लोकतंत्र की दिवाली
नवंबर का महीना लोकतंत्र के लिहाज से दो वजहों से खास बन गया है। इसी एक महीने में दुनिया के दो महान लोकतंत्र शासन प्रणIली के उस इम्तिहान से गुजरे हैं, जिसे आधुनिक दौर में मानव शक्ति की सबसे पुरजोर अभिव्यक्ति माना गया है।
लोकतंत्र की दिवाली |
दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में तो खैर इम्तिहान समूची शासन व्यवस्था का था, लेकिन सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में सियासी नजरिए से देश के सबसे उर्वर प्रदेश बिहार का भविष्य दांव पर था। नतीजे पहले आने के बाद भी अमेरिका कानूनी लड़ाई में उलझा है, जबकि बिहार में कांटे के मुकाबले के बावजूद कोई उलझन नहीं है और एनडीए स्पष्ट बहुमत लेकर दोबारा सत्ता संभालने जा रहा है। अमेरिका में भले ही निवर्तमान राष्ट्रपति का ‘ट्रंप कार्ड’ जाया हो गया, लेकिन बिहार में मोदी मैजिक ने फिर से करिश्मा कर दिखाया।
जेडीयू का अब का सबसे खराब प्रदर्शन
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी ने महज 110 सीटों पर चुनाव लड़कर 74 सीटें जीत लीं, जबकि एनडीए की कमान थामने वाले नीतीश कुमार अपनी पार्टी जेडीयू को केवल 43 सीटें दिला पाए, जो चुनावी इतिहास में जेडीयू का अब तक का सबसे खराब प्रदशर्न है। लेकिन नीतीश से नाराजगी को भी ब्रांड मोदी ने खत्म कर दिया। इस नजरिए से देखें तो यह प्रधानमंत्री की जीत और नीतीश की हार ज्यादा दिखती है, क्योंकि एनडीए में बीजेपी अब बड़ा दल बन गई है। सभाओं में उमड़ती भीड़ को देखकर आरजेडी के मुखिया तेजस्वी यादव को यकीन हो गया था कि बिहार में अबकी बार महागठबंधन की सरकार का उनका सपना सच हो जाएगा लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के मैदान में उतरते ही बाजी पलट गई। प्रधानमंत्री की 12 रैलियों से सुशासन के विास का जो मरहम दसों दिशाओं में फैला, उसने कोरोना, बेरोजगारी, आर्थिक तंगी और 15 साल की एंटी इन्कंबेंसी के दर्द का काम-तमाम कर दिया। प्रधानमंत्री ने जिस तरह 15 साल पुराने जंगलराज का मुद्दा उठाया, उसने बिहार की जनता के सामने महागठबंधन के परिवारवाद और एनडीए के विकासवाद का फर्क स्पष्ट करने का काम किया। केंद्र की योजनाओं और कोरोना काल में प्रवासी मजदूरों की भरपूर मदद को जब उन्होंने विपक्ष के अहंकार की हार और एनडीए के परिश्रम की जीत के साथ जोड़ा तो बाकी देश की तरह बिहार की जनता से भी उनका भरोसे वाला रिश्ता मजबूत होता चला गया।
अब बीजेपी की नजर प. बंगाल पर
मोदी-युग में जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार बनाने और त्रिपुरा समेत उत्तर-पूर्व के कई राज्यों में खाता खोलने के बाद बिहार और प. बंगाल में जनाधार बढ़ाने को बीजेपी ने प्रतिष्ठा का विषय बना रखा था। बिहार में लक्ष्य पूरा होने के बाद अब बीजेपी की नजर प. बंगाल पर रहेगी जहां अगले साल चुनाव होने हैं। वहां बीजेपी ने अभी से दो-तिहाई बहुमत हासिल करने का दावा ठोक दिया है। हालांकि बंगाल में बीजेपी के विधायकों की संख्या दस से भी कम है, लेकिन बिहार की जीत यकीनन वहां पार्टी कैडर का मनोबल बढ़ाएगी।
बेशक, बिहार में ऐतिहासिक प्रदर्शन के बावजूद बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने का अपना वादा दोहरा रहा है, लेकिन प्रदेश स्तर पर अब पार्टी के अपने मुख्यमंत्री की मांग भी उठने लगी है। कुछ समय पहले तक प्रदेश अध्यक्ष रहे केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय का नाम इस रेस में सबसे आगे है। प्रदेश में आरजेडी की सियासी जमीन कमजोर करने के लिए बीजेपी ने महिलाओं और अति पिछड़े वर्ग में अपनी पैठ बनाने और महादलित समुदाय तक केंद्रीय योजनाओं का लाभ पहुंचाने की जिस नीति