कोरोना पर भारी सहयोग का वज्र

Last Updated 12 Jun 2021 10:00:52 AM IST

मनुष्य की जिजीविषा और इसे संभव बनाने के लिए बढ़े मदद के हाथ भी कम नहीं रहे हैं। मरीजों के इलाज के लिए अपनी जान का बलिदान देने वाले डॉक्टर और उनके सहयोगी स्वास्थ्यकर्मी, खून का रिश्ता नहीं होने पर भी सम्मानजनक अंतिम विदाई को संभव बनाने वाले शव वाहनों के अनजान ड्राइवर, बीमार परिजन की जगह गैरों की तीमारदारी में जुटे परोपकारी एंबुलेंस चालक, स्वप्रेरणा से सामने आए अनगिनत स्वयंसेवी संगठन और निजी हैसियत से योगदान दे रहे समाज के ही लोगों की ऐसी अनगिनत कहानियां हैं


कोरोना पर भारी सहयोग का वज्र

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की आत्मकथा कुल्ली भाट अपने समय की प्रसिद्ध और मर्मस्पर्शी कृति है। आज उसका जिक्र इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि वह सामयिक भी प्रतीत हो रही है और संदेश के लिहाज से सटीक भी। कुल्ली भाट में निराला ने साल 1918 में महामारी की तरह फैले स्पेनिश फ्लू का दिल दहला देने वाले दृश्य सजीव किया है। इस महामारी में निराला ने अपने कई रिश्तेदारों के साथ ही अपनी पत्नी और एक साल की बेटी को भी सदा के लिए खो दिया था। निराला ने उस दौर में हुई अंतिम क्रियाओं का हौलनाक चित्रण किया है। कैसे दाह के लिए लकड़ियां कम पड़ जाती थीं और कैसे पावन गंगा इंसानी मृत देहों से पटी पड़ी थी। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम, कोई दिशा इस दारु ण दुख से अछूती नहीं थी। अपने अनुभव का ऐसा दस्तावेजीकण करते हुए निराला ने भी कदाचित नहीं सोचा होगा कि करीब एक सदी बाद के अधिकांश दस्तावेज वैसे ही भयानक वृत्तांतों के साथ नये संदभरे में प्रस्तुत होंगे।

महामारियों का चरित्र
दरअसल, महामारियों का ऐसा ही चरित्र होता है। वो जब आती हैं तो अपने साथ भय और संत्रास का एक लंबा सिलसिला लेकर आती हैं और जब जाती हैं तो अपने पीछे छोड़ जाती हैं पीढ़ियों तक सालने वाली पीड़ा। यही वो समय होता है जब मानवता कसौटी पर कसी जाती है, राष्ट्रीय चरित्र की परख होती है और समाज के कई चेहरे सामने आते हैं। कोरोना ने हमें ऐसे कई अनुभवों का साक्षी बनाया है, खासकर दूसरी लहर ने तो आजमाइश के कई पहलुओं को अनावृत किया है। इसमें एक तरफ अगर जीवनरक्षक दवाइयों से लेकर ऑक्सीजन की कालाबाजारी और अस्पताल में अपनों के लिए एक बिस्तर की चाह में दूसरे की मृत्यु की कामना जैसे नैतिक मूल्यों की बलि देते कथानक मौजूद हैं, तो दूसरी तरफ मनुष्य की जिजीविषा और इसे संभव बनाने के लिए बढ़े मदद के हाथ भी कम नहीं रहे हैं। मरीजों के इलाज के लिए अपनी जान का बलिदान देने वाले डॉक्टर और उनके सहयोगी स्वास्थ्यकर्मी, खून का रिश्ता नहीं होने पर भी सम्मानजनक अंतिम विदाई को संभव बनाने वाले शव वाहनों के अनजान ड्राइवर, बीमार परिजन की जगह गैरों की तीमारदारी में जुटे परोपकारी एंबुलेंस चालक, स्वप्रेरणा से सामने आए अनगिनत स्वयंसेवी संगठन और निजी हैसियत से योगदान दे रहे समाज के ही लोगों की ऐसी अनगिनत कहानियां हैं, जो एक राष्ट्र के रूप में हमारी प्रतिबद्धता को मजबूती देती हैं। तभी तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में देश ने मानवता के इन योद्धाओं को कोरोना वॉरियर्स का नाम और सम्मान दिया है। सवाल सोच का है, क्योंकि अंधेरा कितना भी घना हो, उसे दूर करने के लिए एक छोटी-सी लौ भी काफी होती है।
 

