समस्या न बन जाए सवाल का समाधान
सबसे बड़ा सवाल तो समाधान को लेकर ही है। एनआरसी की पूरी प्रक्रिया के बाद जो घुसपैठिये चिह्नित होकर सामने आएंगे उनका क्या होगा? उनके साथ क्या सलूक किया जाएगा? अगर वे घुसपैठिये बांग्लादेशी हैं, तो क्या बांग्लादेश उसे स्वीकार करेगा? 1971 से अब तक 48 साल बीत चुके हैं। इतने समय से बाहर रह चुके व्यक्ति को बांग्लादेश अपना क्यों मानेगा?
समस्या न बन जाए सवाल का समाधान |
नागरिक होने के नाते कोई शख्स अगर देश को आगे बढ़ाने में सुई की नोक जितना भी काम करता है, तो वह अपनी नागरिकता की सबसे बड़ी जरूरत को पूरा करता है। नागरिकता की पहचान न तो केवल कर्तव्यों और अधिकारों का ज्ञान है और न ही उपलब्ध संसाधनों और अवसरों पर अधिकार है, बल्कि वह तो देश की तरक्की में दिया हुआ योगदान है। भले ही इसके रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन सच तो यह है कि यही एक नागरिक का मूल कर्तव्य है और उसे नागरिकता का अधिकार देने वाले देश की बुनियादी अपेक्षा भी।
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन और नागरिकता संशोधन बिल-2019पर देश में छिड़ी बहस इसी पहचान को लेकर अलग-अलग सोच का नतीजा है। संयोग से दोनों मुद्दे का संबंध देश के नागरिकों और नागरिकता से है। बुनियादी फर्क यह है कि एक का मकसद देश के संसाधनों पर बेजा अधिकार जमाए बैठे विदेशी लोगों या घुसपैठिये को पहचान कर उन्हें गृह मंत्री अमित शाह के शब्दों में ‘चुन-चुन कर बाहर भेजना’ है, जबकि दूसरे का लक्ष्य पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में इस्लाम को छोड़कर बाकी धर्म के प्रताड़ित लोगों को भारत की नागरिकता का अवसर देना है।
समस्या यह है कि जिन तर्कों से एक मसले पर उठे सवालों को ठंडा किया जाता है, दूसरे मसले के लिए उन्हीं तर्कों से नए सवालों को गरमी मिलती है। एनआरसी के लिए देश के सीमित संसाधन और उन पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव दलील का काम करते हैं। घुसपैठियों को देशवासियों का हक छीनने वाला बताया जाता है, लेकिन नागरिकता संशोधन बिल की तकरीर में इस तर्क को ‘सुविधा’ के लिए भुला दिया जाता है। क्या केवल इसलिए कि जिन्हें निकाला जाना है, वे मुस्लिम हैं और जिन्हें बुलाया जाना है, वे गैर-मुस्लिम हैं? सवालों के बाण यहीं से निकल रहे हैं।
धार्मिंक विभेद की संदिग्ध धुरी पर टिके इस सवाल का विस्तार हमारे संविधान को ही चुनौती देता दिखता है। धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र की स्थापना हमारे संविधान की आत्मा है। इसके मायने यह हैं कि देश के एक-एक नागरिक को किसी भी धर्म या आस्था का स्वतंत्र रूप से पालन और प्रचार करने का अधिकार है। यह आग्रह इतना व्यापक है कि इससे धार्मिंक स्वतंत्रता के अधिकार को एक मौलिक अधिकार तक का दर्जा दिया गया है। इसी तरह, संविधान में इस खतरे का इशारा भी मिलता है कि धार्मिंक संघर्ष का कारण विचारों में मतभेद से कहीं अधिक राजनैतिक होता है।
वैसे किसी आलोचना से पहले उन तर्कों पर भी गौर करना जरूरी है, जो एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल को लेकर दिए जा रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह कई अवसरों पर स्पष्ट कर चुके हैं कि सरकार न तो किसी के खिलाफ है, न ही नागरिकों का रजिस्टर तैयार करने की नीति में नीयत का कोई खोट है। उनकी मंशा तो केवल विदेशियों की पहचान करना है।
‘नये बंटवारे की साजिश’
लेकिन सवाल तब उठता है, जब एनआरसी के तहत जो लक्ष्य घुसपैठिया को ‘चुन-चुन’ कर देश से बाहर भेजने वाला होता है, वही नागरिकता संशोधन के मसले पर ‘ढूंढ़-ढूंढ़’ कर देश का नागरिक बनाने की ओर अग्रसर हो जाता है। तर्क ये कि जिन गैर-मुस्लिमों को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में जुल्म सहना पड़ रहा है, उन्हें भारत पनाह नहीं देगा तो कौन देगा? और दलील यह कि जिस तरह बांग्लादेश ने रोहिंग्या शरणार्थियों की चिंता की, उसी तरह मुसलमानों के लिए और भी कई देश शुभचिंतक बन सकते हैं।
आनेवाले कल का ये ‘दर्शन’ गुजरे वक्त से मिले ‘आासन’ की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। जब सीमाओं का बंटवारा हुआ, तब देश के हर नागरिक के पास इधर या उधर जाने या फिर अपनी जगह पर ही बने रहने का विकल्प था। पाकिस्तान ने धर्म को लक्ष्य बना कर इस्लामिक राष्ट्र बनना पसंद किया, जबकि हमने संविधान को आधार बनाकर अपने नागरिकों को धर्म, जाति, लिंग, भाषा पर समान अधिकार का वादा किया। नागरिकता संशोधन बिल का मौजूदा स्वरूप इस मूल आधार पर चोट की तरह दिखता है। इस्लाम को मानने वाले इसे ‘भेदभाव’ कह रहे हैं, तो विपक्षी दल इसे भारत के ‘नए बंटवारे’ की साजिश बता रहे हैं।
इस मसले से जुड़े और भी कई सवाल हैं, जिनका समस्या बन जाने का खतरा है। बंटवारे के समय पाकिस्तान में हर पांचवां शख्स हिन्दू था, 72 साल बाद आज वहां हर 52वां व्यक्ति हिन्दू है। पाकिस्तान में जिस तेजी से हिन्दू आबादी कम हुई है, उसी अनुपात में उन पर जोर-जुल्म बढ़े हैं। ऐसे में नागरिकता संशोधन बिल का विकल्प मिलने के बाद शायद ही कोई हिन्दू या सिख पाकिस्तान में रहना चाहेगा। अगर कोई रहना भी चाहेगा तो कट्टरपंथी ताकतें उसे वहां से भागने को विवश कर देंगी। सवाल यह है कि क्या नया कानून पाकिस्तान को हिन्दू मुक्त नहीं कर देगा?
