छोटा चुनाव, बड़ा संदेश

Last Updated 06 Dec 2020 12:20:47 AM IST

नगर निकाय चुनावों को परंपरागत रूप से बुनियादी मुद्दों पर स्थानीय जनता का फैसला माना जाता है।


छोटा चुनाव, बड़ा संदेश

आम तौर पर इसका राज्य या देश तो दूर, संबंधित जिले की राजनीति से भी कोई खास सरोकार जोड़कर नहीं देखा जाता। इस लिहाज से ग्रेटर हैदराबाद नगर निकाय के चुनाव अनूठे कहे जा सकते हैं, क्योंकि इसने एक तरफ पारंपरिक सोच को तोड़ा है, तो दूसरी तरफ सियासी सरोकारों में नई परिभाषा को जोड़ा है।

असदुद्दीन ओवैसी के गढ़ में बीजेपी ने 48 वार्ड जीतकर उनकी पार्टी एआईएमआईएम को तीसरे नंबर पर धकेल दिया है। के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस 55 वार्ड में जीत के साथ पहले नंबर पर काबिज रही, जबकि ओवैसी को 44 वार्ड की जनता का साथ मिला। चार साल पहले 2016 के चुनाव में टीआरएस ने 99 और एआईएमआईएम ने 44 वार्ड जीते थे। तब बीजेपी बड़ी मुश्किल से चार वार्ड में ही जीत पाई थी।

इस बदलाव में तीन-चार ऐसी बड़ी बातें हुई हैं, जिन्हें लेकर यह अनुमान है कि इसके बाद हैदराबाद ही नहीं, बल्कि तेलंगाना समेत दूसरे राज्यों और देश की राजनीति भी बदल सकती है। पहला तो यह कि चार से 48 वार्ड का सफर तय कर क्या बीजेपी ने दक्षिण में अपने लिए एक नई मंजिल का रास्ता खोल लिया है। बीजेपी के लिए भारत की सियासत बरसों से दो ध्रुवों में बंटी दिखी है। उत्तर भारत के हिंदी बेल्ट में जहां उसका खासा प्रभाव दिखता है, वहीं कर्नाटक को छोड़कर शेष दक्षिण राज्य सदैव से उसके साथ ‘परदेसियों’ जैसा बर्ताव करते रहे हैं। अपने गठन के चौथे दशक में भी बीजेपी का केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बेहद मामूली प्रभाव है और यहां जो जीत मिलती रही है, वो स्थानीय दलों के साथ गठबंधन के बूते मिलती रही है। लेकिन इस बार बीजेपी ने अपने बूते कुछ करने की ठानी, चुनाव को प्रतिष्ठा की लड़ाई बनाया और एक निकाय चुनाव में गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत कई बड़े नेताओं की फौज उतार दी। नतीजा सामने है- तेलंगाना में सत्ता भले ही अभी बीजेपी से दूर रही, लेकिन यह जीत मुख्य विपक्षी दल का ओहदा हासिल करने की उम्मीद जरूर बन सकती है। तेलंगाना में चंद्रशेखर राव और ओवैसी का गठजोड़ कोई राज नहीं है। नया राज्य बनने के बाद चंद्रबाबू की प्रासंगिकता हाशिये पर जा चुकी है, बची कांग्रेस तो बाकी देश की तरह उसका तेलंगाना में भी बुरा हाल है। 2014 में जब तेलंगाना बना, तो कांग्रेस को उम्मीद थी कि नया राज्य बनाने का उसे फायदा मिलेगा, लेकिन जीत का इनाम टीआरएस ले उड़ी। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस भी बीजेपी की ही तरह 21 विधानसभा क्षेत्र में आगे रही, लेकिन इसे 2018 के विधानसभा चुनाव से जोड़ें, तो बीजेपी ने 20 नई सीटों पर बढ़त बनाई, जबकि कांग्रेस केवल दो नई सीटें पर आगे निकल पाई।

नगर निकाय चुनाव में भी प्रचार पूरी तरह से बीजेपी और ओवैसी पर ही केन्द्रित दिखा। इस लिहाज से टीआरएस का हाल भी कांग्रेस जैसा रहा। टीआरएस भले सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी, लेकिन 99 से गिरकर 55 पर अटकना उसके लिए बड़ा झटका है। नगर निकाय की सत्ता के लिए चंद्रशेखर राव को अब प्रत्यक्ष रूप से ओवैसी के भरोसे रहना होगा।

चार साल पहले एआईएमआईएम की जीत का आंकड़ा 44 था, जो इस बार भी बरकरार रहा। बीजेपी की आंधी भी ओवैसी को अपनी जमीन से नहीं हिला सकी है और यही इस चुनाव की दूसरी बड़ी बात है। बेशक ओवैसी की जीत को मुस्लिम बहुल इलाकों तक सीमित बताकर तवज्जो के तराजू में उनकी हैसियत को कितना भी कमतर किया जाए, लेकिन अगर यह सच भी है, तो फिर यह मानने में भी गुरेज नहीं करना चाहिए कि ओवैसी इस देश में मुसलमानों की नई उम्मीद बन चुके हैं। पिछले साल विधानसभा चुनाव में दो सीट जीतकर ओवैसी महाराष्ट्र में पहले ही घुसपैठ कर चुके हैं। बिहार में तो महागठबंधन के खेमे में जा रही सत्ता दोबारा एनडीए के पास लौटी तो उसकी वजह भी ओवैसी ही रहे। एआईएमआईएम ने पांच सीटें तो जीती हीं, सीमांचल की कम-से-कम 15 सीटों पर महागठबंधन की हार तय करने का काम किया। इनमें से कुछ सीटें तो ऐसी थीं, जो पिछले डेढ़ दशक से आरजेडी और कांग्रेस की ‘वफादार’ थीं।