यह तब और महत्त्वपूर्ण हो जाता है जब समाज का मनोविज्ञान बुरी तरह प्रभावित हो और भावनात्मक संबल जुटाना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत। वैसे भी भावना के स्तर पर सामूहिक प्रयास के बजाय व्यक्ति का व्यक्ति से संपर्क ज्यादा असरदार होता है, इसलिए इस मोर्चे पर सरकार से ज्यादा योगदान समाज से अपेक्षित है। बहुत संभव है कि कोरोना से पीड़ित हर शख्स ने किसी-न-किसी स्तर पर भावनात्मक टूटन का अनुभव किया हो। अपनों के वियोग से लेकर रोजी-रोटी गंवाने के दुर्योग की वजह विविध हो सकती है। इसलिए जब भावनात्मक संबल की जरूरत चहुंओर वांछित हो, तो उसकी उपलब्धता भी किसी चुनौती से कम नहीं रह जाती। प्रसंगवश, कोरोना के ‘दुर्भाग्य’ ने आधुनिक जिंदगी की दौड़-भाग में समाज और परिवार की अहमियत समझाई है।

हर धर्म की दो विषयों पर सहमति
भावनात्मक संबल के विचार का दायरा थोड़ा और व्यापक करें, तो धर्म और अध्यात्म की भी काफी गुंजाइश दिखती है। दुनिया का हर धर्म कई असहमतियों के साथ ही दो विषयों पर तो एकमत दिखता ही है। पहला यह कि हर रात की देर-सबेर एक सुबह जरूर होती है और दूसरा यह कि गरीब और बेसहारा की सेवा ही मानवता की सच्ची सेवा है। कोरोना ने इन दोनों परिस्थितियों को सच कर दिखाने की असंख्य संभावनाओं को जन्म दिया है। इस मामले में समाज और सरकार के स्तर पर कई प्रशंसनीय पहल भी हुई हैं। केंद्र और कई राज्य सरकारें कोरोना से अनाथ हुए बच्चों की जिम्मेदारी उठाने की दिशा में आगे बढ़ी हैं। इसी तरह गरीबों के लिए मुफ्त अनाज की व्यवस्था को दिवाली तक बढ़ाने का मोदी सरकार का फैसला भी प्रशंसा के योग्य है।
हालांकि महामारी से उपजे डर और व्यग्रता के बीच कुछ अनावश्यक चर्चाओं ने भी जोर पकड़ा है। चर्चाएं भी ऐसी जिनका न कोई ओर है, न छोर और जिनकी शुरु आत के लिए कोरोना के खत्म होने का इंतजार कर लिया जाता तो कहीं बेहतर होता। सियासत के मंच पर मर्यादा का उल्लंघन तो आम बात है, लेकिन इस बार चिकित्सा का क्षेत्र इसकी चपेट में आया है। चर्चा एलोपैथ बनाम आयुर्वेद की है और दुर्भाग्य से इसमें ऐसे लोग लिप्त हैं, जिनसे कोरोना के आपातकाल में समाज को सुरक्षित रखने और सही राह दिखाने की जिम्मेदारी अपेक्षित है। अफसोस की बात यह भी है इस बहस में उस वैक्सीनेशन को भी नहीं बख्शा गया, जिसे वैिक  तौर पर कोरोना के खिलाफ सबसे बड़ा सुरक्षा कवच माना गया है। रही बात एलोपैथ या आयुर्वेद में ‘बड़ा कौन’ के सवाल की, तो शायद स्कूल के बच्चों से लेकर बड़े-से-बड़े जानकारों का भी यही जवाब होगा कि यह दोनों चिकित्सा की अलग-अलग पद्धतियां हैं, जिनका एक ही उद्देश्य है कि मरीज की बीमारी का उचित इलाज हो। इस मायने में एलोपैथ और आयुर्वेद एक-दूसरे की पूरक हैं, प्रतिद्वंद्वी नहीं। शुक्र है, समय रहते इस विवाद में समझदारी काम आई है और अब यह प्रकरण समाप्ति की ओर बढ़ता दिख रहा है।

