लक्ष्य सरकार का, जिम्मेदारी हम सबकी

Last Updated 06 Jun 2021 12:13:56 AM IST

भारत सरकार ने 18 साल से ऊपर की उम्र वाली अपनी पूरी आबादी को इस साल के आखिर तक कोरोना टीका लगाने का लक्ष्य रखा है।


लक्ष्य सरकार का, जिम्मेदारी हम सबकी

इसके लिए जरूरी वैक्सीन की खुराक जुटाने का एक्शन प्लान सरकार पहले ही देश के साथ साझा कर चुकी है। अब सरकार ने इसे अमलीजामा पहनाने का रोडमैप भी तैयार कर लिया है। सरकार की सोच बेशक दुरुस्त है, लेकिन रोडमैप का नक्शा और सरकार की मंशा में तालमेल बैठाना आसान काम नहीं होगा। इसे लेकर सवाल अभी से उठने शुरू हो गए हैं। विपक्षी दलों के साथ ही सुप्रीम कोर्ट तक ने सरकार से इसका हिसाब-किताब मांग लिया है। सरकार को अगले दो हफ्तों में वैक्सीन खरीदने से लेकर उसे लगाने का खाका पेश करना है।

सरकार अदालत में जिस रूप में भी जानकारी पेश करे, लेकिन उसने जो लक्ष्य तय किया है, सामान्य स्वरूप में उसे पूरा करने के लिए टीकों की कुल 188 करोड़ खुराक की जरूरत पड़ेगी। सरकार अब तक 21 करोड़ टीके लगा चुकी है यानी बचे 167 करोड़। दिसम्बर की डेडलाइन का मतलब यह होगा कि अगले सात महीनों में वैक्सीन की 167 करोड़ डोज उसे लगानी पड़ेगी यानी जून से हर महीने 23.8 करोड़ डोज या रोज की करीब 80 लाख डोज। सरकार की योजना जुलाई से रोजाना एक करोड़ डोज लगाने की है।

इन आंकड़ों के बीच तीसरी लहर की आशंका और बच्चों पर मंडराते उसके संभावित खतरे को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर वयस्क नहीं, बल्कि देश की पूरी आबादी को टीका लगाने की नौबत आती है, तो हमें साल के आखिर तक 251 करोड़ खुराक की जरूरत पड़ सकती है यानी जून से हर महीने 35.9 करोड़ या रोज की एक करोड़ 20 लाख डोज।
ब्लूमबर्ग वैक्सीन ट्रैकर के हिसाब से दुनिया में 1.8 अरब लोगों को कोरोना का कोई-न-कोई टीका लग चुका है। इसमें हमारा भी अहम योगदान है क्योंकि भारत दुनिया में सबसे तेजी से 21 करोड़ टीके लगाने वाला देश है, लेकिन हमारे रोज के टीके लगाने की दर अधिकतम 38 लाख टीकों तक ही पहुंच पाई है। इस रफ्तार से तो हमारी पूरी वयस्क आबादी को ही अगले साल जुलाई तक टीका लग पाएगा, बच्चे फिर भी छूट जाएंगे, लेकिन सरकार ने जो लक्ष्य तय किया है, वो असंभव भी नहीं है। इसमें सबसे बड़ी बाधा टीकों की नियमित सप्लाई है। अगर इस बाधा को दूर कर लिया जाए तो दिसम्बर तक टीकाकरण का लक्ष्य पूरा भी किया जा सकता है।

पिछले कुछ महीनों का विश्लेषण किया जाए, तो जमीनी हकीकत और सामने खड़ी चुनौती का फर्क स्पष्ट होता है। एक अप्रैल तक भारत में वैक्सीन लगाने की दर पांच फीसद तक पहुंची थी यानी हम अपने प्रत्येक 100 नागरिकों में से पांच को वैक्सीन लगा पा रहे थे। चीन, ब्राजील, रूस जैसे देशों में भी तब यह दर 6.5 से 9.5 फीसद तक ही पहुंची थी, लेकिन पिछला महीना खत्म होने तक यह फासला काफी बढ़ चुका था। हमारी वैक्सीनेशन की दर 14 फीसद तक ही पहुंच पाई है, जबकि ब्राजील और चीन में यह 30 फीसद के स्तर को छू रही है। ब्रिटेन और अमेरिका में तो यह आंकड़ा क्रमश: 94 और 90 फीसद तक पहुंच चुका है।

ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इन देशों ने टीकाकरण की ऐसी ऊंची दर को हासिल करने के लिए ऐसा क्या किया जो भारत नहीं कर पाया। इसका जवाब बिल्कुल सीधा है। जब भारत समेत दुनिया के दूसरे देश इस महामारी से जूझ रहे थे, तब ये देश वैक्सीन के धड़ाध़ड़ ऑर्डर कर रहे थे। दिसम्बर, 2020 आते-आते अमेरिका ने अपनी लगभग पूरी आबादी के लिए वैक्सीन का इंतजाम कर लिया था। अब वहां 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को भी टीके लग रहे हैं। वैक्सीन का भंडारण इतना ज्यादा हो चुका है कि अमेरिका अब जरूरतमंद देशों को 20 करोड़ डोज देने की बात कर रहा है। यही कहानी वैक्सीन को मंजूरी देने वाले पहले देश ब्रिटेन की है। ब्रिटेन ने पिछले साल दिसम्बर में फाइजर और उसके अगले महीने एस्ट्राजेनेका और मॉडर्ना वैक्सीन को आपात इस्तेमाल में लाकर अपने टीकाकरण अभियान को जो गति दी, वो अब तक बरकरार है। फैक्टली की रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन 40 करोड़ खुराकों के ऑर्डर कर चुका है, जो उसकी जरूरत का तीन गुना हैं।

इस मामले में दुनिया में सबसे ज्यादा टीकाकरण कर चुके चीन की कहानी भले हमसे अलग हो, लेकिन उसकी चुनौतियां हमारी जैसी ही हैं। वहां भी टीके के असमान वितरण की समस्या रही, जिससे टीकाकरण का शुरुआती चरण बुरी तरह प्रभावित रहा, लेकिन अब उसने रफ्तार पकड़ ली है। एक अखबारी रिपोर्ट के अनुसार चीन ने अब तक अपने लोगों को 68 करोड़ डोज लगा दी हैं, जिनमें से आधी मई महीने में ही लगाई गई हैं। ऑनलाइन रिसर्च साइट ‘ऑवर र्वल्ड इन डेटा’ का भी अनुमान है कि वैश्विक टीकाकरण में चीन की हिस्सेदारी अब एक-तिहाई तक पहुंच गई है। चीन अब करीब एक करोड़ 90 लाख टीके रोज लगा रहा है। इसका बड़ा श्रेय वहां एकल-पार्टी व्यवस्था के तहत सत्ता संभाल रही कम्युनिस्ट पार्टी को दिया जा रहा है, जिसका अमला वहां के गांव-गांव तक फैला हुआ है। भले ही यह अमला निर्दयता की हद तक सख्ती से सरकार के आदेशों का पालन करवाने के लिए कुख्यात हो, लेकिन जमीनी स्तर पर टीकाकरण को गति देने में इसका अहम योगदान रहा है। हालांकि, तमाम कोशिशों के बावजूद बेहद बड़ी जनसंख्या का दबाव भारत की तरह चीन पर भी दिख रहा है। इसके बावजूद भारत सरकार जहां साल के आखिर तक अपनी 100 फीसद वयस्क आबादी के टीकाकरण का हौसला दिखा रही है, वहीं चीन ने इसी अंतराल में 80 फीसद जनसंख्या को ही टीका लगाने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

चीन की ही तरह हमारे गांव भी हमारे लक्ष्य की सफलता की धुरी साबित होंगे, लेकिन लाखों गांव वाले देश में टीकाकरण आसान चुनौती नहीं होगा। जमीनी स्तर की व्यवस्था के साथ ही इसका एक बड़ा आर्थिक पक्ष भी है। क्या यह संभव नहीं कि अगर गांव-गांव तक मुफ्त में टीके पहुंचाने की कोई समस्या टीकाकरण के आड़े आए, तो सरकार इस पर सब्सिडी देने पर विचार करे, जैसे उज्ज्वला या प्रधानमंत्री आवास योजना में हुआ है। अगर वैक्सीन की हर डोज 50 रु पये भी तय होती है, तो मनरेगा के दौर में यह आर्थिक भार भी शायद उस बोझ से काफी हल्का होगा जो कोरोना काल में ग्रामीणों को अपने परिवार के सदस्यों की सुरक्षा की चिंता को लेकर सता रहा होगा। हालात सामान्य होने और अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के बाद सरकार इस राशि को ग्रामीणों को वापस लौटाने की संभावना के द्वार भी खोल कर रख सकती है। आखिर, इस हकीकत को कैसे भुलाया जा सकता है कि गांवों में ही देश की आत्मा बसती है और अगर आत्मा ही सुरक्षित नहीं रहती है, तो देश कैसे सुरक्षित रहेगा?

उपेन्द्र राय


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