लव जिहाद पर विवाद फसाद का नया अध्याय
बरसों से हम सुनते आए हैं कि प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है। परोक्ष रूप से यह कथन इस बात पर मुहर लगाता है कि प्रेम हो या युद्ध, इनका लक्ष्य सवालों से परे होता है।
लव जिहाद पर विवाद फसाद का नया अध्याय |
लेकिन दोनों प्रक्रियाओं का यह ‘विशेषाधिकार’ शायद तभी तक सुरक्षित है, जब तक इनकी राहें अलग-अलग होती हैं। वरना तो जब ये दोनों साथ आते हैं, तो हालात कुछ वैसे ही हो जाते हैं जैसे इस वक्त देश में हैं। प्रेम के अंग्रेजी रु पांतरण ‘लव’ और युद्ध के अरबी समानार्थी ‘जिहाद’ को जोड़कर कुछ कट्टरपंथियों ने ‘लव जिहाद’ का नाम दे दिया है। अब इसी ‘लव जिहाद’ पर देश में ऐसा संग्राम छिड़ा है, जिसमें सरकार से लेकर समाज तक हर कोई शामिल हो गया है। एक पक्ष इस विवाद को जायज मान रहा है, तो दूसरा नफरतवाद की आग फैलाने का जरिया बता रहा है।
वैसे तो लव जिहाद का विवाद अब एक दशक से भी ज्यादा पुराना हो गया है, लेकिन इस आग में नई चिंगारी भड़कने की वजह बना है हरियाणा के वल्लभगढ़ का निकिता तोमर हत्याकांड। हत्याकांड की जांच रिपोर्ट कहती है कि पीड़िता धर्म परिवर्तन और विवाह के लिए तैयार नहीं थी, इसलिए आरोपी मुस्लिम युवक ने उसकी हत्या कर दी। जांच रिपोर्ट का खुलासा हुआ तो पहले सोशल मीडिया पर संग्राम छिड़ा जिसे सियासत ने लपक लिया। लव जिहाद पर सख्त कानून लाने की मांग उठी, तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और उत्तराखंड की सरकारों ने तुरंत इस पर कमर भी कस ली। हालांकि यह भी दिलचस्प है कि इसी साल फरवरी में खुद केंद्र सरकार मान चुकी है कि देश में लव जिहाद जैसी किसी अवधारणा का अस्तित्व नहीं है, फिर भी राज्य सरकारों का इस तरफ बढ़ना, उनके अध्यादेश या कानून लाने के ऐलान पर सवाल खड़े कर रहा है।
समर्थकों की दलील
जाहिर है राज्य सरकारों का अपना संवैधानिक अस्तित्व है, इसलिए उनकी चिंता को खारिज भी नहीं किया जाना चाहिए। लव जिहाद पर नकेल कसने के समर्थकों की पहली और सबसे बड़ी दलील यह है कि यह सोची-समझी साजिश है, जिसके जरिए हिंदू लड़कियों को प्रेम पाश में फंसाकर शादी के लिए धर्म बदलने पर मजबूर किया जाता है और जब सख्त कानून आएगा तो ऐसी घटनाओं को रोका जा सकेगा। बेशक, यह चिंता वाजिब हो सकती है, लेकिन इसे रोकने के लिए जिस तरह आनन-फानन में कदम उठाए जा रहे हैं, वे इसके पीछे की नीयत को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। सवाल है कि केवल कुछ मामलों के आधार पर कोई धारणा बनाकर कानून लाना कितना उचित होगा? उत्तर प्रदेश में जिस दिन कैबिनेट ने लव जिहाद के खिलाफ अध्यादेश को मंजूरी दी, उससे एक दिन पहले ही इलाहाबाद हाई कोर्ट कथित लव जिहाद के एक मामले में पसंद के जीवन साथी के साथ जीने के अधिकार को वयस्कों का मौलिक अधिकार बता चुका था। अदालत ने अपने फैसले में सरकार और समाज तो क्या, परिवारों के हस्तक्षेप को भी गलत बताया। निजी पसंद से विवाह को निजी स्वतंत्रता में निहित बताते हुए देश की अदालतें पहले भी अपने ही उन फैसलों पर अफसोस जता चुकी हैं, जिनमें विवाह के लिए धर्म बदलने को प्रतिबंधित और ऐसे विवाहों को अवैध करार दिया गया था।
क्या आरोप है वाजिब?
