धार्मिक जुनून या आत्मघाती कानून

Last Updated 19 Dec 2021 12:34:37 AM IST

तानाशाही का इतिहास कहता है कि अगर कोई व्यक्ति अपने राज्य के लिए तानाशाह बनकर स्थिति नियंत्रण में लेता है तो उस देश की तस्वीर बदल जाती है, लेकिन निजी स्वार्थ में खुद को देश से बड़ा समझने वाला तानाशाह राज्य को रसातल में पहुंचा देता है।


धार्मिक जुनून या आत्मघाती कानून

जैसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1923 में कंगाल हुए जर्मनी की महंगाई दर 29,500 फीसद प्रतिमाह थी, लेकिन उसी वक्त के नाजी दल के नेता एडोल्फ हिटलर ने देश की सत्ता पर कब्जा किया और ‘लैंडमार्क’ मुद्रा की जगह ‘सीक्योर मार्क’ छापकर इस संकट से देश को निकाला। ठीक ऐसे ही प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 में तुर्की को राष्ट्रीय आंदोलन का प्रणोता मुस्तफा कमाल पाशा के रूप में मिला और इसके बाद तुर्की इस्लामिक र्वल्ड के सबसे प्रगतिवादी देश के तौर पर खड़ा हुआ। इसलिए मुस्तफा कमाल पाशा आज भी तुर्की में ‘अता तुर्क’ यानी तुर्की के पिता माने जाते हैं और हिटलर को आधुनिक जर्मनी का निर्माता माना जाता है। अब इन दोनों देशों में जर्मनी बेहतर व्यवस्था की वजह से आगे बढ़ गया, लेकिन करीब सौ साल बाद तुर्की की प्रगति धर्म के लबादे में ढांक दी गई।

दरअसल, धर्म की बेसिर-पैर की व्याख्या और निजी स्वार्थ के लिए उसे तोड़ने-मरोड़ने का जुनून अक्सर पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है, लेकिन पश्चिम-एशियाई देश तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोआन ने तो कुल्हाड़ी पर ही पैर मार दिया है। नतीजा यह हुआ है कि कभी अपने उदार लोकतंत्र और ऊंची विकास दर के कारण मुस्लिम ही नहीं बल्कि कई पश्चिमी देशों के बीच भी आधुनिक और समृद्ध अर्थव्यवस्था के मॉडल के रूप में देखा जाने वाला देश तुर्की धीरे-धीरे कंगाली की कगार की ओर बढ़ रहा है। देश की मुद्रा लीरा डॉलर के मुकाबले अब तक के सबसे निचले स्तर पर चल रही है और मुद्रास्फीति अनियंत्रित होकर 21 फीसद से ज्यादा हो गई है। इसके कारण सस्ती ब्रेड के लिए किराना दुकानों पर लंबी-लंबी लाइनें लग रही हैं, दवाओं, दूध और टॉयलेट पेपर्स के दाम आसमान छू रहे हैं, गैस स्टेशनों में गैस खत्म हो गई है और कर्ज न चुका पाने के कारण किसानों ने अपनी जमीनें छोड़ दी हैं। कुल जमा बात यह कि बेरोजगारी और महंगाई से यहां के लोगों की कमर टूट गई है।

तुर्की की अर्थव्यवस्था के इस ‘कायापलट’ के पीछे एर्दोआन की मुस्लिम जगत का खलीफा बनने की सनक को ‘कसूरवार’ बताया जा रहा है। एर्दोआन इस्लाम का बड़ा नेता बनने और मुस्लिम दुनिया पर शासन करने की महत्त्वाकांक्षा रखते हैं। इसलिए, तुर्की में तमाम नियम-कायदों के साथ ही आर्थिक नीति भी शरीयत की तर्ज पर तैयार की जा रही है। दरअसल, शरिया भुगतान या ब्याज की प्राप्ति (रीबा) की अनुमति नहीं देता है। इस्लामी सिद्धांतों में, ‘रीबा’ या पैसा जमा करने या उधार देने से अर्जित ब्याज को अपवित्र (हराम) माना जाता है। यही कारण है कि सऊदी अरब जैसे देशों में भी राज्य समर्थित संस्थान जो ब्याज दरें देते हैं, वे काफी कम रखी जाती हैं। एर्दोआन इसके परिणामों को समझे बिना उसी मॉडल को तुर्की में दोहराना चाहते हैं। इसके कारण तुर्की में ब्याज दरों में वृद्धि और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के सबसे बुनियादी आर्थिक सिद्धांतों को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा सुझाव देने वाले वित्त मंत्री और केंद्रीय बैंक के गवर्नर को बर्खास्त कर दिया गया है। एर्दोआन की इस कवायद को कट्टरपंथी वोट बैंक को खुश कर साल 2023 में होने जा रहे चुनाव में अपनी कुर्सी बचाने की कोशिशों से जोड़ कर देखा जा रहा है। इसके लिए एर्दोआन ने उच्च ब्याज दरों के लिए ‘सभी बुराई की जड़’ और ब्याज, मुद्रास्फीति और विनिमय दर के लिए ‘शैतान के त्रिकोण’ जैसे नये शब्द भी गढ़े हैं। आधुनिक और विकसित हो रही दुनिया को यह भले ही हास्यास्पद लगे, लेकिन लगभग 2.2 ट्रिलियन डॉलर के आकार वाली वैश्विक इस्लामिक वित्तीय दुनिया के ज्यादातर देश अपनी आर्थिक नीतियों में अनिवार्यरूप से ‘शरिया कानून’ के सिद्धांतों पर काम करते हैं। जैसे ‘इस्लामिक बॉन्ड’ हलाल यानी शरिया के अनुसार है, क्योंकि इन्हें वो संस्थाएं जारी करती हैं जो शराब, जुआ जैसे गैर-इस्लामिक माने जाने वाले उत्पादों या आर्थिक गतिविधियों में निवेश नहीं करती हैं। इसी तरह शरिया में सट्टा व्यापार की मनाही है और संपत्ति को अक्सर कागज पर ही दिखाया जाता है।