बांग्लादेश और अफगानिस्तान के भी इसी राह पर बढ़ने की आशंका है। वर्तमान में बांग्लादेश में हिन्दू महज 8.6 फीसद रह गए हैं। पहली जनगणना के समय यह आंकड़ा 22.3 फीसद था। अफगानिस्तान में 80 के दशक में हिन्दुओं और सिखों की आबादी 2.20 लाख थी, जो तालिबान के जुल्मो-सितम के कारण हुए पलायन के बाद आज महज 1,320 रह गई है।
आयातित आबादी को उपहार की जल्दबाजी
पलायन का यह सिलसिला वि राजनीति में हमारी हैसियत पर भी सवाल खड़े करता है। प्रताड़ित हिन्दुओं और सिखों को पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में ही सुरक्षा मिल पाती, इसके लिए दबाव नहीं डाला जा सका। इसे भारत सरकार की कमजोरी क्यों न माना जाए? क्या किसी अमेरिकी नागरिक को दुनिया में कहीं इस तरह प्रताड़ित किया जा सकता है? आखिर क्यों भारत भी अमेरिका जैसी हैसियत हासिल नहीं कर सकता?
आयातित आबादी को नागरिकता का उपहार देने की जल्दबाजी भी सवालों में घिर रही है। नया बिल पारित हो जाने के बाद भारत की नागरिकता के लिए किसी विदेशी को 11 साल के बजाए केवल 6 साल ही इंतज़ार करना होगा। अनुमान है कि इस समय देश में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हुए करीब एक करोड़ ऐसे लोग रहे हैं, जिन्हें भारत की नागरिकता नहीं मिली है। इन्हें नागरिकता मिलने का सबसे ज्यादा असर कश्मीर, पश्चिम बंगाल, असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में दिखेगा।
असम में पहले से ही एनआरसी को लेकर शंका का माहौल बना हुआ है। साल 1985 में जो असम समझौता हुआ था, उसमें सिटिजन रजिस्टर में संशोधन का मकसद गैर-असमियों की पहचान करना था। इसमें बांग्लादेशी मुसलमान यानी घुसपैठिये भी होते और पश्चिम बंगाल के बंगाली भी। सरकारी पड़ताल में असम में करीब 19 लाख एनआरसी से बाहर हुए हैं- उनमें देशी भी हैं, विदेशी भी। सवाल उठता है कि देशी बंगाली को घुसपैठिया कैसे कहा जा सकता है? एक राज्य का व्यक्ति भले ही दूसरे राज्य का मूल निवासी न हो, लेकिन उस पर विदेशी होने की पहचान कैसे चस्पा की जा सकती है? क्योंकि यह प्रक्रिया अभी चल ही रही है। इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इस आपत्ति को जरूर दूर कर लिया जाएगा। यह भी कम आश्चर्य का विषय नहीं है कि एनआरसी से बाहर हुए 19 लाख लोगों में हिन्दू और मुसलमानों की आबादी में बड़ा फर्क नहीं है। सबसे बड़ा सवाल तो समाधान को लेकर ही है। एनआरसी की पूरी प्रक्रिया के बाद जो घुसपैठिये चिह्नित होकर सामने आएंगे उनका क्या होगा? उनके साथ क्या सलूक किया जाएगा? अगर वे घुसपैठिये बांग्लादेशी हैं, तो क्या बांग्लादेश उसे स्वीकार करेगा? 1971 से अब तक 48 साल बीत चुके हैं। 48 साल देश से बाहर रह चुके व्यक्ति को बांग्लादेश अपना क्यों मानेगा? पश्चिम बंगाल में एनआरसी को लागू नहीं होने देने की ममता बनर्जी की घोषणा और पूरे देश में एनआरसी को लागू करने संबंधी अमित शाह के एलान में जो राजनीति है, वह घुसपैठिये को लेकर ही है। ममता बनर्जी असम में बंगालियों को घुसपैठिया बताने को बंगाली अस्मिता का मुद्दा बनाने की कोशिश में हैं, जबकि केंद्र सरकार का लक्ष्य इस मुद्दे को देशव्यापी बनाना दिख रहा है।
मोटे तौर पर देखें तो दोनों मसलों में केंद्र सरकार की नीयत ही असल मुद्दा है। हिन्दुओं की रक्षा अगर मकसद है तो ऐसा कदम हिन्दुओं के हित में कैसे माना जाए जिसमें पड़ोसी देशों से हिन्दुओं का ही सफाया हो जाने का खतरा है? प्रताड़ित लोगों को शरण देने का आधार अगर मानवीयता है तो इस्लाम मानने वाले इससे महरूम क्यों रहे? बड़ी चिंता यही है कि इस पूरी कवायद से देश को क्या हासिल होगा?
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