गण और तंत्र कितने दूर, कितने पास?
भारतवर्ष अपने स्वातंत्र्य काल के एक और महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पहुंच चुका है। 73वें गणतंत्र दिवस की छटा स्पष्ट दिखाई दे रही है। महान राष्ट्र की यात्रा के रूप में इस विशेष दिवस के पिछले 72 अनुभव अविस्मरणीय रहे हैं और आने वाला अवसर भी इस परंपरा की विशिष्टता में नया अध्याय जोड़ने का संकेत दे रहा है।
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73वां गणतंत्र दिवस ऐसे वर्तमान में उपस्थित हो रहा है, जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। प्रगतिशील भारत के 75 वर्ष का यह उत्सव जहां देश को चहुंमुखी समृद्धि और सर्वसमावेशी पहचान दिलाने के लक्ष्य में योगदान देने वाले लोगों को समर्पित है, वहीं हमारी संस्कृति और उपलब्धियों के गौरवशाली इतिहास को पुनर्जीवित करने की एक पहल भी है। बीते सप्ताह उत्सव के इस संयोजन में एक नई यात्रा भी प्रारंभ हो गई है, जिसके तहत ‘आजादी के अमृत महोत्सव से स्वर्णिम भारत की ओर’ कार्यक्रम शुरू किया गया है। कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आने वाले 25 वर्ष के लिए परिश्रम की पराकाष्ठा, त्याग और तप-तपस्या के नये लक्ष्य तय किए हैं। ऐसे में आने वाला गणतंत्र दिवस वह सुअवसर सिद्ध हो सकता है जब हम थोड़ा रु ककर, थोड़ा ठहरकर और पीछे मुड़कर अपनी उन तैयारियों को भी जांच-परख लें जिसकी जरूरत हमें भविष्य के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पग-पग पर पड़ेगी।
असंभव नहीं लक्ष्य
बेशक, 140 करोड़ कदम एक साथ उठेंगे तो यह लक्ष्य असंभव नहीं होगा, लेकिन इसकी शुरुआत स्वमेव नहीं हो जाएगी। मिसाल और हौसले के लिए देश का आम आदमी उन्हीं संस्थाओं की ओर देखेगा जिन पर देश की व्यवस्थाओं को सुचारू तरीके से लागू करने की जिम्मेदारी है हमारी केंद्र और राज्य सरकारें। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर इन्हें ‘टीम इंडिया’ के नाम से संबोधित करते आए हैं, लेकिन अमृतकाल के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन दोनों धुरियों को ठीक एक टीम की शैली में काम करके भी दिखाना होगा। 2014 में सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन होने के समय प्रधानमंत्री ने गुजरात में अपने मुख्यमंत्रित्व काल के अनुभव के आधार पर को-ऑपरेटिव कॉम्पिटिटिव फेडरलिज्म का मंत्र दिया था जिसमें सहयोगी प्रतिस्पर्धा से साथ-साथ आगे बढ़ने का भाव था। योजना आयोग की जगह नीति आयोग, 14वें वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर राज्यों को केंद्र की तरफ से मिलने वाली रकम में भारी बढ़ोतरी, केंद्र की फंडिंग वाली योजनाओं में बदलाव कर राज्यों के बजट की स्वायत्तता बढ़ाना, जीएसटी काउंसिल बनाना जैसे अनेक कदमों से संघीय ढांचे पर सकारात्मक और टिकाऊ असर हुआ है। लेकिन दूसरी ओर आयुष्मान योजना, पीएम-किसान योजना जैसी कई फ्लैगशिप योजनाएं, सीएए-एनआरसी जैसी पहल और जीएसटी में राजस्व वितरण में राज्यों की अनदेखी भी सत्ता के विकेंद्रीकरण के वादे पर खरी नहीं उतरी हैं। ईडी, सीबीआई, आईटी जैसी केंद्रीय संस्थाओं के मनमाने प्रयोग से केंद्र और राज्यों के बीच पनपने वाली अविास की पुरानी बीमारी एक तरह से लाइलाज हो गई है। कोरोना महामारी में ही पहले चरण में दिखा समन्वय, साझेदारी और समझदारी दूसरे और तीसरे चरण के आते-आते विभिन्न वजहों और शिकायतों के बीच दलीय राजनीति में घिरता दिखा है। अभी पंजाब में प्रधानमंत्री की सुरक्षा के मसले पर राज्य और केंद्र जिस तरह गुत्थमगुत्था है, वो सहकारी संघवाद के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं कहे जा सकते। चिंताजनक तथ्य यह भी है कि पिछली कुछ समयावधि में इस खाई को पाटने और विचारों के मतभेदों को सुलझा पाने की तत्परता भी नहीं दिखी है।
