जनता का ’जनरल‘

Last Updated 12 Dec 2021 12:27:01 AM IST

हिंदुस्तानी सेना का बीरा चला गया। यह संभव है कि देश के पहले सीडीएस जनरल बिपिन रावत के लिए उनके करीबियों के इस स्नेहपूर्वक संबोधन की रचना किसी संयोग से हुई हो, लेकिन इसके अपभ्रंश में जिस वीर शब्द की गूंज है, उसे जनरल रावत ने किसी योगी की तरह देशभक्ति के अपने अथक तप से गढ़ा था।


जनता का ’जनरल‘

इस हफ्ते शुक्रवार को जब पूरे देश ने जनरल रावत को आखिरी विदाई दी तो हर जुबां के बोल और हर आंख की नमी अपने चहेते सेनापति की यही तस्वीर बयां करती दिखी। इसकी वजह भी है। जिस तरह एक ही चिता पर विदा होकर जनरल रावत ने अपनी पत्नी से जीवन भर साथ रहने का वचन नहीं तोड़ा, उसी तरह देश और फौज से किया कोई वादा भी नहीं टूटने दिया।

लगभग 43 वर्षो के अपने गौरवशाली कॅरियर के दौरान जनरल रावत ने वर्दी के सम्मान को ही अपना सर्वोच्च स्वाभिमान बनाया। जब जरूरत हुई तो देश के दुश्मनों को सधे अंदाज में समझाया और जब हद पार हुई तो बिना लाग-लपेट के चेताया। पांच साल पहले जब उन्होंने थल सेना की कमान संभाली थी, तब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इस पद के पात्र दो सीनियर अफसरों के आगे रखते हुए इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी। तब जो सवाल उठे थे, उनका जवाब गुजरे वक्त और उस विरासत ने दे दिया है, जो जनरल रावत अपने पीछे छोड़ कर गए हैं। चीन, पाकिस्तान के साथ नॉर्थ ईस्ट में उनका सामरिक अनुभव देश के लिए सुरक्षा कवच साबित हुआ। डोकलाम और गलवान घाटी में चीन को लेकर हमारे जवानों की ऐसी आक्रामकता देश ने पहली बार देखी। अगर डोकलाम विवाद के समय पहली बार भूटान के इलाके में निर्माण करने पर चीन को चुनौती मिली, तो गलवान में भारतीय सीमा के करीब सैन्य मौजूदगी बढ़ाने के चीन के दांव को उन्होंने ऊंचे इलाकों में हमारे सैनिकों की संख्या बढ़ाकर नाकाम किया। चीन की सीमा तक बारहमासी सड़कों के निर्माण का विचार भी जनरल रावत के दिमाग की ही उपज है। इसी तरह उरी और पुलवामा के बदले में सीमा पार जाकर आतंकी ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट हवाई हमलों की रणनीति को अंजाम देकर उन्होंने पाकिस्तान को भी जता दिया कि लड़ाई भले ही वो शुरू करे, लेकिन उसे खत्म भारत ही करेगा।

साथ में ये मजबूत पैगाम भी कि नये और बदले भारत में पाकिस्तान को अब परमाणु ताकत की गीदड़भभकी का डर दिखाकर आतंकवादियों को एलओसी पार करने की छूट नहीं मिलने वाली है। इस सर्जिकल स्ट्राइक की एक ‘रिहर्सल’ हमने 2015 में भी देखी थी, जब मणिपुर में आतंकी हमले में शहीद 18 भारतीय जवानों का बदला लेने के लिए भारतीय सेना उनकी ही कमान में आतंकी संगठन एनएससीएन (के) को नेस्तनाबूद करने के लिए आसमान से आफत बनकर टूटी थी। दुश्मन को चौंकाने की इस काबिलियत और मुश्किल से मुश्किल फैसले लेने की जनरल रावत की हिम्मत ने भारतीय सेना को हर मोर्चे पर अपने विरोधियों से दो कदम आगे रखा। इसलिए जब दो साल पहले सीडीएस के रूप में देश की सुरक्षा के सबसे बड़े रणनीतिकार को चुनने का मौका आया तो जनरल बिपिन रावत उस पद की पहली और इकलौती पसंद बन कर उभरे। नई जिम्मेदारी के तहत जनरल रावत थल सेना, नौसेना और वायुसेना को एक छतरी के नीचे लाने के चुनौतीपूर्ण मिशन पर थे। सेना के आधुनिकीकरण की योजना का यह मिशन जनरल रावत के दिल के बहुत करीब था और अपनी हर जिम्मेदारी की तरह वे इसे भी पूरे उत्साह के साथ पूरा करने में जुटे थे। आर्मी और एयरफोर्स को एकजुट करके लद्दाख में चीनी घुसपैठ रोक कर उन्होंने दुनिया को इसकी पहली झलक भी दिखा दी थी। उनके शौर्य और साहस की तो पूरी दुनिया कायल थी, लेकिन सीडीएस बनने के बाद देश ने उनके अंदर के उस नौकरशाह को भी देखा जिसने बड़ी कुशलता से सेना के आधुनिकीकरण और हथियारों के क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता की राह में लालफीताशाही के तमाम रास्ते बंद कर दिए।

बड़ी बात यह थी कि लोकप्रियता की चाहत उन्हें कभी ईमानदारी की राह से डिगा नहीं पाई। इस खूबी ने उन्हें देशवासियों के साथ ही मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व का भी ‘लाड़ला’ बनाया। यह भी विधि की अजीब विडंबना है कि जिस ऊंचाई वाले क्षेत्रों में दुश्मन भी उनके युद्ध कौशल का लोहा मानते थे, वही क्षेत्र आखिरकार उन्हें हम सबसे असमय छीनने की वजह भी बना। साथ ही इस हादसे ने ऐसे दुरूह क्षेत्रों में समय रहते जीवनरक्षक मदद पहुंचाने में हमारी सीमित ताकत को भी उजागर किया है। पहाड़ी इलाकों में जहां हर दुर्घटना एक इमरजेंसी और समय ही जीवन है, वहां हम आखिर कब तक पिछड़ते रहेंगे? हालांकि अब यह जांच का विषय है इसलिए इस पर ज्यादा टीका-टिप्पणी फिलहाल ठीक नहीं है, लेकिन यह जानना जरूरी है कि क्या इस हादसे में समय रहते मदद पहुंच जाती तो इतना बड़ा नुकसान टाला जा सकता था? बड़ा सवाल इस बात का भी है कि जनरल रावत ने देश के लिए जो सपना देखा, उसे अब कौन पूरा करेगा? नये सीडीएस पर न केवल जनरल रावत के तय किए हुए उच्च मानदंडों पर खरा उतरने का दबाव रहेगा, बल्कि रक्षा क्षेत्र में परिवर्तनकारी सुधारों को आगे बढ़ाने की चुनौती भी रहेगी। जब जनरल रावत ने यह जिम्मेदारी संभाली थी, तब चीन विरोधी के रूप में उतना मुखर नहीं था। मुख्य विरोधी पाकिस्तान था और उसके साथ ही देश के भीतरी इलाकों में आतंकवाद की चुनौतियां थीं, लेकिन डोकलाम और गलवान के बाद हालात बदल गए हैं।

दो मोर्चों पर युद्ध की संभावना अब दूर की कौड़ी न होकर तात्कालिक खतरे की ओर बढ़ गई है। इसमें पूर्वोत्तर में चीन समर्थित उग्रवाद को जोड़ लिया जाए तो ढाई मोर्चे के युद्ध की थ्योरी सही होती दिख रही है। बड़ी चुनौती सेनाओं के एकीकरण के मोर्चे पर भी रहेगी। जनरल रावत भारतीय सेना को एक नया रंग देने के मिशन पर थे। देश के नये सीडीएस के कंधों पर अब उस विरासत को आगे लेकर जाने की बड़ी जवाबदेही रहेगी। बेशक नया सीडीएस नई सोच लेकर आएगा, लेकिन यह दिलचस्पी का विषय तो है ही कि जनरल रावत को आखिर कौन-सी सोच प्रेरित करती थी? एक बार जनरल रावत ने खुद इस सवाल का जवाब दिया था। जब उनसे पूछा गया कि क्या वे आलोचनाओं से प्रभावित होते है तब उन्होंने कहा था कि मैं ‘इम्यून’ नहीं हूं लेकिन मुझे पता है कि मैं अपने और अपने संगठन के प्रति सच्चा हूं। यही मायने रखता है। वाकई देश सेवा के लिए इससे सच्चा संदेश क्या हो सकता है?

उपेन्द्र राय


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