सड़क पर किसान, सियासत का घमासान

Last Updated 29 Nov 2020 02:48:29 AM IST

देश का किसान एक बार फिर सड़कों पर है। कुछ नए कृषि कानूनों को लेकर वाजिब सवालों की वजह से और कुछ बेजा सियासी आरोपों के कारण।


सड़क पर किसान, सियासत का घमासान

खेत-खलिहान छोड़कर सड़क पर उतरे किसान खास तौर पर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के हैं, जो राशन-पानी, पेट्रोल-डीजल के ड्रम और आटा-चक्की तक लेकर दिल्ली पहुंच गए हैं। इशारा इस बात की ओर है कि लड़ाई लंबी भी खिंच जाए, तो मोर्चे से पीछे ना हटना पड़े। किसानों को रोकने के लिए पुलिस वाटर कैनन और आंसू गैस का इस्तेमाल कर रही है, तो बदले में किसान लाठी-डंडों से पुलिस को धमका रहे हैं। किसान जगह-जगह धरने पर बैठ गए हैं और कहने की जरूरत नहीं कि इससे आम जन-जीवन प्रभावित हो रहा है। लेकिन यह स्थिति अपवाद नहीं है, क्योंकि हर धरने में ऐसे ही हालात बनते हैं। इसी तरह ऐसे गंभीर प्रदर्शनों को हाईजैक करने की सियासत भी बरकरार दिख रही है। किसानों को कई सियासी दलों का समर्थन मिल रहा है, लेकिन ये दल अपने बयानों से समस्या को सुलझाने के बजाय और उलझाते जा रहे हैं। इसकी वजह यह हो सकती है कि पंजाब में करीब एक साल बाद चुनाव हैं और कोई सियासी दल किसानों के विरोधी खेमे में नहीं दिखना चाहता।

विपक्ष कह रहा है कि नए कानून आने के बाद किसानों के पास दिल्ली कूच करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था, जबकि सरकार की दलील है कि नए कानून किसानों की आय दोगुनी करने के उसके महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य की ओर बढ़ाया गया मजबूत कदम है और इस पर किसानों को ढाल बनाकर विपक्ष केवल सियासी रोटी सेंक रहा है। विपक्ष का सरकार पर हमला सियासी परम्परा भी मान लिया जाए तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के कृषि सेक्टर में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत को साल 2014 में अपने पहले कार्यकाल में ही भांप लिया था। कृषि क्षेत्र की बेहतरी के लिए सरकार के प्रयासों का परीक्षण किया जाए, तो यह तीनों कानून उसी सिलसिले की कड़ी दिखते हैं। खास तौर पर कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) कानून, जो किसानों को बिचौलियों के कुचक्र से निकालकर अपनी मर्जी से फसल बेचने की आजादी देता है। वाकई यह तथ्य हैरानी भरा है कि देश को आजाद हुए 70 साल से ज्यादा का समय बीत गया, लेकिन हमारा किसान आज भी मंडियों का गुलाम बना हुआ है। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया को शुरू हुए तीन दशक से ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन देश का किसान अभी तक ऐसा इकलौता उत्पादक बना हुआ है, जिसे अपनी उपज को केवल स्थानीय मंडियों में बेचने के लिए मजबूर किया जाता रहा है। नए कानून से किसान अब अपनी फसल को देश में कहीं भी, और सबसे महत्त्वपूर्ण अपनी मर्जी से किसी को भी बेच सकेंगे।

