अमेरिका में तकरार, भारत में इंतजार

Last Updated 08 Nov 2020 12:02:46 AM IST

अमेरिका में इतिहास बीस साल बाद एक बार फिर खुद को दोहरा रहा है। चुनावी नतीजे आने के बाद भी दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र को अपने नये राष्ट्रपति का पता लगाने के लिए अदालत का मुंह देखना पड़ रहा है।


अमेरिका में तकरार, भारत में इंतजार

मतगणना के पांच दिन बीत जाने के बाद भी अमेरिकी जनता को यह पता नहीं चल रहा है कि उनके भविष्य की डोर किसके हाथ में रहेगी? राष्ट्रपति पद की रेस निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जीतेंगे या ताज जो बाइडेन के सिर सजेगा?

देश के मुखिया को लेकर ऐसा सस्पेंस साल 2000 में भी दिखा था जब अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने रिपब्लिकन उम्मीदवार जॉर्ज बुश के पक्ष में फैसला सुनाते हुए फ्लोरिडा में दोबारा काउंटिंग करने पर रोक लगा थी। तब तो कोर्ट ने इस फैसले के जरिए जॉर्ज बुश के राष्ट्रपति बनने का रास्ता साफ कर दिया था, लेकिन इस बार पेच कुछ ज्यादा गहरा फंस गया लगता है। मामला अभी सुप्रीम कोर्ट नहीं पहुंचा है और विवाद का राज्य स्तर पर निबटारा किया जा रहा है। हालांकि जनता की अदालत में पिछड़ने के बाद ट्रंप को कानूनी लड़ाई में भी झटके लग रहे हैं। मिशिगन-जॉर्जिया जैसे स्विंग स्टेट्स में चुनावी प्रक्रिया को लेकर दायर उनकी याचिका खारिज हो गई है, लेकिन ट्रंप आसानी से हथियार डालने के मूड में नहीं लग रहे हैं। ऐसे में आधिकारिक नतीजा सामने आने में कई दिन और लग सकते हैं। ट्रंप काफी पहले से ही मुकदमेबाजी के संकेत दे रहे थे। इस मायने में उन्होंने राष्ट्रपति पद और अपने कारोबार में कोई फर्क नहीं रखा है जहां वो अपने विरोधियों को अदालती कार्यवाही में उलझाने के लिए ‘मशहूर’ रहे हैं। तय दिख रही हार से ट्रंप इतने हताश हो चुकेहैं कि वो अब जो बाइडेन पर चुनाव जीतने के लिए धोखाधड़ी के आरोप तो लगा रहे हैं, लेकिन इसका कोई सबूत नहीं दे रहे हैं। इस रवैये से नाराज अमेरिका में अब बहुत से लोग कह रहे हैं कि ट्रंप जीते या हारे, उन्होंने अमेरिकी लोकतंत्र के महान इतिहास पर सवाल खड़ा कर चुनाव का मूड खराब कर दिया है।

इस सबके बाद भी ट्रंप की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि अपने आक्रामक चुनाव प्रचार से उन्होंने एकतरफा दिख रहे मुकाबले को भी कांटे की टक्कर में बदल दिया-खासकर कोरोना से मुकाबले में ट्रंप जिस तरह नाकाम रहे और बाद में तो वो खुद भी जिससे संक्रमित हो गए थे। इसके बावजूद जो नतीजे आए हैं, उसका अमेरिका के बड़े-से-बड़े राजनीतिक भविष्यवक्ताओं को भी अनुमान नहीं रहा होगा। बेशक जो बाइडेन ने अमेरिकी इतिहास में सबसे ज्यादा वोट हासिल करने का रिकॉर्ड बनाया हो, लेकिन ट्रंप को भी इस बार पिछले चुनाव से 50 लाख ज्यादा वोट मिले हैं। इस लोकप्रियता को केवल यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि आधे से ज्यादा अमेरिका रंगभेदी हो चुका है, क्योंकि इस बार ट्रंप का समर्थन करने वालों में अफ्रीकन और हिस्पैनिक-अमेरिकन बड़ी संख्या में शामिल हैं। इसकी बड़ी वजह अर्थव्यवस्था को संभाले रखने की ट्रंप की काबिलियत को माना जा रहा है। ओपिनियन पोल में 61 फीसद अमेरिकियों ने माना था कि आर्थिक मोर्चे पर उनका देश पिछले तीन साल में आगे बढ़ा है और यह ट्रंप की वजह से संभव हुआ है। बहरहाल, राष्ट्रपति पद की रेस कोई भी जीते, चुनाव में हुए इतने करीबी मुकाबले ने यह साफ कर दिया है कि आज का अमेरिकन समाज पूरी तरह से बंट चुका है। हालांकि अमेरिका की विदेश नीति फिलहाल तो उसके घरेलू मतभेदों से अप्रभावित ही रहेगी और इंडो-पैसिफिक और चीन  जैसे भारत की दिलचस्पी के मामलों में इसका कोई तात्कालिक प्रभाव भी नहीं दिखेगा, लेकिन दीर्घकालीन अवधि में अमेरिका अगर कमजोर पड़ा तो भारत जैसे उसके सहयोगियों के हित प्रभावित हो सकते हैं। पिछली बार कड़े मुकाबले में मिली जीत के बाद जॉर्ज बुश के प्रशासन में हमने ऐसा होते हुए देखा था, लेकिन तब इसका असर ज्यादा महसूस नहीं हुआ था क्योंकि तब का अमेरिका आज के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत था। तब इराक और अफगानिस्तान के साथ ही भारत के साथ न्यूक्लियर डील को लेकर भी बुश को अमेरिका में ही जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ा था। 2020 के अमेरिका के सामने ठीक वैसे ही हालात हैं, लेकिन आज बादशाहत को मिल रही चुनौती के कारण उसकी गलती करने की गुंजाइश बेहद कम हो गई है।

