मुद्दा : अंग सौदागरों का घातक संजाल

Last Updated 08 Apr 2024 12:55:03 PM IST

पैसों की हवस के आगे इंसान इतना गिर जाए कि जिंदा इंसानों के शरीर के अंग बेचने लग जाए? भला कौन विास करेगा कि यह भी अब उन कुछ वहशियों का कारोबारी हिस्सा है, जो बाकयदा गैंग बनाकर, सुनियोजित तरीके से लगे हुए हैं।


हैरानी तब ज्यादा होती है जब इसमें देवालय सदृश्य अस्पतालों के बड़े-बड़े रुतबेदार और ओहदेदार भी हिस्सेदार होते हैं। इस अवैध धंधे ने बहुत गहरी जड़ें कम समय में ऐसी जमा ली हैं कि धंधेबाज सरकार और प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं।

भारत में भी सीमा पार तक से गुपचुप तरीके से स्वस्थ लोगों के अंगों को खरीदने-बेचने का सिलसिला तेजी से पनप रहा है। इत्तेफाक से कोई मामला सामने आता है तो उसकी जड़ों तक पहुंचता जांच दल हक्का-बक्का रह जाता है। कैसे, कितनी सफाई से आंखों में धूल झोंक, इतना बड़ा कांड होता रहा और भनक तक नहीं लगी? बीते हफ्ते बांग्लादेश से बुलाकर जयपुर में अवैध तरीके से किडनी ट्रांसप्लांट करवाने वाले गिरोह का गुरु ग्राम में भांडाफोड़ हुआ। छापेमारी में किडनी ट्रांसप्लांट करा चुके और कराने वाले डोनर, मरीज सहित 4 लोग हत्थे चढ़े।

इनसे खुलासा हुआ कि मरीजों से 10-12 लाख रु पये वसूले जाते, जबकि डोनर को महज दो लाख बांग्लादेशी टका पकड़ाते। पकड़ाए बांग्लादेशी किडनी डोनर शमीम ने हैरान कर देने वाली जानकारी दी। उसने फेसबुक पर किडनी डोनेट करने का विज्ञापन देखकर भारत में मुर्तजा से संपर्क साधा। उसके कई मेडिकल टेस्ट हुए। उसे कोलकाता के मेडिकल वीजा पर गुरु ग्राम में रु कवाया गया। आधार और दूसरे कई फर्जी कागज बने। पता चला कि गुरु ग्राम का बड़ा अस्पताल देख इनके जाल में लोग फंस जाते। बाद में इसी अस्पताल की जयपुर ब्रांच में ट्रांसप्लांटेशन का खेल होता। मुर्तजा झारखंड का है। लंबे समय से इस धंधे में लिप्त है।

फरवरी, 2019 में कानपुर पुलिस ने एक बड़े किडनी-लीवर बेचने वाले गिरोह का पर्दाफाश किया। गिरोह गरीब को फंसाता और दिल्ली में किडनी बिकवाता। छह लोगों गिरफ्तार हुए जिनके तार न केवल कानपुर से दिल्ली, नोएडा, बल्कि विदेशों से भी जुड़े निकले। गिरोह किडनी बेचने वाले मजबूर को 3-5 लाख रुपये बमुश्किल देता वहीं जरूरतमंद से 30 लाख रु पये से भी ज्यादा वसूलता। जांच में खुलासा हुआ कि गैंग का सरगना टीआरके राव 2016 में अपोलो हॉस्पिटल किडनी कांड में जेल जा चुका है। विडंबना कहें या कानून से बेखौफ निर्लज्जता जेल से बाहर आते ही फिर इसी गोरखधंधे में लग गया। एक दूसरा आरोपी सबूर 2015 में जालंधर किडनी कांड में जेल जा चुका है।

निश्चित रूप से ऐसी घृणित साजिश और कारोबार के पीछे चंद सफेदपोश मेडिकल प्रोफेसनल और उनका गिरोह होता है। ये इस पवित्र पेशे में आते वक्त हिप्पोक्रेटिक शपथ लेकर अपने चिकित्सकीय पेशे अनुरूप सेवा, कार्य और न्याय की शपथ लेते हैं। लेकिन अवैध कमाई के लालच में सब कुछ भूल, दैत्य और नरपिशाच सा काम करने लगते हैं। हमारे कानून में अंग प्रत्यारोपण और दान की तो इजाजत है लेकिन अवैध खरीद-फरोख्त की कतई नहीं। मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 में जीवित और मृत मस्तिष्क वाले दानदाता को इसकी इजाजत है। 2011 में अधिनियम में संशोधन कर, मानव ऊतकों यानी टिश्यू दान को भी शामिल किया गया।

भारत में मानव अंगों के गैर-कानूनी कारोबार पर 5 से 10 साल तक की कैद और 20 लाख से 1 करोड़ रु पये तक के जुर्माने का प्रावधान है जबकि मानव ऊतक के धंधे पर एक से तीन साल की कैद और 5 से 25 लाख रु पये तक के जुर्माने का प्रावधान है। इतने सख्त कानून के बावजूद धड़ल्ले से मानव अंगों की खरीद-फरोख्त चिंताजनक है। ग्लोबल फाइनेंशियल इंटीग्रिटी (जीएफआई) के अनुसार विश्व में अंग तस्करी में किडनी की मांग सर्वाधिक है। जितने अंग प्रत्यारोपण  होते हैं, उसमें 10 प्रतिशत तस्करी से होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि सालाना 10,000 किडनियों की तस्करी होती है अर्थात हर घंटे एक या उससे भी अधिक। भारत में भी आंकड़ा बड़ा होगा।

अवैध अंग प्रत्यारोपण गैंगस्टर जैसा अपराध है। इसमें शामिल चिकित्सकीय पेशेवर 0.1 प्रतिशत से भी कम होंगे जो शेष पर भारी पड़ रहे हैं। इसे रोकने का सामथ्र्य कानून से ज्यादा पेशे से जुड़े शेष प्रोफेसनल्स में है। वही बेलगाम होते इस धंधे की परतें उधेड़ सकते हैं। बस जरूरत है कि इनकी सुरक्षा, गोपनीयता बनाए रखने के साथ मान-सम्मान को बरकरार रखा जाए ताकि ऐसे लोग स्वयमेव आगे आएं।

ऋतुपर्ण दवे


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