प्रशासनिक सुधारों के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन की परिकल्पना फिलहाल तो सपना ही है। प्रशासन और आम अवाम के बीच फासला कम होने के बजाय लगातार बढ़ा है, जबकि प्रशासनिक अधिकारी ही सरकार और जनता के बीच की कड़ी होते हैं। मोदी सरकार ने प्रशासन को पारदर्शी बनाने और सरकारी कार्यालयों की कार्यशैली सुधारने के लिए कर्मचारियों के समय पर कार्यालय पहुंचने से लेकर उनके काम पर निगरानी और जवाबदेही का तंत्र जरूर विकसित किया लेकिन इसके नतीजे बहुत प्रभावी रहे हों, ऐसा सिर्फ सरकारी विज्ञापनों में ही दिखाई देता है। तीन साल पहले आई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट बताती है कि भ्रष्टाचार के मामले में जरूर भारत की स्थिति पहले से बेहतर हुई है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय दिल्ली से चला एक रु पया गांव तक पहुंचते-पहुंचते केवल 15 पैसे रह जाता था, लेकिन यह कह देना कि आज पूरा-का-पूरा एक रुपया पहुंच रहा है, यह भी अतिश्योक्ति ही कहलाएगी।
लंबित मुकदमों से नहीं छूट पा रहा पीछा
भ्रष्टाचार मुक्त देश का सपना पूरा होने का हमारा इंतजार हमारी अदालतों में लंबित मुकदमों की संख्या की तरह ही बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी को अन्याय कहा गया है लेकिन तमाम सरकारों के तमाम प्रयासों के बावजूद गणतंत्र में हम इस अन्याय से पीछा नहीं छुड़ा पा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश की अदालतों में करीब 4.4 करोड़ मामले लंबित हैं। फास्ट ट्रैक कोर्ट की अवधारणा के बावजूद निर्भया जैसे संवेदनशील और बेहद चर्चित केस में भी हमें इंसाफ तक पहुंचने में सात साल लग गए। इस धीमी न्याय प्रक्रिया का सबसे बड़ा कारण न्यायाधीशों की कमी है, और यह विषय इतना बड़ा हो चुका है कि इसके सामने देश भर की अदालतों में महिला न्यायाधीशों की बेहद निराशाजनक आनुपातिक स्थिति पर चर्चा भी बेमानी लगने लगी है।
वैसे यह चुनौती पुलिस, स्वास्थ्य, शिक्षा सभी जगह है। आबादी के लिहाज से इन क्षेत्रों में आदर्श स्थिति से हम अभी भी काफी दूर हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानक से प्रति एक लाख नागरिक पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए। पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो के अनुसार साल 2018 में देश में यह आंकड़ा 198 का था। गृह मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि कुल स्वीकृत 25.95 लाख पदों में से 5.28 लाख यानी करीब 20 फीसद पद खाली पड़े हैं। जाहिर है कि इस हिसाब से देश के हर कोने को अपराध के लिहाज से सुरक्षित होने का दावा करने से हम अभी दूर हैं। स्वास्थ्य सेवाओं की एक तस्वीर हाल ही में राज्य सभा में केंद्रीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री अिनी कुमार चौबे के एक जवाब से सामने आई है, जिसके अनुसार साल 2019 तक देश के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 87.2 फीसद सामान्य चिकित्सक, 85.6 फीसद सर्जन, 79.9 फीसद बाल रोग विशेषज्ञ और 75 फीसद स्त्री रोग विशेषज्ञों की किल्लत है। आज भारत अपनी जीडीपी का एक फीसद के आसपास ही स्वास्थ्य पर खर्च कर रहा है जबकि जरूरत 3.8 फीसद की है। इस सबके बीच आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना गरीब और वंचित वगरे के लिए वाकई संजीवनी का काम कर रही है। शिक्षा के लिए शायद यह कह देना ही काफी होगा कि देश के स्कूलों में शिक्षकों के 11 लाख पद खाली हैं, और एक लाख स्कूल तो ऐसे हैं, जहां केवल एक शिक्षक पदस्थ है।