इसी तरह बाकी दोनों कानूनों में भी एक किसानों को व्यापारियों, निर्यातकों और कंपनियों से सीधे जोड़ेगा और दूसरा भंडारण और प्रसंस्करण की क्षमता बढ़ाएगा, जिससे किसानों का भविष्य सुखद बनने की उम्मीद जगती है। इस लिहाज से तो तीनों ही कानून किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में उठाए गए क्रांतिकारी कदम दिखते हैं। सबसे खास बात सरकार का यह दावा है कि इन कानूनों के तहत भी न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली व्यवस्था जारी रहेगी। सरकार हर साल 23 फसलों पर एमएसपी घोषित करती है। किसान इस मोर्चे पर अपनी चिंताओं से पूरी तरह मुक्त हो जाने के लिए एमएसपी को भी कानून के तहत लाने की मांग कर रहे हैं। किसानों को गलत भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सरकार भी यह जानती होगी कि उसका कोई भी बयान कानून में एमएसपी की गारंटी की बराबरी का विकल्प नहीं हो सकता। सरकार और किसानों के बीच जब भी सीधे संवाद के हालात बनेंगे, तब ही दूध का दूध और पानी का पानी होने की उम्मीद की जा सकती है। वैसे सरकार ने रबी की बुआई से पहले हाल ही में छह फसलों का एमएसपी घोषित कर किसानों का भरोसा बनाए रखने वाला काम किया है। इनमें गेहूं का एमएसपी लागत मूल्य से 106 फीसद ज्यादा रखा गया है, जबकि चना, मसूर, जौ और सरसों के लिए भी 50 से 93 फीसद ज्यादा एमएसपी घोषित किया गया है।   

वैसे, आंकड़े बताते हैं कि पिछली यूपीए सरकार के मुकाबले एनडीए के मौजूदा दौर में स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट पर ज्यादा काम हुआ है। पिछले छह साल में देश के किसानों को एक लाख करोड़ रु पए से ज्यादा एमएसपी दिया गया है जो एक रिकॉर्ड है। इसी तरह किसानों को ऋण देने के मामले में भी मोदी सरकार ने खजाना खोलने में कंजूसी नहीं दिखाई है। यूपीए ने जहां किसानों को 20 लाख करोड़ का ऋण दिया, वहीं मौजूदा सरकार 35 लाख करोड़ से ज्यादा का ऋण दे चुकी है। सरकार का दावा है कि किसानों को बेहतर जीवन की गारंटी देना उसका मिशन है और देश में एमएसपी भी रहेगी और किसानों को कहीं भी फसल बेचने की आजादी मिलने वाला प्रधानमंत्री मोदी का बयान इसी मंशा की अभिव्यक्ति दिखता है।
 नए कानूनों से किसानों को नहीं, बल्कि कॉरपोरेट को फायदा पहुंचाने की बात भी नजरिए के फर्क वाला मामला लगता है। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सरकार ने देश के फसल चक्र को कॉरपोरेट के पास गिरवी रख दिया है और अब खेत में क्या उगाना है, इसका अधिकार किसान के पास नहीं, बल्कि कॉरपोरेट के पास चला गया है। इससे भविष्य की उपज देश की जरूरत के बजाय कॉरपोरेट के फायदे से तय होगी। दूसरी ओर सरकार की दलील है कि किसानों के हित कहीं से प्रभावित नहीं होंगे और नया बदलाव ‘फार्म टू फोर्क’ व्यवस्था को बढ़ावा देगा। गांवों में निजी निवेश पहुंचेगा, तो बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी जिससे किसानों को सीधा फायदा मिलेगा। साथ ही जब सप्लाई चेन छोटी होगी, तो किसानों के साथ ही आम उपभोक्ता को भी महंगाई से राहत मिलेगी।

सबसे ज्यादा राहत छोटे किसानों को मिलेगी, जिन्हें अब तक छोटी जोत होने की वजह से बड़े निवेशक नहीं मिलते और उपज इतनी कम होती है कि उसे मंडियों तक ले जाना फायदे का सौदा नहीं होता। बिचौलिए इसी मजबूरी का फायदा उठाकर दशकों से छोटे किसानों का शोषण करते आए हैं। गांव तक निवेश पहुंचने से ऐसे किसानों के लिए उत्पादन से निर्यात तक के रास्ते आसान हो सकेंगे। यहां यह बात याद रखनी होगी कि देश के कुल किसानों में से 86 फीसद इसी लघु और सीमांत श्रेणी में ही आते हैं। केवल इसी एक आंकड़े को देख लें तो यह बात साफ हो जाती है कि नए कानून को लेकर हो रहा घमासान कितना बेमानी है।

उपेन्द्र राय


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