संवाद बनेगा ’खुशहाली‘ की बुनियाद
केंद्र की मोदी सरकार भारत की खेती और देश के किसानों के लिए पांच दिसम्बर की तारीख को सही मायनों में ऐतिहासिक बना सकती है। नये कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों से आज सरकार की पांचवें दौर की मुलाकात होनी है। अगर आज बात बन जाती है, तो किसानों के लिए तो यह बड़ी राहत होगी ही, देश और सरकार के सिर पर आई आफत भी टल जाएगी।
संवाद बनेगा ’खुशहाली‘ की बुनियाद |
गुरु वार को चौथे दौर की बातचीत में जिस तरह का सहयोगी और लचीला रु ख देखने को मिला, वह इस बात का परिचायक है कि किसानों की मांग पर सरकार संजीदगी और पूरी जिम्मेदारी से गौर कर रही है। कुछ मांगों पर तो सरकार ने किसानों की मंशा के अनुरूप बदलाव के स्पष्ट संकेत भी दिए हैं, लेकिन खेतों में लौटने से पहले किसान यह सुनिश्चित कर लेना चाहते हैं कि एमएसपी को वैधानिक बनाने के साथ ही सरकार तीनों नये कृषि कानूनों को भी वापस ले ले।
वैसे तो एमएसपी का मसला किसानों की देशव्यापी चिंता है, लेकिन पंजाब और हरियाणा का किसान इस पर ज्यादा मुखर है। एमएसपी को लेकर हर साल भले ही बहुत शोर मचता हो, लेकिन हकीकत यही है कि हमारे देश में केवल छह फीसद किसान इसका फायदा ले पाते हैं। देश के गोदाम भरने वाले पंजाब और हरियाणा के किसान यहां भी सबसे आगे हैं। साल 2016 की नीति आयोग की रिपोर्ट बताती है कि पंजाब का हरेक किसान एमएसपी पर ही फसल बेचता है यानी छह फीसद राष्ट्रीय औसत में पंजाब की हिस्सेदारी 100 फीसद की है। रबी सीजन में गेहूं पर एमएसपी का लाभ लेने वाले 42 फीसद से ज्यादा किसान केवल पंजाब और हरियाणा से थे। खरीफ सीजन में भी यह आंकड़ा 25 फीसद से ज्यादा रहा। मंडियों को लेकर भी सूरतेहाल इसी तरह के हैं। पंजाब में 1,800 से ज्यादा मंडियां हैं और ऐसी व्यवस्था देश में तो क्या, दुनिया में भी शायद ही कहीं हो। जब किसान अपना गेहूं बेचने इन मंडियों में पहुंचता है, तो उससे तीन फीसद बाजार शुल्क और तीन फीसद ग्रामीण विकास शुल्क वसूला जाता है यानी कुल छह फीसद। धान के मामले में भी यह चार से छह फीसद के बीच है। किसानों की संख्या और शुल्क की मात्रा का गुणा अच्छे खासे राजस्व में बदल जाता है। नये कानून में इस पर लगाम लग जाएगी। मंडी के कारोबारियों और आढ़तियों को यह बात समझ आ गई है कि जब मंडी के बाहर बिना शुल्क के कारोबार होगा, तो किसान अपनी फसल बेचने मंडियों में क्यों आएंगे? किसानों के आंदोलन को सामने खड़े अस्तित्व के इस संकट से आढ़तिए भी काफी हद तक तड़का लगा रहे हैं।
सवाल भविष्य का है
कल क्या होगा, यह आज तय कर लेना गलत भी हो सकता है, मगर सवाल चूंकि भविष्य का है, तो किसानों की चिंता को खारिज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन सरकार के सामने भी व्यावहारिक संकट है। एमएसपी को लेकर फंसे पेंच की एक वजह तो यह समझ आती है कि इसके लिए बजट का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित करना होगा, जिससे सरकार पर बड़ा आर्थिक दबाव बन सकता है। अभी फिलहाल 23 फसलों पर एमएसपी दी जाती है। मौजूदा रेट के हिसाब से सरकार सभी फसलें खरीदती है, तो विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसका खर्च 17 लाख करोड़ रु पये तक पहुंच सकता है। खाद और खाद्य सब्सिडी के दो लाख करोड़ रु पये अलग से यानी सब मिलाकर करीब 19 लाख करोड़ रु पये का अतिरिक्त खर्च। इसकी भरपाई कहां से होगी? टैक्स बढ़ाकर? वो भी किया तो मामूली बढ़ोतरी काम नहीं करेगी, कम-से-कम तीन गुना तक टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। अगर ऐसा हुआ तो इसका निवेश से लेकर निर्यात तक पर नकारात्मक असर दिख सकता है। निजी कारोबारियों पर एमएसपी पर खरीद की सख्ती बढ़ेगी, तो वो भी अंतरराष्ट्रीय बाजार में भाव गिरने पर आयात करना शुरू कर सकते हैं, जिससे घरेलू बाजार में उथल-पुथल मच सकती है। तीसरी समस्या भंडारण की है। सरकार सारी फसल खरीद लेगी, तो रखेगी कहां? एमएसपी को लेकर फसल की क्वालिटी भी अक्सर मंडियों में विवाद की वजह बनती है। सबसे पहले यह बात भी समझनी होगी कि जब तक हमारे यहां पीडीएस की व्यवस्था रहेगी, तब तक सरकार को किसान से अनाज खरीदना ही पड़ेगा और यह खरीद एमएसपी पर ही होगी। इसलिए हो सकता है कि नये कानून से एमएसपी के खत्म हो जाने का डर ‘गांव में बार-बार सियार’ आने वाली अफवाह साबित हो।
क्या बचा है रास्ता?
