मतदाता सूची पुनरीक्षण : विरोध का क्या है औचित्य
बिहार में विशेष मतदाता सूची पुनरीक्षण या इंटेंसिव रिवीजन का इलेक्टरल रोल जिस तरह विरोध और हंगामा का विषय बना है वह अनपेक्षित कतई नहीं है।
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कांग्रेस पार्टी और अनेक भाजपा विरोधी दल, एक्टिविस्ट, पत्रकार, एनजीओ आदि काफी समय से चुनाव आयोग विरोधी तीखा अभियान चला रहे हैं। राहुल गांधी तो पुनरीक्षण आरंभ होने के पहले से ही आरोप लगा रहे हैं कि हेर-फेर कर भाजपा को जिताने का काम चुनाव आयोग करेगा। विरोधी बार-बार आयोग के विरु द्ध उच्चतम न्यायालय जाते और निराश वापस आते हैं।
उच्चतम न्यायालय ने इस बार भी पुनरीक्षण प्रक्रिया रोकने की उनकी अपील खारिज कर दिया। हालांकि आगे वह सुनवाई के लिए सहमत हुआ है। सुनवाई के एक दिन पहले इंडिया गठबंधन की ओर से राहुल गांधी और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में बिहार की राजधानी पटना में चुनाव आयोग के कार्यालय तक मार्च किया गया। चुनाव आयोग का विज्ञापन कहता है कि गणना प्रपत्र भरने की अवधि 25 जून से 26 जुलाई है और मतदाता सूची का प्रारूप प्रकाशन 1 अगस्त , 2025 को होगा। दावे और आपत्तियों की अवधि 1 अगस्त से 1 सितम्बर, 2025 है और अंतिम मतदाता सूची का प्रकाशन 30 सितम्बर, 2025 को किया जाएगा। इसका अर्थ हुआ कि किसी का नाम छूट गया तो दावा करने के लिए एक महीने का समय है।
तो बिना देखे कि किसका नाम जुड़ा, नहीं जुड़ा इस तरह के विरोध का औचित्य क्या है? आयोग पर पहला आरोप है कि वह इतनी जल्दी बड़े प्रदेश के मतदाताओं की सूची कैसे बना लेगा? जब 2002 में मतदाता सूची का बिहार में पुनरीक्षण हुआ था तब 15 जुलाई से 14 अगस्त यानी वर्तमान के अनुसार ही 31 दिन का समय था। क्या 22- 23 वर्ष के बाद मतदाता सूची की गहनता से जांच-परख नहीं होनी चाहिए? अगर चुनाव आयोग ने इसके लिए आवश्यक जनसंपर्क और आधार कार्य नहीं किया तो आलोचना होगी। मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा है कि पिछले 4 महीने में प्रत्येक विधानसभा, जिला में सर्वदलीय बैठक की गई और लगभग 5 हजार ऐसी बैठकों में 28 हजार लोगों ने भाग लिया।
आयोग ने लगभग 80 हजार बीएलओ या बूथ लेवल ऑफिसर नियुक्त किए हैं जो मतदाताओं के घर पहुंच रहे हैं। राजनीतिक दलों ने भी 1.54 लाख बूथ लेवल एजेंट बनाए हैं। भारी संख्या में स्वयंसेवक भी सक्रिय हैं। कुल 16 करोड़ इन्यूमरेशन फॉर्म प्रकाशित किए गए। एक फॉर्म रिसिप्ट के रूप में मतदाता के पास रहेगा और दूसरा बीएलओ रखेंगे। ऑनलाइन पोर्टल पर भी फॉर्म जमा करने की व्यवस्था है। इसलिए यह नहीं कह सकते कि ड्राइव बिल्कुल अव्यावहारिक है। पहचान सुनिश्चित करने पर चुनाव आयोग के जोर का सबसे तीखा विरोध हो रहा है। पहले कुछ तथ्य पर बात करें। 1 जनवरी, 2003 की सूची में मतदाताओं की संख्या 4 करोड़ 96 लाख थी। वर्तमान में यह संख्या 7 करोड़ 89 लाख है। तो लगभग 2 करोड़ 93 लाख मतदाताओं को ही पहचान सुनिश्चित करनी होगी। जिन मतदाताओं के नाम 2003 में है उसके अलावा जिनका नाम आया उनको ही जन्मतिथि, जन्म स्थान आदि साबित करने वाले दस्तावेज देने होंगे।
उनमें भी माता-पिता का नाम 2003 मतदाता सूची में है तो माता-पिता की पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज देने की आवश्यकता नहीं। केवल 2003 वाली मतदाता सूची के उस हिस्से की कॉपी बीएलओ को देनी होगी जिसमें उनके माता-पिता का नाम लिखा है। जिनके नाम 2003 में हैं उन्हें केवल उसकी फोटो कॉपी बीएलओ को फॉर्म जमा करते समय देनी है जिसमें उनका नाम है। क्या 2003 की मतदाता सूची में नाम न होने वाले के पास अगर जन्मतिथि तथा जन्म स्थान साबित करने के प्रमाण नहीं हो तो नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं होगा?
इसकी आशंका है। पर आयोग का कहना है कि दस्तावेजविहीन व्यक्ति की भारतीय पहचान को सुनिश्चित करने का काम क्षेत्र के एसडीम करेंगे और उनके कागजात का पता लगाने के लिए वालंटियर नियुक्त किए गए हैं। बिहार में चुनाव आयोग ने यह डरावनी जानकारी दी है कि पुनरीक्षण में ऐसे विदेशी नागरिक मिले जो मतदाता बन चुके हैं। उनकी जानकारी गृह मंत्रालय को दी जा रही है और नागरिकता सुनिश्चित होने के बाद ही तय होगा कि वे मतदाता रहेंगे या नहीं। राजनीतिक दलों ने इस पर भी तूफान खड़ा कर दिया। नि:संदेह, आधार कार्ड या राशन कार्ड बनवाना आसान नहीं होता। इसलिए चिंता का विषय है कि यह हमारी नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है। बिहार के भारी मुसलमान जनसंख्या वाले चार सीमांचल जिलों में आधार कार्ड के आंकड़े हैरत में डालते हैं।
बिहार में औसत आधार कार्ड आबादी के 94 फीसद है। किशनगंज में 68 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है और आधार सैचुरेशन 126 प्रतिशत है, कटिहार (44%) में 123%, अररिया (43%) में 123%, और पूर्णिया (38%) में 121% आधार सैचुरेशन है। आबादी से अधिक आधार कार्ड कैसे बने हुए हैं? पिछले वर्ष अररिया में एक बंगलादेशी घुसपैठियों पकड़ा गया जिसके पास पश्चिम बंगाल के 24 परगना से बना आधार कार्ड और मतदाता पहचान पत्र था। बांग्लादेशी घुसपैठियों की लड़ाई केवल असम और बंगाल में नहीं बिहार के इन सीमांचल जिलों में भी रही है। क्या विरोधियों के दबाव में उन सबकी जांच नहीं होनी चाहिए? संविधान की धारा 326 चुनाव आयोग को भारतीय नागरिकों को मतदाता के रूप में अंकित करने का अधिकार देता है। हालांकि नागरिकता की पहचान चुनाव आयोग की जिम्मेवारी नहीं है। इसीलिए उसने गृह मंत्रालय को मामला स्थानांतरित किया है।
विरोधी चाहे इसे एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को परोक्ष रूप से लागू करना माने या कुछ और किंतु भारतीय नागरिकों तक ही मतदान की व्यवस्था और पूरी मतदान प्रणाली की शुचिता तथा भारतीय सुरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से सतर्कता आवश्यक है। एक बार मतदाता सूची का प्रारूप आ जाने दीजिए और देखिए कि कितने लोग पात्र लोग इससे वंचित होते हैं। अगर संख्या बहुत ज्यादा होती है तो उसके लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए। जहां एक भी पात्र नागरिक सूची में स्थान पाने से वंचित नहीं हो वही एक भी अपात्र उसमें शामिल नहीं हो यह भी आयोग, राजनीतिक दलों, प्रशासन और हम सबका दायित्व है।
(लेख में विचार निजी हैं)
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