कैसा होगा जो बाइडेन का अमेरिका?

Last Updated 21 Nov 2020 09:42:49 AM IST

अमेरिका में सत्ता बदले एक पखवाड़े से कुछ ज्यादा वक्त बीत चुका है और धीरे-धीरे ही सही इस बदलाव का असर अब दिखने लगा है।


कैसा होगा जो बाइडेन का अमेरिका?

कानूनी लड़ाई के जरिए डोनाल्ड ट्रंप भले ही सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को लंबे समय तक टालने के उपक्रम में जुटे हों, लेकिन सच यही है कि नए शासन में उनके दौर के कई फैसलों को खुर्दबीन वाली बारीकी से जांचने-परखने का काम शुरू हो गया है। अमेरिका में रहकर पढ़ाई कर रहे भारतीय छात्रों के लिए दिखी नई सरकार की ‘दरियादिली’ इसी प्रक्रिया का हिस्सा है, वरना तो खुद को ‘भारत का सबसे बड़ा दोस्त’ बताने वाले ट्रंप ने चुनाव में उतरने से पहले कई देशों के स्टूडेंट्स की तरह भारतीय छात्रों को भी वापसी का टिकट पकड़ाने का इंतजाम कर दिया था। नई सरकार ने न केवल भारतीय छात्रों की दिक्कतें दूर करने का भरोसा दिलाया है, बल्कि अन्य भारतीय छात्रों को अमेरिका आने को प्रोत्साहित करने की योजना का भी खुलासा किया है।

यकीनन हाल के दिनों में भारत-अमेरिकी द्विपक्षीय संबंधों के विस्तार को देखते हुए इस पहल की अहमियत कम लग सकती है, लेकिन इससे आने वाले दिनों को लेकर जो संकेत मिल रहे हैं, वो निश्चित रूप से बेहद अहम हैं। मोदी-ट्रंप युग में दोनों देशों के रिश्ते जिन ऐतिहासिक ऊंचाइयों तक पहुंचे थे, उसके बाद इस ‘सत्ता पलट’ के कारण दोनों देशों की दोस्ती को लेकर कुछ आशंकाएं जताई जा रही थीं। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बधाई संदेश के बाद टीम बाइडेन की ओर से जिस तरह संबंधों को और प्रगाढ़ करने और विस्तार देने वाला बयान जारी हुआ, उसने इन आशंकाओं को काफी हद तक दूर कर दिया है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सत्ता बदलाव से दोनों देशों के बीच आर्थिक कारोबार बढ़ेगा, आईटी सेक्टर के लिए अमेरिकी बाजार और खुलेगा और इमीग्रेशन के पेंच थोड़े ढीले होंगे। सामरिक मोर्चे पर भी दोनों देशों की साझेदारी को नया विस्तार मिल सकता है। इसी तरह सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट के लिए भारत की दावेदारी को अमेरिकी समर्थन आगे भी मिलता रहेगा। कश्मीर, मानवाधिकार, धारा 370, सीएए जैसे आंतरिक मसलों पर भी बाइडेन और उनकी टीम का रु ख हमें पता है और इसे लेकर भी कोई शंका नहीं कि अगले चार साल तक इन मुद्दों पर अमेरिका के सामने मोदी सरकार का राजनीतिक कौशल दांव पर रहने वाला है।

बदलेंगे अमेरिकी समीकरण?  
लेकिन जो सवाल इन सबसे अहम है, वो यह है कि क्या सत्ता बदलने से चीन और पाकिस्तान को लेकर अमेरिकी समीकरण भी बदल जाएंगे? इस सवाल का चीन वाले हिस्से का जवाब काफी हद तक ‘हां’ और पाकिस्तान वाले हिस्से का जवाब तो पूरी तरह ‘ना’ दिखता है। बाइडेन ही नहीं, बीसवीं सदी में उनके लगभग सभी डेमोक्रेट ‘पूर्वजों’ का चीन को लेकर रवैया ट्रंप जैसा सख्त नहीं रहा है। इसलिए इस बात के बहुत आसार हैं कि ट्रेड वॉर के तनाव को कम करने की ‘सौदेबाजी’ में बाइडेन सरकार चीन की पैरवी करते हुए भारत पर तल्खी कम करने का दबाव बनाते दिखें। हालांकि भारत की ‘मजबूत’ सरकार के सामने अमेरिका की ‘आर्थिक मजबूरी’ कितना टिक पाएगी, यह देखने वाली बात होगी। रही बात पाकिस्तान की, तो उसका राजनीतिक ‘वनवास’ बाइडेन के शासन में भी खत्म होता नहीं दिख रहा। पाकिस्तान को अमेरिका से कितनी तवज्जो मिलती है, वो इसी बात से पता चलता है कि जॉर्ज डब्ल्यू बुश के बाद पिछले 14 साल से किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं समझी। ओबामा और ट्रंप भारत आए, लेकिन लाख मिन्नतों के बावजूद पाकिस्तान नहीं गए। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौज की वापसी शुरू होने के बाद से पाकिस्तान अमेरिकी नीति में हाशिए पर है। वैसे भी वैिक मंच पर भारत की तुलना में पाकिस्तान की प्रासंगिकता कितनी बची है, यह कोई राज की बात नहीं है। इसके बावजूद पाकिस्तान खुशफहमी पाले बैठा है कि कश्मीर को लेकर बाइडेन की सोच उसे फायदा पहुंचा सकती है।