इस लिहाज से अमेरिका का नतीजा भारत के लिए महत्त्वपूर्ण बन जाता है। दरअसल, आर्थिक, रणनीतिक और सामाजिक मोर्चे पर अमेरिका से भारत के संबंध किसी भी दूसरे देश के मुकाबले ज्यादा मायने रखते हैं। अमेरिका में भारतीय डायस्पोरा ने एक अहम जगह बनाई है और भले ही उनकी राजनीतिक वरीयताओं में भिन्नता दिखती हो, लेकिन वो सभी इस बात पर एकमत हैं कि उनकी जन्मभूमि और कर्मभूमि के रिश्ते प्रगाढ़ होने चाहिए। आपसी दोस्ती के बीच चीन जैसे साझा दुश्मन भी दोनों देशों के रिश्तों में करीबी को जरूरी बनाते हैं। यकीनन, चीन को लेकर बाइडेन की सोच डोनाल्ड ट्रंप से अलग नहीं है, लेकिन उससे निपटने की नीति अलग बताई जा रही है। ट्रंप के आक्रामक तेवरों के बजाय बाइडेन चीन को लेकर मध्य मार्ग अपना सकते हैं, जिसमें एक ही समय में चीन से बातचीत भी जारी रहे और उसे बेलगाम भी न होने दिया जाए। जाहिर है अमेरिका की मदद चाहिए, तो भारत को भी इस बदलाव के मुताबिक चीन से अपने रिश्ते को अनुकूल बनाना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि एलएसी पर इंफ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से हमारी सेना की तैयारी 1962 की तुलना में आज काफी बेहतर है, लेकिन चीन को मात देने के लिए इसे और पुख्ता करने की जरूरत है। चीन अपनी सेना पर हमसे न सिर्फ  चार गुना ज्यादा खर्च कर रहा है, बल्कि एशिया की सभी बड़ी ताकतों को मिला लिया जाए तब भी अकेले चीन का सैन्य खर्च सब पर भारी पड़ता है। यहां संतुलन साधने के लिए भारत को अमेरिका से खुफिया मदद के साथ ही राजनायिक सहयोग की भी जरूरत पड़ेगी। फिलहाल भारत के सामने दो विकल्प दिखाई देते हैं। चीन के साथ पारस्परिक हित के मामलों में सहयोग और विवादित मसलों पर विरोध जारी रखा जाए या फिर क्वॉड और एशियन नाटो जैसे गठबंधन के जरिए आर्थिक, राजनयिक और सैन्य मोर्चे पर चीन से संतुलन साधने की कोशिश की जाए। कई एशियाई देश चीन की दादागीरी को मंजूर करने की राह पर भी बढ़ सकते हैं, लेकिन भारत को यह किसी कीमत पर मंजूर नहीं होगा।

द्विपक्षीय संबंधों से जुड़े दूसरे मसलों पर तस्वीर भी धीरे-धीरे साफ होगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ गर्मजोशी से भरे रिश्ते के कारण ट्रंप का शासनकाल विदेश नीति के लिहाज से तो भारत के लिए काफी बेहतर साबित हुआ, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर हमारी अपेक्षाओं के मुताबिक नहीं रहा था। बाइडेन के आने से कारोबार और इमीग्रेशन जैसे मसलों पर ज्यादा संतुलन देखने को मिल सकता है, लेकिन चीन और पाकिस्तान पर ट्रंप के सख्त तेवर अब शायद इतिहास की बात बन जाएं। नये दौर में हर कोई यह जानता है कि दो देशों के बीच हर साझेदारी का दायरा और उद्देश्य निश्चित होता है। इसलिए भले ही कश्मीर, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और यहां तक कि घरेलू मसलों पर भी अमेरिका की राय भारत को असहज करे, लेकिन चीन से मुकाबले के लिए हमें इन भिन्नताओं को दरकिनार करना होगा। दोनों पक्षों को यह ध्यान रखना होगा कि दुनिया को चीन के विस्तारवादी जुनून से बचाने के लिए दोनों को एक-दूसरे से बेहतर सहयोगी नहीं मिलेगा।

भारत के नजरिए से इसमें दो बातें देखने वाली होगी। पहला यह कि क्या अमेरिका में चीन का सामना करने की ताकत बची है और दूसरी जो ज्यादा महत्त्वपूर्ण होगी कि अमेरिका ऐसा करने के लिए इच्छुक है भी या नहीं? इसके लिए जरूरी है कि व्हाइट हाउस में चाहे कोई भी आए, अमेरिका के साथ भारत की साझेदारी उससे किसी तरह प्रभावित ना हो।

उपेन्द्र राय


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