संवैधानिक संस्थाओं में प्रतिद्वंद्विता
कुछ इसी तरह की प्रतिद्वंद्विता संवैधानिक संस्थाओं में भी देखने को मिल रही हैं। कोरोना से लड़ते-लड़ते ये संस्थाएं एक-दूसरे के खिलाफ भी मोर्चा खोल बैठी दिख रही हैं। महामारी से जुड़े विभिन्न मामलों में न्यायपालिका और कार्यपालिका आमने-सामने हैं, तो पक्ष-विपक्ष में सियासी खींचतान जारी है। इसी तरह केंद्र और राज्य सरकारों में संसाधन और उपचार को लेकर वार-पलटवार पर रोक नहीं लग पा रही है। भले ही यह टकराव पूरी तरह निर्थक न हो, लेकिन इससे जुड़े सभी पक्षों को समझना होगा कि जिस समय देश को महामारी से एक होकर लड़ने की जरूरत है, तब यह आपसी मतभेद एक राष्ट्र के रूप में हमारी शक्ति को कमजोर कर देगा।


सरहद पर बैठा चीन शायद ऐसे ही किसी मौके की ताक में है। कोरोना वायरस के उसके जैविक हथियार होने की जोर पकड़ती चर्चाएं भी इस आशंका को हवा दे रही हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अपनी खुफिया एजेंसियों को 90 दिनों में ‘सच’ पता करने का जो फरमान सुनाया है, उसके बाद चीन वैसे भी बौखलाया हुआ है। खुद पर चस्पां इस आरोप से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए वह भारत से नया टकराव शुरू कर सकता है। वैसे भी जब भारत कोरोना से लड़ रहा था, तब चीन ने मौके का फायदा उठा कर एलएसी के करीब अपनी सीमा में कई रणनीतिक निर्माण पूरे कर लिए, जिनसे जाहिर तौर पर भारत की सुरक्षा को चुनौती मिल रही है। देपसांग, गोगरा समेत सभी विवादित स्थलों से हटने के लिए बातचीत से उसकी आनाकानी पहले से ही कई सवालों को जन्म दे रही थी। अब पिछले कुछ दिनों से उसके 22 लड़ाकू विमानों के पूर्वी लद्दाख में सैन्य अभ्यास ने उन सवालों को और बड़ा कर दिया है। हालांकि भारतीय सेना ने भी चीन को अपनी तैयारियों का ट्रेलर दिखाते हुए एलएसी पर राफेल तैनात कर दिए हैं। जाहिर तौर पर यह सब करना सरकार की जिम्मेदारी है और सरकार अपनी जिम्मेदारियों को निभा भी रही है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार के सब फैसले हमेशा सटीक ही बैठ रहे हैं। कहीं चूक न हो रही होती तो यकीनन आज देश बेहतर हालत में होता। लेकिन इस सब में एक सवाल हमें खुद से भी पूछना चाहिए-हम क्या कर रहे हैं? एक नागरिक के तौर पर इसमें हमारी जिम्मेदारी की हिस्सेदारी भी कहीं से कम नहीं हो जाती। देश के कल्याण के लिए कोई भी सरकार अपने नागरिकों से दधीचि की तरह अस्थियों के बलिदान की अपेक्षा नहीं करती, लेकिन करोड़ों-करोड़ भारतवासी अगर थोड़ा भी योगदान करेंगे तो यह सहयोग कोरोना जैसे असुर के खिलाफ सरकार को वज्र जैसी शक्ति देने का काम जरूर कर सकता है।  

उपेन्द्र राय


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