को सफलतापूर्वक अंजाम दिया, उसमें नित्यानंद राय की बड़ी भूमिका रही है। नित्यानंद राय के इस सांगठिनक कौशल को देखते हुए बीजेपी ने उन्हें इस चुनाव में 70 सदस्यों वाली इलेक्शन स्टीयरिंग कमेटी का अध्यक्ष और सह-संयोजक बनाया था। बहरहाल, गेंद फिलहाल तो नीतीश के ही पाले में है, जिनके सामने चुनाव प्रचार में सरकार पर लगे शराबबंदी की विफलता, घूसखोरी, बदहाल स्वास्थ्य-शिक्षा व्यवस्था और बेरोजगारी के दाग धोने की बड़ी चुनौती खड़ी है। एनडीए के लिए नीतीश भले ही केंद्र में जरूरी और बिहार में मजबूरी हों, लेकिन गठबंधन में उनकी हैसियत अब छोटे भाई की ही होगी। ऐसे में चुनाव के आखिरी दौर में उनकी ‘अंत भला तो सब भला’ वाली गुहार पर भले ही बिहार की जनता ने एतबार कर लिया हो, लेकिन उसको सच करने के लिए नीतीश को अब बीजेपी के भी आसरे रहना होगा। इस काम में नीतीश के सामने मुश्किल केवल बीजेपी को साधने की ही नहीं, अपनी पार्टी के उस नाराज खेमे को मनाने की भी होगी जो मानता है कि चिराग पासवान और असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं से बीजेपी का ‘चुनावी तालमेल’ था जिसने महागठबंधन ही नहीं, जेडीयू का भी खेल खराब किया है। इस खेमे का मानना है कि इन नेताओं ने जेडीयू को नुकसान पहुंचाया, नहीं तो वह आसानी से 55-60 सीटों के आंकड़े तक पहुंच जाती जिससे न केवल एंटी इन्कंबेंसी का नैरेटिव धराशायी हो जाता, बल्कि सत्ता की भागीदारी में भी उसका कद यूं बौना नहीं होता। यह भी बहुत दिलचस्प है कि जेडीयू में इतनी कड़वाहट अपने मुख्य विपक्षी तेजस्वी यादव को लेकर नहीं दिख रही है, जिनका आरजेडी एक वक्त में नीतीश की पार्टी का बिग ब्रदर हुआ करता था और जो इस चुनाव में सही मायनों में बिग विनर बन कर सामने आए हैं। अपने पिता लालू प्रसाद यादव की सियासी अनुपस्थिति में मोदी-नीतीश जैसी धाकड़ जोड़ी के सामने अपने पहले इम्तिहान में भी तेजस्वी जिस तरह आरजेडी को सबसे बड़ा दल बनाए रखने में कामयाब रहे हैं, वो सियासत में उनके सुनहरे भविष्य का इशारा कर रहा है। बिहार के सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का उनका सपना साकार भी हो गया होता, अगर महागठबंधन में उनकी सहयोगी कांग्रेस ने खराब प्रदशर्न न किया होता। पिछली बार के मुकाबले ज्यादा सीटों पर लड़ने के बाद भी कांग्रेस को इस बार आठ सीटों का नुकसान हुआ है। गठबंधन राजनीति के दौर में नेतृत्व तो दूर की बात है, कांग्रेस एक-के-बाद-एक राज्यों में जिस तरह अपने सहयोगियों के लिए ही बोझ साबित हो रही है, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस लीडरशिप कोई सबक ले रही है।
वैसे सबक के तौर पर बिहार चुनाव जन सरोकार के मुद्दों के चुनाव के रूप में भी याद किया जाएगा। बेशक, 10 लाख सरकारी नौकरी देने का तेजस्वी यादव का वादा सरकार बनाने का दावा पेश करने का जरिया नहीं बन पाया, लेकिन इसने बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं को राष्ट्रीय चर्चा का विषय जरूर बना दिया। नीतीश भले ही इसका माखौल उड़ाते रहे, लेकिन उनकी ही सहयोगी बीजेपी ने भी 19 लाख रोजगार के अवसरों को अपने घोषणापत्र में जगह देकर इस चर्चा को व्यापक स्वरूप दे दिया। रोजगार के अलावा भी चुनावी नारों में महंगाई-पढ़ाई-सिंचाई-दवाई का शोर खूब सुनाई दिया।
राजनीतिक दलों के नजरिए में आए इस सकारात्मक बदलाव के बीच चुनाव आयोग की पहल भी कारगर रही। कोरोना काल में बिहार जैसे बड़े राज्य में चुनाव का आयोजन आसान नहीं था, लेकिन चुनाव आयोग न केवल अपनी जिम्मेदारी पर खरा उतरा, बल्कि लोकतंत्र के उत्सव में जनता की भागीदारी बढ़ाने की उसकी कोशिशें भी कामयाब रहीं।
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