नये बदलाव से लौटेगा पुराना भरोसा

Last Updated 30 Nov 2019 02:41:12 AM IST

विनिवेश के अलावा सरकार क्या कर रही है। विदेशी निवेश और निर्यात के साथ-साथ घरेलू बाजार में उपभोग और मांग बढ़ाने की सरकार की कोशिशें जारी हैं। आर्थिक नीतियों की भी समीक्षा हो रही है। हालांकि कोशिशों को और धार देने की जरूरत है। सरकार औद्योगिक विकास के लिए मौजूदा कानूनों को सख्त कर सकती है


नये बदलाव से लौटेगा पुराना भरोसा

देश की अर्थव्यवस्था से वास्ता सबका पड़ता है, लेकिन इससे जुड़े सवाल आमतौर पर चुनिंदा आबादी की ही प्राथमिकता बन पाते हैं। हालांकि हाल के दिनों में अर्थव्यवस्था को लेकर इस तरह की पारंपरिक सोच बड़ी तेजी से बदली है। अर्थव्यवस्था देश की बड़ी आबादी के बीच न केवल सार्वजनिक चर्चा का बल्कि परस्पर चिंता का विषय भी बन गई है। ये चिंता अब इतनी व्यापक हो चुकी है कि इसके ‘शोर’ में अर्थजगत में हाल में हासिल राष्ट्रीय और व्यक्तिगत उपलब्धियों की चर्चा नक्कारखाने में तूती की तरह सुनाई दी है। पिछले दिनों ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ में 190 देशों के बीच भारत 14 पायदान की छलांग लगाकर 63वें नंबर पर पहुंचा, तमाम चुनौतियों के बीच हम प्रवासियों से सबसे ज्यादा हिस्सेदारी पाने की अपनी अव्वल पोजीशन को कायम रखने में कामयाब रहे, रिलायंस इंडस्ट्रीज शेयर बाजार में 10 लाख करोड़ रु पये के मार्केट कैप वाली देश की पहली कंपनी बन गई। परिस्थितियां सामान्य होतीं तो इन सफलताओं पर आर्थिक जगत ही नहीं, समूचा देश झूमता दिखाई पड़ता, मगर अर्थव्यवस्था जिस तरह चुनौतियों की ‘गर्म हवा’ का सामना कर रही है, उसमें सुकून देने वाली ये खबरें भी ठंडक नहीं पहुंचा पाई हैं। जीडीपी की ग्रोथ रेट आगे बढ़ने के बजाय लगातार पीछे की ओर खिसक रही है। न औद्योगिक उत्पादन बढ़ रहा है, न मांग में इजाफा हो रहा है। जाहिर है निवेशकों का जोश भी पहले जैसा हाई नहीं रह गया है।

डरे हुए हैं पूंजीपति
दरअसल, देश की नब्ज को भांपने वाले तरक्की में लगे इस ‘रिवर्स गियर’ की आहट को काफी पहले से सुन भी रहे थे और सरकार को इसका इशारा भी दे रहे थे। साल 2016 में तत्कालीन कोयला सचिव अनिल स्वरूप ने प्रगति में बाधा का 5 सी वाला फॉर्मूला देकर देश को चौंका दिया था। उनके इस फॉर्मूले को आकार देने वाले 5 सी में देश के शीषर्स्थ संस्थान सीबीआई, सीवीसी, कैग, सीआईसी और अदालत शामिल थे, जो आर्थिक मामलों में जल्द और प्रभावी निर्णय लेने में बाधक बनते हैं। ये बयान उस दौर का है जब देश इंस्पेक्टर राज के खात्मे के लिए मिशन मोड में था और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तमाम मंचों से नियमों को कम करने की वकालत करते हुए देखे-सुने जा रहे थे। अनिल स्वरूप ने अपनी सोच के मुताबिक बाधाओं को चिह्नित किया था और भले ही उसके बाद के दौर में भी भारत तरक्की की राह पर आगे बढ़ा हो, लेकिन हकीकत यही है कि पूंजीपति अभी भी डरे हुए हैं और उनमें विास की कमी दिख रही है। इसके नतीजे भयावह शक्ल लेकर हमारे सामने आए हैं।

जुलाई 2019 में सीसीडी के नाम से पहचाने जाने वाले कैफे कॉफी-डे के संस्थापक ने नदी में कूद कर जान दे दी क्योंकि उन्हें लगा कि वो मुनाफे वाला बिजनेस मॉडल नहीं दे पाए।

जून 2019 में कारोबारी साजन पारायली ने केरल के कन्नूर में इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि स्थानीय प्रशासन उनके ऑडिटोरियम को कथित तौर पर लाइसेंस देने में आनाकानी कर रहा था। साजन विदेश में सफल कारोबारी थे, लेकिन अपने देश की संस्थागत बाधाओं से जान देकर भी पार नहीं पा सके।

इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के सीईओ विनीत विग उम्मीदों के आसमान में मनचाही उड़ान नहीं लगा पाए तो 2016 में गुरु ग्राम में अपने अपार्टमेंट से कूदकर जान दे दी।

2016 में स्टार्टअप की सफलता की ‘रफ्तार’ से निराश कारोबारी लकी गुप्ता ने नाइट्रोजन गैस से खुदकुशी कर ली।

ये घटनाएं महज किस्सागोई नहीं हैं, बल्कि हमारे आसपास की हकीकत हैं और आर्थिक विकास में बाधा के तौर पर अनिल स्वरूप के 5सी वाले फॉर्मूले की तस्दीक करती हैं।

टैक्स कलेक्शन में गिरावट चिंताजनक
एजेंसियों की सख्ती का आलम ये है कि 2014 से 2019 के बीच करोड़ों-अरबों का व्यवसाय करने वाले करीब 50 हजार से ज्यादा उद्यमी देश छोड़कर विदेशों का रु ख कर चुके हैं। अपने पत्रकारिता कॅरियर में इससे पहले मैंने इतनी बड़ी तादाद में उद्यमियों को देश छोड़कर विदेश जाते कभी नहीं देखा। निश्चित रूप से ये बड़ी चिंता पैदा करता है। एक पत्रकार के तौर पर ऐसे कई लोगों से मेरी बात हुई जिनका कहना था कि पिछले 5 सालों में देश की जांच एजेंसियां पहले से कई गुना बेलगाम हो गई हैं। उद्यमियों को कभी झूठे केस में फंसाकर तंग किया जा रहा है तो कभी मामूली त्रुटियों को लेकर उन्हें कुछ इस कदर परेशान किया जा रहा है कि ताजा हालात में उनके लिए काम करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो गया है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि अगर किसी केस में फंस गए तो ऐसे कारोबारियों को सब कुछ छोड़कर महीनों या फिर सालों तक एजेंसी कार्यालयों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, जहां उनकी व्यथा को सुनने वाला कोई नहीं होता। एजेंसियों की बढ़ती सख्ती के बीच दूसरा दबाव टैक्स बेस बढ़ाने में मिली ‘नाकामी’ को लेकर भी दिख रहा है। एक लाख करोड़ मासिक तक पहुंचा जीएसटी कलेक्शन लगातार गिर रहा है। अक्टूबर में पिछले साल की तुलना में कलेक्शन 5.29 फीसद तक गिर गया। इसके दबाव में इस साल अब तक 22 अफसर नौकरी से किनारा कर चुके हैं। पिछले साल भी 34 अफसरों ने नौकरी छोड़ी थी। सवाल उठता है कि हालात सुधारने के लिए क्या किया जा रहा है? फौरी तौर पर तो सरकार ने सार्वजनिक कंपनियों के विनिवेश का सबसे आसान विकल्प चुना है। बीपीसीएल, एससीएल, टीएचडीसी इंडिया और नीपको में सरकारी हिस्सेदारी को बेचकर 51 फीसद से कम किया जा रहा है। इसका तत्काल प्रभाव तो दिख रहा है, लेकिन ये असर कितने दूर तक जाएगा ये सरकार नहीं, केवल वक्त बताएगा।

मंदी को स्वीकारने से बनेगी बात
असली सवाल फिर भी बना हुआ है। भारत इस आर्थिक मंदी से कैसे निकलेगा? इसकी बुनियादी जरूरत तो यही है कि पहले इस मंदी को स्वीकार किया जाए। पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी भले ही नामुमकिन न हो, लेकिन विकास दर की गिरावट के दौर में तो इसे हासिल करने का सपना भी पांच ट्रिलियन डॉलर के मूल्य का खतरा बन गया है। शायद इसीलिए सरकार ने भी इसकी डेडलाइन बढ़ाकर 2025 तक कर दी है, परंतु अर्थशास्त्री अब भी इसे दूर की कौड़ी ही बता रहे हैं। अभी हमारे देश में प्रति व्यक्ति सालाना आय करीब 2000 डॉलर है। इकोनॉमी जब 5 ट्रिलियन डॉलर होगी तो प्रति व्यक्ति सालाना आय 3,600 डॉलर तक पहुंचेगी। सालाना 3,600 डॉलर की ‘तरक्की’ के बावजूद भारत विकसित देशों में शुमार नहीं हो पाएगा। यानी ये सपना सच भी हो जाए तो हमारा स्टेटस नहीं बदलने जा रहा। विकसित देश होने के ‘सम्मान’ की न्यूनतम शर्त सालाना 12 हजार डॉलर की आय है। यानी मौजूदा आय का 6 गुणा, जिसे हासिल करना तो फिलहाल मृग मरीचिका ही लगता है। हालांकि इसके लिए सरकार आने वाले कल पर नजर रखते हुए गुजरे कल से प्रेरणा भी ले सकती है। उदारीकरण 1992 में शुरू हुआ था और पिछले 27 साल की उपलब्धि यह है कि हमारी प्रति व्यक्ति आय चार गुणा हुई है। मगर मुश्किल ये है कि हम इस बढ़त को बरकरार रखने में लगातार विफल हो रहे हैं। दावा तो आर्थिक विकास दर को डबल डिजिट में ले जाने का था, लेकिन सरकार अब इसकी गिरावट को रोकने का वादा करने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही है।

