गुपकार : कश्मीर से ’वफा‘ या सियासी शिगूफा?

Last Updated 22 Nov 2020 12:47:17 AM IST

जम्मू-कश्मीर के नगरोटा में हुए एनकाउंटर में चार आतंकवादियों को ढेर कर सुरक्षा बलों ने अपनी मुस्तैदी का एक और सबूत दिया है।


गुपकार : कश्मीर से ’वफा‘ या सियासी शिगूफा?

सुरक्षा बलों का हौसला बढ़ाने वाला प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ट्वीट इसी बात का परिचायक भी है। आतंकियों का यह अंजाम भले ही राहत की बात है, लेकिन कश्मीर घाटी में आफत बरपाने का उनका मकसद सुरक्षा बलों के हर-पल चौकस रहने की जरूरत का इशारा भी है। ऐसी खुफिया जानकारी है कि कश्मीर घाटी को दहलाने के लिए वहां 26/11 को दोहराने की साजिश रची गई थी, जिसके लिए सीमा-पार से इन आतंकियों को मोहरा बना कर भेजा गया था। यह वारदात ऐसे समय में हुई है, जब कश्मीर में डीडीसी यानी जिला विकास परिषद के साथ ही पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनाव सिर पर हैं और सियासी मंसूबों से बने गुपकार गठबंधन को लेकर स्थानीय राजनीतिक दल कटघरे में खड़े हैं।

वैसे गुपकार गठबंधन का औपचारिक नाम ‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’ है और इसमें फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस, महबूबा मुफ्ती की पीडीपी और लेफ्ट को मिलाकर कुल छह दल शामिल हैं, जिनका एजेंडा जम्मू-कश्मीर को फिर से धारा 370 और धारा 35ए वाले दौर में ले जाना है। गठबंधन को लगता है कि इस बदलाव से कश्मीरियों की पहचान खत्म कर दी गई है। सियासी फायदे के लिए कांग्रेस ने भी पहले तो गुपकार गठबंधन से हाथ मिला लिया था, लेकिन जब गृह मंत्री अमित शाह ने ट्वीट के जरिए कांग्रेस से कड़े सवाल किए, तब जाकर कांग्रेस लीडरशिप की आंख खुली और उसकी ओर से गठबंधन से पल्ला झाड़ने का फरमान जारी हुआ, लेकिन केंद्र सरकार की तमाम कवायद और कश्मीर में खुशहाली के एक साल का गवाह बनने के बावजूद गठबंधन अभी भी अपने एजेंडे की बहाली के लिए संघर्ष की जिद पर अड़ा है, जिसके कारण श्रीनगर से लेकर दिल्ली तक सियासी बवाल मचा हुआ है।

सवाल उठता है कि आखिर गुपकार को नये कश्मीर से डर क्यों लग रहा है? बेशक धारा 370 हट जाने के बाद कश्मीर में अभी भी ऐसे हालात न बने हों कि वहां विकास की गंगा बहने लगी हो, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र की ईमानदार कोशिशों से घाटी की फिजा तेजी से बदल रही है। वहां सुरक्षा के हालात पहले से बेहतर हुए हैं और आतंक की कमर टूटने लगी है। गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट बताती है कि इस एक साल में कश्मीर में आतंकवाद की घटनाओं में 36 फीसद तक की गिरावट आई है। आतंक के खिलाफ लड़ाई में फ्री-हैंड मिलने से सुरक्षा बलों का उत्साह और ताकत दोनों दोगुनी हुई है, जिसके कारण हिज्बुल के कमांडर रियाज नाइकू, लश्कर के कमांडर हैदर, जैश के कमांडर कारी यासिर और अंसार गजवात-उल-हिंद के बुरहान कोका जैसे 136 खूंखार आतंकी ढेर किए गए हैं। नगरोटा का एनकाउंटर इसकी सबसे ताजा कड़ी है। देश के लिए यह भी खुशी की बात है कि आतंकी संगठनों में स्थानीय युवाओं के शामिल होने के मामले भी 40 फीसद तक कम हो गए हैं। सरकारी नौकरियों और स्कूल-कॉलेजों के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में स्थानीय युवाओं के लिए आरक्षण का फैसला इस खुशनुमा बदलाव की बुनियाद बना है। मताधिकार मिलने से राज्य के वंचित लोग दोबारा मुख्यधारा में लौट रहे हैं। इसी तरह बाहरी लोगों को भी राज्य में जमीन खरीदने का अधिकार मिलने से घाटी और देश के बाकी हिस्सों का सामाजिक और भावनात्मक रिश्ता मजबूत हुआ है।

इसके बावजूद गुपकार गठबंधन की एक साल पहले के आतंक और अशांति वाले दौर में जाने की रट देशहित के पैमाने पर तो फिट नहीं बैठती। फारूक अब्दुल्ला की चीन की मदद से धारा 370 बहाल करने वाली धमकी हो या तिरंगे के अपमान वाला महबूबा मुफ्ती का बयान-दोनों ही भोली-भाली जनता को भड़काने और देशद्रोह की हद तक गैर-जिम्मेदाराना बर्ताव की श्रेणी में आते हैं। दरअसल, गठबंधन में शामिल दलों की दुविधा काफी हद तक उन हालात से मेल खाते हैं, जो आज बाकी देश में कांग्रेस के सामने हैं। जिस तरह विकास की नई राजनीति के दौर में तुष्टिकरण और गरीबी हटाने के कांग्रेस के नारे बेमानी हो गए हैं, उसी तरह गुपकार गठबंधन के सामने भी नये कश्मीर के मुताबिक अपनी राजनीति में आमूल-चूल बदलाव की चुनौती खड़ी हो गई है। अब तक यह दल कश्मीरियत की पहचान को धारा 370 का हौवा दिखाकर राज्य की चुनावी बाजी जीत लिया करते थे, जिसके दम पर दिल्ली से सौदेबाजी हो जाया करती थी। इसमें भी कोई बुरी बात नहीं होती बशर्ते इससे कश्मीर और कश्मीरियत का भला हुआ होता, लेकिन हकीकत में भला कुछ सियासी घरानों तक ही सीमित रहा। धारा 370 हट जाने के बाद कश्मीर में इसकी प्रासंगिकता को लेकर बनाया गया भ्रम का माहौल धीरे-धीरे छंट रहा है और स्थानीय अवाम इस सवाल पर मुखर हो रही है कि इतने साल तक उसे क्यों छला गया?

डीडीए चुनाव इस लिहाज से अहम साबित हो सकते हैं, क्योंकि इस बहाने अपने अधिकारों के लिए मुखर हो रही राज्य की जनता को अपनी पसंद का प्रतिनिधित्व चुनने का मौका मिल सकेगा। यह भी जाहिर है कि राज्य में विधानसभा स्थगित होने से नई चुनी गई जिला परिषदों के पास बड़ी प्रशासनिक ताकत रहने वाली है। शायद इसीलिए इतने वर्षो तक जमीनी राजनीति से दूर रहे गुपकार गठबंधन में शामिल दलों ने अपनी सियासी जमीन बचाने के लिए सात दशकों के कट्टर विरोध को भी भुला दिया है। यह भी दिलचस्प है कि कुछ समय पहले तक इन्हीं में से कई दल चुनाव का बहिष्कार करने के आतंकी फरमानों के सुर-में-सुर मिलाया करते थे।

बहरहाल, पुरानी यादें भुलाकर साथ आए यह दल पुरानी व्यवस्था बहाल कर पाएंगे, यह मुमकिन नहीं दिखता। दो दौर की बैठकों के बाद भी गुपकार गठबंधन अब तक इस पर कोई एक्शन प्लान लेकर सामने नहीं आया है। गुपकार कश्मीर की जिस अलग सांस्कृतिक पहचान को बचाने की बात कर रहा है, उस आधार पर लद्दाख को अपनी अस्मिता छोड़कर कश्मीर के साथ आने के लिए कैसे राजी करेगा, यह भी बड़ा सवाल है। फिर पिछले एक साल में प्रशासनिक स्तर पर जिस तेजी से बदलाव लागू हुए हैं, जिस तरह बाकी देश की तरह जम्मू-कश्मीर में भी विकास की राह रोशन हो रही है, उसे देखते हुए बीते समय के अंधकार में लौटना भला कौन-सी समझदारी होगी। ऐसे में चुनाव से पहले गुपकार गठबंधन का एक्शन में आना कश्मीर को बचाने की जगह अपना राजनीतिक वजूद बचाने का शिगूफा ही दिखाई देता है।
 

उपेन्द्र राय


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