दिल्ली में किसका सजेगा दरबार!

Last Updated 01 Dec 2019 12:22:35 AM IST

किसी भी देश में चुनाव अगर लोकतंत्र की आत्मा है, तो मतदाता उसके भाग्यविधाता। चुनाव के ‘जनपथ’ पर चल कर मतदाता ही सत्ता के ‘राजपथ’ का फैसला करते हैं।


दिल्ली में किसका सजेगा दरबार!

आने वाले वक्त में दिल्ली के मतदाताओं को भी इस अग्निपथ से गुजरना है। वैसे दिल्ली के मतदाता कमाल के हैं। 2015 में विधानसभा चुनाव हुए तो 70 में से 67 सीटें देकर आम आदमी पार्टी (आप) की मुराद पूरी कर दी और जब 2019 में लोक सभा चुनाव आया तो सभी 7 सीटें देकर बीजेपी की झोली भर दी।

विधानसभा चुनाव में जिस कांग्रेस का सफाया किया, उसे लोक सभा चुनाव में आप से आगे लाकर दूसरे नंबर की पार्टी बना दिया। सत्ता का चक्र तो पांच साल का अपना चक्कर पूरा कर फिर विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। लेकिन लगता है कि दिल्ली के मतदाताओं के लिए वक्त वहीं ठहरा खड़ा है। सियासी धूप-छांव के बीच पांच साल बाद भी आप का जलवा बरकरार है, और अरविन्द केजरीवाल के दावों में 2015 का करिश्मा दोहराने की ललकार है। विधानसभा चुनाव के पिछले इम्तिहान में केजरीवाल के सामने किरण बेदी को चेहरा बनाने का बीजेपी का दांव उल्टा पड़ गया था।

कैडर से लेकर वोटर तक संकेत यही गया कि बीजेपी के पास दिल्ली के लिए न नेता हैं, न नीति। इसका असर देखिए कि पूरे देश में प्रचंड मोदी लहर के शोर के बीच केजरीवाल दिल्ली के सिरमौर बन कर सामने आए। हालांकि केजरीवाल का करिश्मा दिल्ली की ‘सल्तनत’ में ही कैद होकर रह गया। दिल्ली की सीमा से सटे पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे दूसरे राज्यों में उसे ‘सूखा’ ही झेलना पड़ा। लेकिन सियासी रेगिस्तान में दिल्ली आज भी आप के लिए किसी नखलिस्तान से कम नहीं है। पांच साल बाद भी बीजेपी केजरीवाल को चुनौती देने वाला स्थानीय नेतृत्व ढूंढ़ नहीं पाई है। साफ-सुथरी छवि वाले डॉ. हषर्वर्धन के नाम पर गुटबाजी का खतरा दिख रहा है, तो मनोज तिवारी का चेहरा सामने रखने से खुद बीजेपी को परहेज है।

ऐसे में लोक-लुभावन बड़े मुद्दे ही बीजेपी की नैया पार लगा सकते हैं। बीजेपी 1,797 कॉलोनियों को नियमित करने के केंद्र सरकार के फैसले को चुनावी बिसात पर बड़ा पासा मान रही है। ‘मुंह दिखाई’ की रस्म के लिए चुनाव से पहले 100 लोगों को रजिस्ट्री देने की भी योजना है। लेकिन यह ‘सौगात’ दिल्ली के मतदाताओं की सोच बदलने में कितनी कामयाब होगी, इसका अभी दावा नहीं किया जा सकता। वजह है कि केजरीवाल पहले से ही इसकी काट तैयार कर चुके हैं। जिन कॉलोनियों को केंद्र सरकार अब चुनाव से पहले नियमित करने जा रही है, वहां केजरीवाल सरकार ने पिछले पांच साल में पेयजल के लिए पाइपलाइन, साफ-सफाई के लिए सीवर लाइन और सड़कें बिछाने जैसे काम जोर-शोर से किए हैं। केजरीवाल 90 फीसद काम पूरा होने का दावा कर रहे हैं, और इसे लेकर केंद्र सरकार पर आक्रमण भी कर रहे हैं।

उनका कहना है कि सरकार की नीयत साफ है तो वह चुनाव से पहले ऐसी कॉलोनियों के 100 लोगों को नहीं, बल्कि 100 फीसद लोगों को रजिस्ट्री के कागज सौंपे।  विरोधियों को चुप करवाने के लिए केजरीवाल के तरकश में तीरों की कमी नहीं है। मोहल्ला क्लीनिक केजरीवाल सरकार की दिल्ली को ऐसी देन है, जिसे कोई भुला नहीं सकता। 302 मोहल्ला क्लीनिक दिल्ली के करीब पौने दो करोड़ लोगों के लिए ‘हेल्थ गारंटी कार्ड’ साबित हुए हैं। मोहल्ला क्लीनिक की आलोचनाएं भी हुई हैं, लेकिन ये आलोचनाएं कभी भी उपलब्धियों पर भारी नहीं पड़ सकीं। अब तो इन क्लीनिक की मांग मोहल्लों से निकल कर संभ्रांत कॉलोनियों से भी उठ रही है।