तो क्या यह आरोप वाजिब है कि कानून के बहाने धार्मिंक कट्टरवाद को हवा दी जा रही है? कानून की बात करने वाली सभी राज्य सरकारों का बीजेपी-शासित होना क्या महज संयोग है? दरअसल, सुर्खियों में रहे हादिया मामले के बाद जब एनआईए ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर केरल में कथित लव जिहाद के करीब दर्जन भर मामलों की जांच की, तो किसी भी मामले में जबरन धर्म बदलने के आरोप साबित नहीं हो पाए। आज के परिप्रेक्ष्य में आरोप साबित भी हो गए होते, तब भी इसमें न्याय के लिए किसी नये कानून की जरूरत नहीं पड़ती। भारतीय दंड संहिता, दंड प्रकिया संहिता और घरेलू हिंसा से महिलाओं को संरक्षण या स्पेशल मैरिज एक्ट में पहले से ही इस समस्या से निपटने के प्रावधान हैं। खास तौर पर भारतीय दंड संहिता की धारा 493 में स्पष्ट उल्लेख है कि शादी के लिए किसी भी तरह का दबाव, पल्रोभन या दूसरे तरह का कोई भी अवैध तरीका अमल में लाना दंडनीय अपराध है और इसके लिए दस साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है। ऐसे में नये कानून की आवश्यकता को कैसे परिभाषित किया जाए? क्या इसे केवल भ्रमित करने वाली कार्रवाई बताकर खारिज करना उचित होगा? शायद नहीं क्योंकि नये कानून बनाने की कवायद ने इन कयासों को भी हवा दे दी है कि यह धर्मातरण निरोधक कानून की जमीन तैयार करने की कसरत भी हो सकती है। देश में पहले भी तीन बार साल 1954, 1960 और 1979 में इस तरह के प्रयास हो चुके हैं, हालांकि हर बार यह प्रयास असफल रहा। फिलहाल अपने अलग रूप में यह कानून मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, ओडिशा और अरुणाचल प्रदेश में धर्म स्वतंत्रता धर्मातरण निरोधक कानून के नाम से लागू है। इसमें धोखे से बहला-फुसलाकर या जबरन धर्मपरिवर्तन करवाना दंडनीय अपराध है और नाबालिग या अनुसूचित जाति/जनजाति से संबंधित मामलों में कड़ी और ज्यादा अवधि की सजा का प्रावधान है।
समान नागरिक संहिता में है समाधान?
हालांकि लव जिहाद पर चार राज्यों का कानून बनाने का ऐलान स्पष्ट रूप से विवाह के लिए कथित धर्मातरण पर अंकुश लगाने की तैयारी है। बेशक, यह तैयारी सवालों में घिरी दिख रही हो, लेकिन यह सवाल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि प्रेम आधारित विवाह में धर्म परिवर्तन कैसे जरूरी हो जाता है? जरूरी है भी, तो एक ही पक्ष अपना धर्म क्यों बदले? अगर मुस्लिम कानूनों में यह वैध शादी की अनिवार्यता है, तो इससे निपटने के लिए नये कानून को अवैध कैसे ठहराया जा सकता है?
क्या समान नागरिक संहिता इन तमाम सवालों का जवाब हो सकती है? भारतीय संविधान में तो समान नागरिक संहिता को हजार समस्याओं का इलाज माना गया है। संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में नीति-निर्देश है कि समान नागरिक संहिता का कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। इतना ही नहीं, हमारी अदालतें भी संविधान के इस निर्देश के पालन को लेकर गंभीर पहल करती रही हैं। इसकी सबसे चर्चित मिसाल साल 1985 का मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो केस है, जिसमें पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने देश में समान नागरिक संहिता लगाने की पैरवी की थी। हालांकि दो साल पहले इसकी व्यावहारिकता को लेकर विधि आयोग की नकारात्मक टिप्पणी के कारण यह मसला ठंडे बस्ते में चला गया था, लेकिन लव जिहाद की आग भड़कने के बाद अब इसे लागू करने की मांग फिर जोर पकड़ सकती है।
बहरहाल, जिन सियासी सवालों की राह संविधान में तलाशी जा रही है, उसकी एक गली समाज से होकर भी गुजरती है। आखिर, क्या वजह है कि धार्मिंक अविास की इस खाई को समाज भी नहीं पाट पा रहा है। क्या चिंता की बात नहीं है कि जिस देश की गंगा-जमुनी तहजीब दुनिया के लिए मिसाल हुआ करती थी, वहां पारस्परिक प्रेम का मसला परस्पर युद्ध में कैसे बदल गया?
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