पर सरकार ने अपने पैर पीछे खींच लिये होते तो कोविड महामारी का स्वरूप और कितना विकराल होता यह कल्पना से भी परे है। यह ठीक बात है कि व्यक्तिगत गोपनीयता का अधिकार सभी को है, लेकिन राष्ट्रीय हित और सरकारी योजनाओं के सही लाभार्थियों की सही पहचान की जरूरत से भी कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है? यह सब तभी होगा जब सरकार के पास सटीक आंकड़े होंगे और सफलता की संभावना भी तभी ज्यादा होगी जब सरकार की जानकारी सटीक होगी। वैसे भी व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है और इस मामले में अभी ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं, जिनके आधार पर इस जिम्मेदारी को कठघरे में खड़ा किया जा सके। इसकी तुलना अगर फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया से की जाए, तो अव्वल तो इसके यूजर्स ही निजी जानकारी ही नहीं, ‘निजी पलों’ की जानकारी तक को खुल्लम-खुल्ला शेयर करते दिखते हैं। उस पर इन जानकारियों की सुरक्षा भी कितनी ‘अभेद्य’ है, इसकी सार्वजनिक नुमाइश हम कई मौके पर देख चुके हैं। इसके बावजूद हैरानी की बात यह है कि निजता को लेकर विपक्षी दल इन सोशल प्लेटफॉर्म को घेरने में न उतने सतर्क दिखते हैं, न ही आक्रामक जितने वे सरकार पर दिखते हैं। यह ठीक है कि जिम्मेदारी और जवाबदेही के स्तर पर दोनों की कोई तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन निजता के दुरुपयोग का खतरा तो दोनों ही जगह एक-समान है। इस सबके बावजूद चुनाव सुधार को लेकर की गई सरकार की यह कोशिश कानूनी पेंचीदगियों में नहीं उलझेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

साल 2015 में भी चुनाव आयोग ने वोटर कार्ड को आधार से जोड़ने की योजना पर काम शुरू किया था, लेकिन कुछ ही महीने बाद जब मामला सर्वोच्च अदालत पहुंचा तो इस योजना पर रोक लग गई थी। कानून के जानकर मान रहे हैं कि इस बार भी इस कवायद को परवान चढ़ाना आसान नहीं होगा, क्योंकि नये विधेयक में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन करने का जो प्रावधान है, उसे सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी जा सकती है। दरअसल, इस विधेयक के कानून बनने या न बनने की दिशा तय करने में शीर्ष अदालत के ही दो फैसले अहम साबित हो सकते हैं। सितम्बर, 2018 में सर्वोच्च अदालत ने आधार नम्बर को संवैधानिक रूप से वैध बताते हुए सरकारी योजनाओं में इसके इस्तेमाल को मंजूरी दी थी। बड़ा पेच यह है कि चूंकि सरकार ने उस समय कोर्ट को यह नहीं बताया था कि आगे उसकी योजना आधार को वोटर लिस्ट से भी जोड़ने की है, इसलिए कोर्ट के फैसले में भी इस बात का जिक्र नहीं था कि वोटर कार्ड को भी आधार कार्ड से जोड़ा जा सकता है। दूसरा अहम फैसला इससे एक साल पहले अगस्त, 2017 में आया था जब सर्वोच्च अदालत ने निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानते हुए लोगों की मर्जी के बगैर उनकी निजी जानकारी सार्वजनिक नहीं करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इसके बावजूद जब सरकार नया विधेयक लाने के प्रयास में है तो उसकी विधायी क्षमता पर भी सवाल उठ रहे हैं।

बेशक, आधार को वोटर कार्ड से जोड़ने के पीछे सरकार की मंशा ‘वन इंडिया-वन वोट’ के सपने को साकार करते हुए स्वस्थ और स्वच्छ लोकतंत्र की अवधारणा के विकास को नया आयाम देने की हो, लेकिन इसके लिए विश्वास बहाल करना और संबंधित आशंकाओं को दूर करना भी उसकी ही जिम्मेदारी है। अनुभव के आधार पर शायद यह दावा किया जा सकता है कि समाज के कुछ खास वगरे को छोड़कर आम नागरिकों को इस विधेयक से कोई आपत्ति नहीं होगी। सिम और पैन कार्ड के मामले में हम पहले भी यह देख चुके हैं। प्रचलित धारणा यही कहती है कि अगर आप कोई गलत काम नहीं कर रहे हैं, तो व्यक्तिगत जानकारियों का कोई क्या दुरुपयोग कर लेगा? लेकिन तकनीक के इस दौर में हमने कई धारणाओं को ध्वस्त होते भी देखा है। इसलिए संसद से पास हो जाने के बावजूद नये विधेयक पर उठ रहे सवालों को दरकिनार भी नहीं किया जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार पूर्व की ही तरह इस विधेयक की ‘सीरत’ और अपनी ‘नीयत’ पर उठ रहे तमाम तरह के सवालों के माकूल जवाब अवश्य देगी।

उपेन्द्र राय


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