बेशक यह इस्लामी आर्थिक सिद्धांत सातवीं शताब्दी या उससे भी पहले की अर्थव्यवस्था के लिए असरदार रहे हों, लेकिन आधुनिक दौर में इनकी प्रासंगिकता अब केवल कट्टरवाद के पोषण के रूप में ही देखी-समझी जाती है। ऐसे में तुर्की के भविष्य को समझना हो तो पाकिस्तान के वर्तमान से बेहतर कोई दूसरी मिसाल नहीं दिखती। प्रधानमंत्री पद के तीन साल के कार्यकाल में इमरान खान ने भी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को 19 अरब डॉलर की चपत लगा दी है। पाकिस्तान पर 45 लाख करोड़ रु पये का कर्ज है और विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक वो कर्जे में डूबे टॉप-10 देशों में शामिल है। आज हर पाकिस्तानी नागरिक औसतन 1.75 लाख रु पये के कर्ज में डूबा है। इस कर्ज को चुकाने के लिए इमरान खान ने पिछले कुछ दिनों में प्रधानमंत्री निवास को किराए पर उठाने से लेकर सरकारी गाड़ियां, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की 8 भैंसें और पाकिस्तान में बहुतायत में पैदा होने वाले गधे तक बेचे हैं। विश्व बैंक की रिपोर्ट बताती है कि पाकिस्तान का मामला अब डेबिट सर्विस सस्पेंशन एनीशिएटिव के तहत आ गया है यानी उस पर इतना विदेशी कर्ज हो चुका है कि उसे अब और उधार नहीं दिया जा सकता है। पाकिस्तान के लिए ‘करेला वो भी नीम चढ़ा’ वाली बात ये है कि पिछले तीन साल से वो फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ की उस कुख्यात ग्रे लिस्ट से भी बाहर नहीं निकल पाया है, जिसमें मनी लॉन्ड्रिंग के खिलाफ कार्रवाई न करके आतंकी समूहों को आर्थिक रूप से समर्थन देने वाले देशों को रखा जाता है। आर्थिक बदहाली के साथ ही आतंकी गतिविधियों को समर्थन देने के मामले में तुर्की भी अब पाकिस्तान के नक्शे-कदम पर चलकर इस एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में शामिल हो गया है। लंबे समय तक तुर्की ने आतंकी वित्त पोषण के मनी लॉन्ड्रिंग मार्ग के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, लेकिन हाल के दिनों में अपनी घरेलू राजनीति से प्रेरित एर्दोआन की पाकिस्तान से करीबी बढ़ी है और जिहादी आतंकवाद पर दोनों देशों को एक ही भाषा बोलते देखा गया है।

खासकर पिछले एक दशक से तुर्की जिहादी समूहों की मौजूदगी वाले हर उस मंच में न केवल हिस्सेदार रहा है बल्कि उसका अगुवा बनने की होड़ में भी शामिल रहा है। नागोर्नो-काराबाख का किस्सा अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है। भारत के लिए तुर्की में दिलचस्पी कश्मीर के कारण जुड़ती है जिस पर वो संयुक्त राष्ट्र तक में पाकिस्तान की हिमायत कर चुका है। अब ऐसी खबरें हैं कि कश्मीर को गाजा बनाने की फिराक में बैठा पाकिस्तान अपना मंसूबा पूरा करने के लिए तुर्की की तीमारदारी में लगा है। कश्मीर में जिहाद की नई बिग्रेड तैयार करने के लिए पाकिस्तान ने पीओके की अमूल्य जैव संपदा को संवर्धन के नाम पर तुर्की को सौंपकर उसकी इस क्षेत्र में एंट्री करवा दी है। कश्मीर ही नहीं, फ्रांस को धर्मनिरपेक्षता की सीख देने से लेकर अफगानिस्तान में तालिबान की प्रगति तय करने में तुर्की और पाकिस्तान की भूमिका कट्टर मित्रों वाली रही है। बेशक आतंकवाद को पालने-पोसने की इस फितरत के पीछे का मकसद इस्लामिक जगत में अपना दबदबा और रसूख कायम करना हो, लेकिन इतिहास साक्षी है कि विकास पर विनाश को तरजीह देकर धर्म का ऐसा खतरनाक गठजोड़ बनाने वाले हर देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है-फिर चाहे वो पाकिस्तान हो या तुर्की या फिर कोई और।

उपेन्द्र राय


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