राजनीति : हिन्दुत्व के साथ सोशल इंजीनियरिंग

Last Updated 24 Feb 2024 11:42:59 AM IST

पिछले दिनों संसद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब आगामी लोक सभा चुनाव में अपनी पार्टी के 400 पार के जुमले को उछाला तब इसे अखबारी सुर्खियां मिलना स्वाभाविक था।


राजनीति : हिन्दुत्व के साथ सोशल इंजीनियरिंग

मिला भी। 545 सीटों वाली लोक सभा में चार सौ पार करने का मतलब होता है तीन चौथाई का बहुमत छूना। यह खतरनाक बहुमत है, जो बीमार लोकतांत्रिक ढांचे का संकेतक है, लेकिन यह कई बार संभव हुआ है।

आरंभिक  चुनावों की बात न भी करें तो पिछले पचास साल के चुनावी इतिहास में 1984 में कांग्रेस ने 416 सीटें लाकर तीन चौथाई सीटें हासिल करने का करिश्मा दिखलाया था। मोदी उस लक्ष्य को हासिल कर लोकतांत्रिक इतिहास में अपना नाम दर्ज करना चाहते हैं तो उन्हें इसका अधिकार है, क्योंकि पिछले दो लोक सभा चुनावों ने उन्होंने अपना करिश्मा दिखलाया है।

अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर स्थापित कर और कांग्रेस के नेतृत्व में गठित इंडिया गठबंधन को छिन्न-भिन्न कर उन्हें यह कहने का साहस हुआ है। यह सच है कि भारतीय राजनीतिक प्रतिपक्ष फिलहाल निस्तेज नजर आ रहा है। यद्यपि जनगण की समस्याएं और राष्ट्रीय संकट कम नहीं हैं। किसानों और दूसरे कामगारों की तकलीफें बढ़ी हैं और किसान एक बार फिर दिल्ली में दस्तक दे रहे हैं। रोजगार, स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्र के संकट गहरा रहे हैं। युवा तबका सब से बुरे दौर से गुजर रहा है। इन सब को नजर-अंदाज करते हुए  प्रधानमंत्री बार-बार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की सरकारी उपलब्धि का उल्लेख कर रहे हैं।  

देश की दो तिहाई आबादी का मुफ्त राशन के लायक बनाना उसकी बेचारगी और कंगाली का परिचायक है, न कि समृद्धि का। इसका मतलब है मुल्क में कुछ लोग इतने ताकतवर हो गए हैं कि दो तिहाई आबादी का पेट उनके बूते भरा जा रहा है। सवाल उठता है कौन है यह भारत भाग्य-विधाता वर्ग, जो पूरे देश को पाल-पोस रहा है? यह सब किस तरह के भारत की तस्वीर पेश कर रहा है? इंडिया और भारत का विभाजन इतना गहरा हो गया है कि एक दाता  और दूसरा याचक बन गया है। मैं यह मान कर चल रहा हूं कि भाजपा और मोदी फिलहाल विपक्ष पर भारी हैं। इसके कुछ कारण हैं। जो भाजपा के आलोचक हैं, उन्हें भी इस तथ्य पर गौर करना चाहिए।

अपनी तमाम कमियों के बावजूद भाजपा ही एक पार्टी है जिसमें आंतरिक लोकतंत्र कुछ हद तक है। कोई नहीं कह सकता कि किसी परिवार या व्यक्ति के पॉकेट में वह दल है। दूसरे, भला-बुरा जो हो, एक स्थिर नीति-सिद्धांत पर वह चल रहा है। हिन्दू राष्ट्र आरएसएस का लक्ष्य है, भाजपा का नहीं। भाजपा का लक्ष्य भारतीय राजनीति को हिन्दू या हिन्दुत्व-केंद्रित कर देना है। जैसे समाजवादियों का लक्ष्य समाजवाद-केंद्रित राजनीति उनके आरंभिक दौर में था, लेकिन हिंदुत्व की राजनीति को यह लोकप्रियता आखिर कैसे हासिल हो रही है कि भाजपा का वोट चुनाव दर चुनाव बढ़ता जा रहा है। 2014 के मुकाबले 2019 में उसका वोट लगभग 6 फीसद बढ़ा और यदि आगामी लोक सभा चुनाव में वह इस रफ्तार को बनाए रखती है तो सचमुच वह तीन चौथाई सीटें हासिल कर सकती है।