बहरहाल, सरकार के पास अब क्या रास्ता बचता है? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर तक कह चुके हैं कि एमएसपी को छुआ भी नहीं जाएगा, लेकिन किसान कानून खत्म करने के लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर रहे हैं। एमएसपी को लेकर जिस तरह का गतिरोध बन गया है, वो दरअसल नजरिए का फर्क है। किसान अपने आज के उत्पादन के मूल्य की गारंटी चाहता है, जबकि सरकार का इरादा भविष्य में फसल के बेहतर मूल्य के लिए सुधार लाने का है। बीच का रास्ता वह हो सकता है जिस पर मध्य प्रदेश सरकार चल रही है। भावांतर योजना के तहत मध्य प्रदेश सरकार किसानों को फसल के बाजार भाव और एमएसपी के बीच के अंतर का भुगतान करती है। हालांकि इस योजना में भी जमीनी दिक्कतें हैं, लेकिन मध्य प्रदेश के अनुभव से केंद्र इसे दूर कर व्यावहारिक बना सकता है। मध्य प्रदेश में वैसे भी बीजेपी की ही सरकार है और कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर भी उसी राज्य से चुन कर संसद में आते हैं। दूसरी बड़ी चिंता मंडियों के खत्म हो जाने को लेकर है। यहां सरकार कानून के जरिए यह सुनिश्चित कर सकती है कि सरकारी खरीद तो अनिवार्य रूप से मंडियों से ही की जाए, जबकि निजी खरीद के लिए खुले बाजार का विकल्प भी इसमें जोड़ दिया जाए, ताकि बेहतर विकल्प चुनने के किसानों के अधिकार में आढ़तियों से लेकर कॉरपोरेट तक किसी तरह का अतिक्रमण न कर सकें।
किसान आंदोलन के पिछले दस दिनों का निचोड़ भी यही दिखाता है। किसान अपने उन अधिकारों की बहाली को लेकर सरकार से भरोसा मांग रहे हैं, जो लगता है कि नये कानून आने के बाद से हिल गया है। इस लिहाज से किसानों से बातचीत शुरू करने की गृह मंत्री अमित शाह की पहल स्वागत योग्य होने के साथ ही यह भी बताती है कि सरकार न केवल किसानों की समस्याओं को लेकर संजीदा है, बल्कि इस मुद्दे पर उसने विपक्ष की तमाम गैर-वाजिब बातों के बीच सकारात्मक आलोचना को भी गंभीरता से लिया है। अमित शाह की वह पहल अब चार दौर की बातचीत की बुनियाद बन चुकी है। बेशक, इन वार्ताओं से अभी अंतिम हल न निकला हो, लेकिन इन्हें बेनतीजा कहकर खारिज करना भी ठीक नहीं होगा। दोनों पक्षों में संवाद की प्रक्रिया का शुरू होना और बरकरार रहना छोटी कामयाबी नहीं, बल्कि आज पांचवें दौर की बातचीत से जुड़ी सुनहरी उम्मीदों का सबसे बड़ा संबल है। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह संबल अन्नदाताओं की समस्याओं का हल भी साबित होगा।
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