पांच ट्रिलियन का सपना सच कैसे होगा?
एक समय मौजूदा सरकार बताती थी कि कैसे देश को एक ट्रिलियन की इकोनॉमी बनने में 55 साल लग गए, जबकि उसने पांच साल में ही ये ‘कमाल’ कर दिखाया। इस दावे में कुछ गलत नहीं है किंतु ये बात भी उतनी ही सही है कि भारतीय इकोनॉमी 2.7 ट्रिलियन डॉलर से आगे नहीं बढ़ पाई है। तो फिर वही सवाल-पांच ट्रिलियन डॉलर का सपना सच कैसे होगा? जवाब सरकार से नहीं, रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्रियों से मिलता है। जो कहते हैं फिलहाल तो ये सपना ही रहने वाला है। सरकार की तय की गई डेडलाइन 2025 तक इसे हासिल करने के लिए कम-से-कम 7.5 फीसद की विकास दर चाहिए होगी जो 5 ट्रिलियन डॉलर की ही तरह सपना दिख रही है। ऐसा इसलिए भी है; क्योंकि -

निवेश निरंतर कम हो रहे हैं। 2008-09में निवेश व जीडीपी का अनुपात 40 फीसद था, वह 29 फीसद तक गिर गया है।

निवेश कम होने से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर पिछड़ रहा है। उपभोग में कमी से इस सेक्टर पर दोहरी मार पड़ी है। मांग सिकुड़ने से ऑटोमोबाइल से लेकर दूसरे सेक्टरों में भी उत्पादन का दायरा सिकुड़ गया। इससे औद्योगिक विकास न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है।

निवेश में कमी बचत में कमी का नतीजा भी है। 2008 में 37.8 फीसद बचत दर 2018 में 30.5 फीसद रह गई है। बचत में कमी ने वेतन बढ़ोतरी को प्रभावित किया है। 2010-11 में शहरी क्षेत्रों में वेतन में 20.5 फीसद की सालाना बढ़ोतरी दहाई से भी कम हो गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो केवल पांच साल में ये दर 27.2 फीसद से गिरकर पांच फीसद तक रह गई है।   

संकेत साफ है। निवेश, बचत और आमदनी तीनों में गिरावट है। ये आर्थिक मंदी नहीं तो फिर क्या है? कुछ दूसरे जरूरी पैरामीटर भी इस आशंका को मजबूत कर रहे हैं।

अर्थव्यवस्था के लिए चिंता जीडीपी में निर्यात की हिस्सेदारी को लेकर भी है। पिछले 15 साल में इसमें मामूली बढ़त ही हुई है - 11.78 फीसद से 12.09 फीसद।

बैंकिंग सेक्टर दबाव में है। साल 2017-18 में सार्वजनिक बैंकों का सम्मिलित घाटा 85,400 करोड़ रहा था। नॉन परफॉर्मिग एसेट के दबाव से वे मुक्त नहीं हो पाए हैं। बैंकों का विलय सकारात्मक विकल्प साबित नहीं हो पाया है। ऐसे में कर्मचारियों की छंटनी तय दिख रही है।

सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों की भी यही दशा है। टॉप-10 कंपनियों का घाटा 26,480 करोड़ हो चुका है।



तो ऐसे में विनिवेश के अलावा सरकार क्या कर रही है। विदेशी निवेश और निर्यात के साथ-साथ घरेलू बाजार में उपभोग और मांग बढ़ाने की सरकार की कोशिशें जारी हैं। आर्थिक नीतियों की भी समीक्षा हो रही है। हालांकि कोशिशों को और धार देने की जरूरत है। सरकार औद्योगिक विकास के लिए मौजूदा कानूनों को सख्त कर सकती है। साथ ही मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को मजबूती देने के लिए भूमि अधिग्रहण कानून को आसान बनाया जा सकता है। इससे नये अवसर भी पैदा होंगे। मगर चुनौती से निपटने की सबसे बुनियादी जरूरत का अवसर तो सरकार के सामने ही है कि वह कम-से-कम इस बात को तो स्वीकार करे कि देश में मंदी है।

उपेन्द्र राय


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