1952 के चुनाव में केवल तीन सीट लाने वाला भारतीय जनसंघ और 1984 में केवल दो सीट लाने वाली भाजपा आज यदि इस मुकाम पर है तो उसके कारण होंगे। इसकी पड़ताल होनी चाहिए। इसका एक बड़ा कारण जो मेरी समझ में आ रहा है वह है उनकी हिन्दुत्व की नई आयोजना। मोदी का हिन्दुत्व सावरकर, आरएसएस और भारतीय जनसंघ के हिन्दुत्व से कुछ अलग है। स्पष्ट है कि इसकी डिजाइन में  उन्होंने लोहियावादियों की जाति-नीति का समावेश किया है और इसे सामाजिक भागीदारी अथवा सोशल इंजीनियरिंग के साथ हिन्दुत्व (हिन्दुत्व विथ सोशल इंजीनियरिंग) कर दिया है। 2014 के चुनाव से ही मोदी ने जाति के हथियार का इस्तेमाल किया, जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को ओबीसी नेता कहा।

समाजवादियों ने अपनी जाति-नीति को भले ही उच्च ओबीसी तक सीमित कर दिया हो, मोदी इसे उसकी जड़ों तक ले गए। स्वयं तो प्रधानमंत्री हैं ही, अपने कार्यकाल में दलित और आदिवासी संवर्ग से एक-एक राष्ट्रपति बना कर उन्होंने उन वगरे में संदेश दिए। मुख्यमंत्रियों के चुनाव में जाति-नीति के वैविध्य (डाइर्वसटिी) को संभव किया। उनके मुख्यमंत्रियों के चुनाव को कोई भी देख-समझ सकता है। हिन्दी हृदय प्रदेश में जहां जाति के प्रश्न साफ तौर से राजनीति से जुड़े थे, भाजपा ने नए प्रयोग किए। उत्तर प्रदेश और बिहार में लोकदली अवशेषों को कमजोर करने में पूरा जोर लगाया।

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी आज जिस स्थिति में है उसे कोई भी देख सकता है। बिहार में  राजद और जनता दल (यूनाइटेड) गठजोड़ को पिछले दस साल में दो बार तोड़ कर और भाजपाई राजनीति में कर्पूरी ठाकुर के नाम और नीति का समावेश कर भाजपा ने दिखा दिया कि वह न केवल हिन्दुत्व बल्कि उस सोशल-इंजीनियरिंग की चिंता भी करती है, जिसका दावा समाजवादी करते थे।

कर्पूरी ठाकुर के दो राजनीतिक शिष्य लालू प्रसाद और नीतीश कुमार क्रमश: केंद्रीय मंत्री रहे। उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिलाने की कभी कोई  पहल नहीं की। भाजपा ने उसे संभव किया। उत्तर प्रदेश और बिहार में सवर्ण-संघी वर्चस्व को समाप्त कर उपेक्षित पिछड़ों को आगे किया। एक ताजा उदाहरण देखा जा सकता है। बिहार में सामाजिक न्याय का साइनबोर्ड लगाए दलों ने चार  में से तीन राज्य सभा उम्मीदवार सामान्य यानी अपर कास्ट संवर्ग से बनाए, वहीं भाजपा ने अपने दोनों उम्मीदवार अत्यंत पिछड़े संवर्ग से बनाए। मतदाता तो यह सब देखता है।

शायद यही कारण है कि समाजवादी संततियां अपने तंग जातिवादी दायरे में सिमटती जा रही हैं और हिन्दुओं के बड़े हिस्से पर भाजपा का प्रभाव गहराता जा रहा है। विरु द्धों के बीच सामंजस्य को सामाजिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने संभव कर दिखलाया है। सामान्य संवर्ग की सवर्ण और ओबीसी-दलित संवर्ग की उपेक्षित जातियों को एक मंच पर लाकर ओबीसी के वर्चस्वशाली हिस्से को, जो एक समय सोशलिस्ट राजनीति के हिरावल हुआ करते थे, हाशिए पर ला दिया है। द्विजों का गंवार तबका आज भी मोदी के साथ है। हां, होशियार तबके में क्षोभ जरूर है। कम-से-कम आगामी चुनाव तक मोदी अपनी सफलता बनाए रखेंगे ऐसी उम्मीद की जा सकती है। कांग्रेस के पास फिलहाल वह बौद्धिक क्षमता नहीं दिख रही है।

प्रेमकुमार मणि


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