पाकिस्तान के लिए बेशक, एक और अमेरिकी राष्ट्रपति का शासनकाल ‘बेमानी’ साबित हो, लेकिन अमेरिकी सत्ता में डेमोक्रेट की वापसी वैिक मंच पर जरूर वैचारिक बदलाव की वजह बनेगी। आने वाले दिनों में दुनिया का सामना एक बदले हुए अमेरिका से हो सकता है। बाइडेन दक्षिण चीन सागर, इजराइल-फिलीस्तीन, उत्तरी कोरिया जैसे विवादास्पद मुद्दों और रूस पर पाबंदियां जैसे मसलों से भले छेड़छाड़ न करें, लेकिन इस बात की बहुत संभावना है कि उनकी कमान में अमेरिका दूसरे देशों से रिश्तों में ट्रंप काल की आक्रामकता को छोड़कर ज्यादा संतुलित रवैया अपनाए। इसकी शुरु आत कारोबारी रिश्तों में बदलाव से हो सकती है, जहां शुल्क वसूलने में ट्रंप ने दोस्त और दुश्मन का फर्क ही खत्म कर दिया था। सामरिक मोर्चे पर भी विदेशी जमीनों पर चल रहे युद्धों से हटने और किसी नई जंग में शामिल नहीं होने का फैसला अब एकतरफा नहीं, बल्कि सहयोगियों की चिंता को ध्यान में रखकर लिया जाएगा। जलवायु परिवर्तन का मुद्दा निश्चित तौर पर फिर अमेरिका की प्राथमिकता में शामिल होगा। बाइडेन ने चुनाव प्रचार में इसका संकेत दिया था। इस सबके साथ बाइडेन की ओर से संयुक्त राष्ट्र, नाटो और डब्ल्यूएचओ जैसी वैिक संस्थाओं से अमेरिका के रिश्तों को दोबारा पटरी पर लाने की पहल भी देखने को मिल सकती है।

अमेरिकी साख की खातिर
लेकिन क्या यह सब खोई हुई अमेरिकी साख को दोबारा कायम करने के लिए काफी होगा? जिस शख्स की सोच इस मामले में सबसे ज्यादा मायने रखती है, कम-से-कम वह तो मानता है कि ऐसा करना संभव है। बाइडेन ने चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही अेत कमला हैरिस को अपनी उपराष्ट्रपति पद की उम्मीदवार बनाकर दुनिया को बड़ा संदेश दे दिया था। ब्लैक लाइव्स मैटर अभियान के बीच टीम बाइडेन की इस पहल से प्रवासियों में सकारात्मक संदेश स्थापित हुआ है। बाइडेन-हैरिस की जोड़ी से वही कमाल दोहराने की उम्मीद लग रही है, जिसने ओबामा-बाइडेन के आठ साल के शासनकाल में अमेरिका को नई पहचान देने का काम किया था। नतीजों के बीच अजेय बढ़त लेते ही बाइडेन ने इस काम के लिए अमेरिकी लोगों से सहयोग की अपील की थी। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि बाइडेन को भी पता है कि दुनिया में अपने देश की छवि सुधारने से पहले उन्हें देश के अंदर ही भरोसा बहाल करने वाली बड़ी कसरत करनी होगी। चुनाव के नतीजों से साफ हो गया है कि अमेरिकी समाज पूरी तरह बंट चुका है। ट्रंप और उनके समर्थकों ने ‘अमेरिका फस्र्ट’ का नारा बेशक दिया, लेकिन इसकी भावना को हर मौके पर कुचला। ऐतिहासिक रूप से अमेरिका में यह नारा चालीस के दशक में द्वितीय वि युद्ध के दौरान गढ़ा गया था जिसके पीछे सोच थी कि स्वतंत्रता की भावना का विस्तार हो और कोई किसी का गुलाम न रहे। लेकिन ट्रंप ने सबसे ज्यादा चोट इसी भावना पर की।

ट्रंप के विभाजनकारी बयान
ट्रंप के दौर में अमेरिका में देश को बांटने वाले बयान और राजनयिकों, सैन्य और खुफिया सेवा से जुड़े लोगों का अपमान आम हो गया था। ट्रंप जब तक कुर्सी पर रहे तब तक वो दुनिया को व्यावसायिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा के ऐसे अखाड़े की तरह देखते रहे, जिसमें अमेरिका का कोई दोस्त नहीं था, बस दूसरे का हक मारकर अपना फायदा देखना था। अमेरिका के पीव रिसर्च सेंटर के एक सर्वे में केवल 22 फीसद लोगों ने माना कि ट्रंप वैिक मामलों में सही फैसले लेने की काबिलियत रखते हैं। इस मामले में 6 वैिक  नेताओं में जर्मन चांसलर एंजेला मार्केल, फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पहले तीन स्थान पर रहे। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनिपंग तक कमजोर रेटिंग के बावजूद ट्रंप से आगे रहे। कहने की जरूरत नहीं कि छह नेताओं में ट्रंप का नंबर छठा ही रहा। अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए ट्रंप अमेरिका के उसी लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा करते रहे, जिसे दुनिया आदर्श मानती है। संयोग देखिए कि उसी लोकतंत्र से मिली ताकत के बूते पर अमेरिकी जनता ने ट्रंप को देश की सेवा करने का वो दूसरा मौका ही नहीं दिया जिसकी अमेरिका में पुरानी परंपरा रही है। इसलिए जनादेश अब बाइडेन के पास है, जिनसे अमेरिका में सकारात्मक बदलाव की आस है।

उपेन्द्र राय


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