दिल्ली के सियासी सिलेबस में केजरीवाल की कामयाबी का एक और पन्ना शिक्षा से जुड़ा है। देश का ध्यान तो इस ओर तब गया, जब दिल्ली के सरकारी स्कूलों का रिजल्ट 94.4 फीसद आया लेकिन केजरीवाल इसकी बुनियाद सरकार के गठन के साथ ही रख चुके थे। क्लासरूम टीचिंग में सुधार, ट्रेनिंग के लिए प्रिंसिपलों को विदेश भेजने से मिले नतीजों से दिल्ली के सरकारी स्कूलों को लेकर लोगों का नजरिया बदल गया है। दिल्ली के लोगों को सस्ती बिजली और सस्ता पानी देकर केजरीवाल ने जो साख बनाई है, उसने विरोधियों की उम्मीदें धूमिल करने का काम किया है। आम तौर पर बिजली-पानी से जुड़े वादे केवल चुनावी छलावे माने जाते हैं, लेकिन केजरीवाल सरकार ने इसे सच कर दिखाया है। हाल में पानी को लेकर केंद्र सरकार के आंकड़े और दिल्ली के पानी को सबसे प्रदूषित बताने के दावे को सैंपलिंग की गड़बड़ी साबित कर केजरीवाल इस मोर्चे पर भी भारी पड़े हैं।

बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा के मामले ने भी केजरीवाल सरकार को जनता से कनेक्ट किया है। यह पहल कुछ वैसी ही है जैसे बिहार में नीतीश कुमार की पहल छात्राओं को साइकिल देने की थी। तब नीतीश को इसका भरपूर चुनावी लाभ मिला था। प्रदूषण से दिल्ली सरकार की किरकिरी के बावजूद केजरीवाल इसे पड़ोसी राज्यों से आयातित समस्या बताने में कामयाब रहे हैं। ऑड-ईवन का प्रयोग भले ही इसके निपटारे के लिए नाकाफी हो, लेकिन इसके जरिए केजरीवाल सरकार यह दिखाने में सफल रही है कि वह दिल्ली के लोगों को प्रदूषण से बचाने की लड़ाई लड़ रही है। दिल्ली को ‘क्लीन’ रखने की ऐसी ही मुहिम आप के अंदर भी चल रही है। एक समय था, दिल्ली सरकार के मंत्रियों-विधायकों पर फर्जी डिग्री, यौन-शोषण जैसे आरोप लग रहे थे। दिल्ली पर डेंगू के हमले के बीच मंत्रियों का लंदन टूर काफी चर्चाओं में रहा। खुद केजरीवाल अपने बयानों को लेकर अलोकप्रिय हो गए थे। लेकिन जल्द ही नई रणनीति बनाकर केजरीवाल ने डैमेज कंट्रोल कर लिया। यही स्ट्रेटेजी विवादित मुद्दों को दफन करने में काम आई।

एक तरफ अदालतों में लिखित माफीनामे भेजकर उन्होंने विवादों से पीछा छुड़ाया तो दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर बयानबाजी रोक कर साफ कर दिया कि दिल्ली से बाहर के नहीं, बल्कि स्थानीय मुद्दों पर ही उनका फोकस है। यह रणनीति इस लिहाज से भी कामयाब हुई कि जिस मर्ज से केजरीवाल ने तौबा की, वह रोग मनोज तिवारी को लग गया। आये-दिन केजरीवाल पर हमला, वाद-विवाद, गैर-जरूरी हंगामे और बयानबाजी की सियासत से तिवारी भले चर्चा में रहे, लेकिन बीजेपी की छवि को नुकसान पहुंचा। बीजेपी के लिए गनीमत यह है कि कांग्रेस इस वक्त रेस से पूरी तरह बाहर है। पांच साल पहले कांग्रेस भ्रष्टाचार के आरोपों से सत्ता से बेदखल हुई, फिर राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व के संकट ने उसे उबरने से रोका और अब शीला दीक्षित के असमय निधन ने उसे और पीछे धकेल दिया है।

मौजूदा हालत में तो कांग्रेस के लिए लोक सभा चुनाव में मिली नंबर टू की पोजिशन बचाना भी मुश्किल दिख रहा है। ऐसे में दिल्ली विधानसभा में सत्ता के राजपथ की लड़ाई आप और बीजेपी के बीच ही होगी। चुनाव में आप का चेहरा तो तय है, लेकिन बीजेपी का सेनापति कौन होगा इस पर अभी भी संशय है। मुमकिन है कि बीजेपी एक बार फिर किसी भी क्षेत्रीय नेता को तवज्जो न देकर पीएम मोदी की ब्रांड फेस वेल्यू को ही भुनाने की कोशिश करे। और बदले माहौल में यह कोशिश क्या रंग लाएगी, इसके लिए चुनाव तक का इंतजार करना पड़ेगा।

उपेन्द्र राय


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment