महाराष्ट्र : भाषा विवाद के मायने
मलाही भाषा येत नाही। भाषा संवाद के लिए होती है, झगड़े उपद्रव के लिए नहीं।झगड़े उपद्रव के लिए लट्ठबाजी, गोलीबारी होती है। गले लगा लो तो बिना भाषा के भी संवाद हो जाता है।
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राष्ट्र में महाराष्ट्र का होना गौरव और गरिमा की बात है। महाराष्ट्र की उत्कृष्ट सभ्यता संस्कृति है। इसे क्षुद्र स्तर पर न ले आने के लिए हम सजग सावधान रहें तो इसकी सभ्यता-संस्कृति पूरे विश्व में जगमगाती रहेगी। मराठी-गुजराती-हिन्दी-अंग्रेजी की यहां सब नदियां एक ही महासागर से जुडी हैं। इसलिए यहां संकीर्णता नहीं, उदारता ही प्रवाहमान होती है। सभ्यता-संस्कृति का दीप-स्तंभ बनती है। यह कहना है स्वामी चैतन्य कीर्ति का।
इस विषय में ओशो क्या कहते हैं : ‘एक मित्र ने पूछा है कि क्या भारत में कोई राष्ट्र भाषा होनी चाहिए? यदि हां, तो कौन सी? राष्ट्र भाषा का सवाल ही भारत में बुनियादी रूप से गलत है। भारत में इतनी भाषाएं हैं कि राष्ट्र भाषा सिर्फ लादी जा सकती है, और जिन भाषाओं पर लादी जाएगी उनके साथ अन्याय होगा। भारत में राष्ट्र भाषा की कोई भी जरूरत नहीं है। भारत में बहुत-सी राष्ट्रभाषाएं ही होंगी और आज कोई कठिनाई भी नहीं है कि राष्ट्र भाषा जरूरी हो। रूस बिना राष्ट्र भाषा के काम चलाता है, तो हम क्यों नहीं चला सकते? आज तो यांत्रिक व्यवस्था हो सकती है संसद में, बहुत थोड़े खर्च से, जिसके द्वारा एक भाषा सभी भाषाओं में अनुवादित हो जाए, लेकिन राष्ट्र भाषा का मोह बहुत महंगा पड़ रहा है।
भारत की प्रत्येक भाषा राष्ट्र भाषा होने में समर्थ है। इसलिए कोई भी भाषा अपना अधिकार छोड़ने को राजी नहीं होगी, होना भी नहीं चाहिए। लेकिन यदि हमने जबरदस्ती किसी भाषा को राष्ट्र भाषा बना कर थोपने की कोशिश की तो देश खंड-खंड हो जाएगा। आज देश के बीच विभाजन के जो बुनियादी कारण हैं, उनमें भाषा एक है। राष्ट्र भाषा बनाने का खयाल ही राष्ट्र को खंड-खंड में तोड़ने का कारण बनेगा। अगर राष्ट्र को बचाना हो तो राष्ट्र भाषा से बचना पड़ेगा और अगर राष्ट्र को मिटाना हो तो राष्ट्र भाषा की बात आगे भी जारी रखी जा सकती है। मेरी दृष्टि में भारत में जितनी भाषाएं बोली जाती हैं, सब राष्ट्र भाषाएं हैं, उनको समान आदर उपलब्ध होना चाहिए। किसी एक भाषा का साम्राज्य दूसरी भाषा पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, वह भाषा चाहे हिन्दी हो और चाहे कोई और हो।
कोई कारण नहीं है कि तमिल, तेलुगू, बंगाली या गुजराती को हिन्दी दबाए। लेकिन गांधी जी के कारण जो कुछ बीमारियां इस देश में छूटीं, उनमें एक बीमारी हिन्दी को राष्ट्र भाषा का वहम देने की भी है। हिन्दी को यह अहंकार गांधी जी दे गए कि वह राष्ट्र भाषा है तो हिन्दी प्रांत उस अहंकार से परेशान हैं, और वे अपनी भाषा को पूरे देश पर थोपने की कोशिश में लगे हुए हैं। हिन्दी का साम्राज्य भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है, तो किसी भाषा का नहीं किया जा सकता। सिर्फ संसद में हमें यांत्रिक व्यवस्था करनी चाहिए कि सारी भाषाएं अनुवादित हो सकें। और वैसे भी संसद कोई काम तो कोई करती नहीं है कि कोई अड़चन हो जाएगी। सालों तक एक-एक बात पर चर्चा चलती है, थोड़ी देर और चल लेगी तो कोई फर्क नहीं होने वाला है। संसद कुछ करती हो तो भी विचार होता कि कहीं कार्य में बाधा न पड़ जाए। कार्य में कोई बाधा पड़ने वाली नहीं मालूम होती। फिर मेरी दृष्टि यह भी है कि यदि हम राष्ट्र भाषा को थोपने का उपाय न करें तो शायद बीस- पच्चीस वर्षो में कोई एक भाषा विकसित हो और धीरे-धीरे राष्ट्र के प्राणों को घेर ले। वह भाषा हिन्दी नहीं होगी, वह भाषा हिन्दुस्तानी होगी। उसमें तमिल के शब्द भी होंगे, तेलुगू के भी, अंग्रेजी के भी, गुजराती के भी, मराठी के भी। वह एक मिश्रित नई भाषा होगी जो धीरे-धीरे भारत के जीवन में से विकसित हो जाएगी। लेकिन, अगर कोई शुद्धतावादी चाहता हो कि शुद्ध हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाना है, तो यह सब पागलपन की बात है। इससे कुछ हित नहीं हो सकता।’ यह तो थी ओशो की सोच।
महाराष्ट्र, एक ऐसा राज्य है जो अपनी सांस्कृतिक समृद्धि और मराठी भाषा के लिए जाना जाता है, आज भाषा विवाद के कारण चर्चा में है। मराठी, जो इस राज्य की आत्मा है, न केवल एक भाषा है, बल्कि महाराष्ट्र की पहचान, इतिहास और गौरव का प्रतीक भी है। हाल के वर्षो में मराठी भाषा के उपयोग और सम्मान को लेकर कई विवाद सामने आए हैं, जो सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर तनाव का कारण बन रहे हैं। महाराष्ट्र में मराठी को प्राथमिकता देने की मांग लंबे समय से चली आ रही है। विशेष रूप से मुंबई जैसे महानगरों में, जहां विविधता अपनी चरम सीमा पर है, मराठी भाषा को कई बार उपेक्षित महसूस किया जाता है। गैर-मराठी भाषी समुदायों की उपस्थिति और वैीकरण के प्रभाव ने मराठी के उपयोग को कुछ हद तक सीमित किया है। यह स्थिति स्थानीय लोगों में असंतोष को जन्म देती है, जो अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति, साहित्य और परंपराओं की वाहक भी है। मराठी साहित्य में संत ज्ञानेर से लेकर आधुनिक लेखकों तक का योगदान शामिल है, जो विश्व स्तर पर अपनी गहराई के लिए जाना जाता है। फिर भी, सरकारी कार्यालयों, शिक्षण संस्थानों और सार्वजनिक स्थानों पर मराठी के उपयोग में कमी देखी जा रही है।
यह स्थिति मराठी भाषी समुदाय के लिए चिंता का विषय है। राज्य सरकार ने मराठी को अनिवार्य करने के लिए कुछ कदम उठाए हैं, जैसे स्कूलों में मराठी पढ़ाई को बढ़ावा देना और सरकारी कार्य में इसका उपयोग सुनिश्चित करना। लेकिन इन प्रयासों को और प्रभावी करने की आवश्यकता है। साथ ही, मराठी के प्रति सम्मान को बढ़ावा देने के लिए सामाजिक जागरूकता भी जरूरी है। गैर-मराठी भाषी लोगों को भी मराठी सीखने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि सामाजिक एकता मजबूत हो। मराठी भाषा या देश की अन्य भाषा का संरक्षण केवल एक राज्य की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह हमारी साझा सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। विवादों को सुलझाने के लिए संवाद और सहयोग जरूरी है। मराठी और अन्य भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलाने के लिए हमें एकजुट होकर प्रयास करना होगा ताकि सभी भाषाएं अपनी गरिमा और गौरव के साथ फलती-फूलती रहें।
(लेख में विचार निजी हैं)
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