मातृभाषा में शिक्षा को लेकर चर्चा
ऐसे परिदृश्य में नई शिक्षा नीति के अंतर्गत जब मातृभाषा में शिक्षा को लेकर चर्चा शुरू होती है, तो दशकों से अनुत्तरित सवाल फिर सामने आ खड़ा होता है कि हमारी राष्ट्रभाषा कौन-सी है। अफसोस की बात यह है कि इसके जवाब में आज भी हमारे पास केवल खामोशी है। संविधान ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया लेकिन उसे राष्ट्रभाषा बनाने का सपना अभी भी अधूरा है। शायद इस दिशा में अगले 25 वर्षो का कालखंड हिंदी के लिए अमृतकाल साबित हो।
एक राष्ट्रभाषा न सही, हम एक देश, एक विधान का सपना पूरा करने में जरूर कामयाब रहे हैं। आज एक देश, दो निशान, दो विधान अतीत की बात बन चुका है, और जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र अपने सच्चे अथरे में लौट आया है। अनुच्छेद 370 की समाप्ति जहां एक ओर मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व की दृढ़ता का प्रतीक है, वहीं हमारे संविधान के लचीलेपन का भी परिचायक है। हमारे तमाम पड़ोसी देशों के संविधान पूरी तरह बदल चुके हैं, लेकिन भारत का मूल संविधान आज भी जस का तस है और वह इतना लचीला भी है कि सवा-सौ से ज्यादा संशोधन के बाद भी उसकी मूल भावना अक्षुण्ण है।
संविधान हमारे लोकतंत्र का मार्गदशर्क है, तो चुनाव इस लोकतंत्र का आधार है और इस आधार को मजबूत करने के लिए आजाद भारत कई चुनाव सुधारों का गवाह बना है। अनिवार्य मतदान, नोटा का विकल्प, राइट-टू-रिकॉल का अधिकार, महिलाओं और सामाजिक रूप से निर्बल समूहों के लिए चुनावों में आरक्षण जैसी कई पहल से हमने अपनी चुनाव पण्राली को सुधारने के प्रयास किए हैं, लेकिन 17 आम चुनाव और सैकड़ों विधानसभा चुनावों के बाद भी काले धन, चुनावी हिंसा, राजनीति के अपराधीकरण, ओपिनियन पोल, पेड न्यूज, फेक न्यूज, चुनावी धांधलियां जैसी चुनौतियां आज भी विद्यमान हैं। ईवीएम की जगह बैलट पेपर का तर्क इस आधार पर जोर पकड़ रहा है कि कई चरणों में हो रहे मतदान से लंबी होती जा रही चुनाव प्रक्रिया में ईवीएम की समय बचाने वाली उपयोगिता के कोई खास मायने नहीं रह गए हैं। इसी तरह महंगे होते जा रहे चुनाव की काट के लिए प्रधानमंत्री मोदी के वन नेशन, वन पोल का विचार भी अपने नफे-नुकसान के साथ बहस का केंद्र बना हुआ है।
जाहिर तौर पर कोई भी व्यवस्था पूरी तरह दोषरहित नहीं हो सकती। समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार उसमें संशोधन आवश्यक होता है। हमारा संविधान हो या प्रशासन या चुनाव, सभी को वक्त की चुनौतियों से पार पाने के लिए सुधार की जरूरत होती है। महत्त्वपूर्ण है राष्ट्र के संचालन और आवश्यक संशोधन में पारदर्शिता, जवाबदेही और कर्त्तव्य का निर्वहन। इसमें कोई शक नहीं कि हमारा कर्त्तव्यों से विमुख हो जाना गण का तंत्र से और तंत्र का गण से दूर हो जाने की वजह बना है। इसलिए प्रधानमंत्री के शब्दों को ही दोहराते हुए कहा जाए कि अगर हर नागरिक अपने हृदय में कर्त्तव्य का दीया जलाकर देश को आगे बढ़ाने में योगदान देता है, तो राष्ट्र संचालन की राह में चुनौतियां और समाज में फैली बुराइयां अवश्य दूर होंगी और नई ऊंचाई पर पहुंचने का देश का मार्ग भी प्रशस्त होगा। आहुति दें।
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