इस जीत के बाद ही ओवैसी का बिहार से एक और कनेक्शन जोड़ कर देखा जा रहा है, जो दरअसल हैदराबाद के नतीजों की दूसरी बड़ी बात को आधार भी देता है। ओवैसी अब बिहार के बड़े मुस्लिम नेता रहे शहाबुद्दीन की जगह को भरते दिख रहे हैं, जो नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल के बाद से खाली पड़ी है। सीएए-एनआरसी पर ओवैसी की तकरीरें देश भर के मुसलमानों को उनके करीब लाती हैं। उन्हें भी जो अब तक ‘सेक्यूलर’ दलों की छतछ्राया में खुद को सुरक्षित महसूस करते रहे हैं। चुनाव-दर-चुनाव ओवैसी के बढ़ते कदम बता रहे हैं कि बड़ी तादाद में अब ऐसे मुसलमानों की राहें भी ओवैसी की ओर मुड़ चुकी हैं।

तो क्या ओवैसी अपने मजबूत मुस्लिम वोट बैंक के साथ देश की राजनीति में प्रमुख विपक्ष बनने की राह पर भी हैं, जो हैदराबाद चुनाव से निकली तीसरी बड़ी बात का इशारा है। बेशक अभी यह दावा जल्दबाजी हो, लेकिन इसकी परीक्षा के लिए हमें ज्यादा इंतजार नहीं करना होगा। अगले साल पश्चिम बंगाल के चुनाव में इसका मजबूत संकेत मिल भी जाएगा। पश्चिम बंगाल में करीब 30 फीसद मुस्लिम वोटर हैं, जो अब तक ममता की सबसे बड़ी ताकत साबित होते आए हैं। बेशक इस चुनाव में राज्य भर के वोटर तृणमूल पर ‘ममता’ दिखाना नहीं छोड़ेंगे, लेकिन बिहार के नतीजों के बाद सीमांचल से जुड़े पश्चिम बंगाल के इलाकों में पाला बदलने का खतरा तो बढ़ ही गया है।

पश्चिम बंगाल में ओवैसी ने ममता बनर्जी को हाथ मिलाने का पैगाम भी दिया था, लेकिन ममता ने फिलहाल उसे ठुकरा दिया है। नगर निकाय चुनाव में ओवैसी की इसी तरह की पेशकश पर टीआरएस का रु ख भी ऐसा ही रहा था। ममता हो या टीआरएस, साथ आने की पेशकश रखकर ओवैसी दरअसल देश को यह संदेश दे रहे हैं कि वो बीजेपी को टक्कर देने वाली ताकत बनना चाहते हैं। आने वाले दिनों में ओवैसी उत्तर प्रदेश में यही दांव एसपी-बीएसपी पर आजमा सकते हैं, जो अब तक मुख्य विपक्षी दल का दर्जा रखने वाली कांग्रेस को और कमजोर कर सकता है।

हैदराबाद चुनाव की चौथी बड़ी बात यह निकलकर आती है कि ओवैसी की दौड़ जितनी लंबी होगी, बीजेपी का ‘सियासी अमेध’ भी उतना ही मजबूत होता जाएगा। दरअसल, अपनी सियासी जमीन बढ़ाने के लिए ओवैसी हर नए राज्य में उस दल से हाथ मिलाना चाहेंगे, जो बीजेपी के खिलाफ हो। अगर यह रणनीति कामयाब होती है, तो ध्रुवीकरण का सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा। और अगर गठबंधन का दांव काम नहीं करता है, तो भी बीजेपी को इस लिहाज से फायदा होगा कि क्षेत्रीय दलों का मुस्लिम वोट बैंक ओवैसी के साथ जा सकता है, जिससे किसी भी बाकी दल के लिए जीत आसान नहीं रह जाएगी। हैदराबाद में नगर निकाय चुनाव में जो टीआरएस के साथ हुआ, वो दरअसल आने वाले दिनों में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में बाकी क्षेत्रीय दलों के साथ भी हो सकता है।

सियासत का यह ट्रेंड बेशक कुछ दलों के लिए कारगर हो, लेकिन क्या यही बात देश के लिए कही जा सकती है? समाज के दो तबकों की विचारधारा की सियासी जंग कहीं लोकतंत्र के लिए खतरा तो नहीं है? क्या यह तथाकथित ‘सेक्युलर’ दलों के लिए ठहरकर अपनी नीतियों को दुरु स्त करने का वक्त नहीं है? इतने सवालों में एक सवाल और जोड़ लेने में कोई हर्ज नहीं कि क्या आप अब भी हैदराबाद निकाय के चुनाव को छोटा चुनाव कहकर खारिज कर सकते हैं?

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment