जल संकट : हिंसक झड़पों में न बदल जाए

Last Updated 08 Apr 2024 01:18:56 PM IST

बेंगलुरु में भीषण पेयजल संकट पिछले कुछ दिनों से अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बन रहा है। हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा कि बेंगलुरु को हर दिन 500 मिलियन लीटर पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जो शहर की कुल दैनिक मांग का लगभग पांचवा हिस्सा है।


जल संकट : हिंसक झड़पों में न बदल जाए

हालांकि, पानी की कमी केवल बेंगलुरु  तक ही सीमित नहीं है। संपूर्ण कर्नाटक के साथ ही तेलंगाना और महाराष्ट्र के निकटवर्ती क्षेत्र भी पानी की कमी का सामना कर रहे हैं। इसका अधिकांश संबंध पिछले एक वर्ष में इस क्षेत्र में सामान्य से कम वष्रा और इस क्षेत्र में भूमिगत जलभृतों की प्रकृति से है।

अरबों-खरबों रुपया जल संसाधन के संरक्षण एवं प्रबंधन पर आजादी के बाद खर्च किया जा चुका है। बावजूद हालात ये हैं कि भारत के सर्वाधिक वष्रा वाले क्षेत्र चेरापूंजी (मेघालय) तक में पीने के पानी का संकट है। कभी श्रीनगर (कश्मीर) बाढ़ से तबाह होता है, कभी मुंबई और गुजरात के शहर और बिहार-बंगाल का तो कहना ही क्या। हर मानसून में वहां बरसात का पानी भारी तबाही मचाता है। दरअसल, सारा संकट पानी के प्रबंधन की आयातित तकनीक अपनाने के कारण हुआ है वरना भारत का पारंपरिक ज्ञान जल संग्रह के बारे में इतना वैज्ञानिक था कि यहां पानी का कोई संकट ही नहीं था। पारंपरिक ज्ञान के चलते अपने जल से हम स्वस्थ रहते थे।

हमारी फसल और पशु सब स्वस्थ थे। पौराणिक ग्रंथ ‘हरित संहिता’ में 36 तरह के जल का वर्णन आता है जिसमें वष्रा के जल को पीने के लिए सर्वोत्तम बताया गया है, और जमीन के भीतर के जल को सबसे निकृष्ट यानी 36 के अंक में इसका स्थान 35वां आता है। 36वें स्थान पर दरिया का जल बताया गया है। दुर्भाग्य देखिए, आज लगभग पूरा भारत जमीन के अंदर से खींचकर ही पानी पी रहा है जिसके अनेक नुकसान सामने आ रहे हैं। पहला तो इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा तय सीमा से कहीं ज्यादा होती है, जो अनेक रोगों का कारण बनती है।इससे खेतों की उर्वरता घटती जा रही है, और खेत की जमीन क्षारीय होती जा रही है।

लाखों हेक्टेयर जमीन हर वर्ष भूजल के अविवेकपूर्ण दोहन के कारण क्षारीय बन खेती के लिए अनुपयुक्त हो चुकी है। दूसरी तरफ बेदर्दी से पानी खींचने के कारण भूजल स्तर तेजी से नीचे घटता जा रहा है। हमारे बचपन में हैंडपंप को बिना बोरिंग किए कहीं भी गाढ़ दो, तो 10 फीट नीचे से पानी निकल आता था जो आज सैकड़ों फीट नीचे चला गया। भविष्य में वो दिन भी आएगा, जब एक गिलास पानी 1000 रुपये का बिकेगा क्योंकि इसे रोका न गया तो इस तरह तो भूजल स्तर हर वर्ष तेजी से गिरता चला जाएगा। आधुनिक वैज्ञानिक और नागरीय सुविधाओं के विशेषज्ञ दावा करते हैं कि केंद्रीकृत टंकियों से पाइपों के जरिए भेजा गया पानी ही सबसे सुरक्षित होता है पर यह दावा अपने आप में जनता के साथ धोखा है। इसके कई प्रमाण मौजूद हैं जबकि वष्रा का जल जब कुंडों, कुओं, पोखरों, दरियाओं और नदियों में आता था, तो सबसे ज्यादा शुद्ध होता था। इन सबके भर जाने से भूजल का स्तर भी ऊंचा बना रहता था।

जमीन में नमी रहती थी। उससे प्राकृतिक रूप में फल, फूल, सब्जी और अनाज भरपूर मात्रा में और उच्च कोटि के पैदा होते थे पर बोरवेल लगाकर भूजल के इस पािक दोहन ने ये सारी व्यवस्थाएं नष्ट कर दीं। पोखर और कुंड सूख गए क्योंकि उनके जल संग्रह क्षेत्रों पर भवन निर्माण कर लिए गए हैं। वृक्ष काट दिए गए जिससे बादलों का बनना कम हो गया। नदियों और दरियाओं में औद्योगिक और रासायनिक कचरा और सीवरलाइन का गंदा पानी बिना रोक-टोक हर शहर में खुलेआम डाला जा रहा है जिससे नदियां मृत हो चुकी हैं। इसलिए देश में लगातार जल का संकट बढ़ता जा रहा है। जल का यह संकट आधुनिक विकास के कारण पूरी पृथ्वी पर फैल चुका है। वैसे तो हमारी पृथ्वी का 70 फीसद हिस्सा जल से भरा है पर इसका 97.3 फीसद जल खारा है। मीठा जल कुल 2.7 फीसद है जिसमें से केवल 22.5 फीसद जमीन पर है, शेष ध्रुवीय क्षेत्रों में। इस उपलब्ध जल का 60 फीसद खेत और कारखानों में खप जाता है, शेष हमारे उपयोग में आता है यानी दुनिया में उपलब्ध 2.7 फीसद मीठे जल का भी केवल एक फीसद हमारे लिए उपलब्ध है, और उसका भी संचय-प्रबंधन विवेक  से न करके हम उसका भारी दुरुपयोग कर रहे हैं, और उसे प्रदूषित कर रहे हैं।

अनुमान लगाया जा सकता है कि हम अपने लिए कितनी बड़ी खाई खोद रहे हैं। जल संचय-संरक्षण को लेकर आधुनिक विकास मॉडल के विपरीत जाकर वैदिक संस्कृति के अनुरूप नीति बनानी पड़ेगी। तभी हमारा जल, जंगल, जमीन बच पाएगा वरना तो ऐसी भयावह स्थिति आने वाली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जो ठोकर खा कर संभल जाए उसे अक्लमंद मानना चाहिए। पर जो ठोकर खाकर भी न संभले और बार-बार मुंह के बल गिरता रहे, उसे महामूर्ख या नशेड़ी समझना चाहिए। हिन्दुस्तान के शहरों में रहने वाले हम लोग दूसरी श्रेणी में आते हैं। हम देख रहे हैं कि हर दिन पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है। यह भी देख रहे हैं कि जमीन के अंदर पानी का स्तर घटता जा रहा है। हम अपने शहर और कस्बों में तालाबों को सूखते हुए भी देख रहे हैं। अड़ौस-पड़ौस के हरे-भरे पेड़ों को गायब होता भी देख रहे हैं। पर ये सब देख कर भी मौन हैं। जब नल में पानी नहीं आता तब घर की सारी व्यवस्था चरमरा जाती है। बच्चे स्कूल जाने को खड़े हैं, और नहाने को पानी नहीं है। नहाना और कपड़े धोना तो दूर पीने के पानी तक का संकट बढ़ता जा रहा है। जो पानी मिल भी रहा है, उसमें तमाम तरह के जानलेवा रासायनिक मिले हैं।

ये रासायनिक कीटनाशक दवाइयों और खाद के रिस कर जमीन में जाने के कारण पानी के स्रेतों में घुल गए हैं। अगर यूं कहा जाए कि चारों तरफ से आफत के पास आते खतरे को देख कर भी हम बेखबर हैं, तो अतिश्योक्ति न होगी। पानी का संकट इतना बड़ा हो गया है कि कई टीवी चैनलों ने देश के कोने-कोने का समाचार नियमित देना शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर हमने का ढर्रा नहीं बदला, तो आने वाले वर्षो में पानी के संकट से जूझते लोगों के बीच हिंसा बढ़ना आम बात होगी।

विनीत नारायण


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