धर्म : समाज से दंड और भेद मिटाने होंगे
आजकल रामराज्य की खासी चर्चा है। अयोध्या में प्रभु श्री राम के मंदिर के निर्माण को रामराज्य की स्थापना का संकेत माना जा रहा है।
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आखिर रामराज्य क्या है और इसकी जरूरत क्यों है, इन सवालों पर धरती पर सबसे पहले उत्पन्न होने वाले पहले पुरुष महाराज मनु ने भी विचार किया था। उन्होंने न केवल इन सवालों पर विचार किया था बल्कि धरती पर रामराज्य की स्थापना का मार्ग भी प्रशस्त किया था। सनातन धर्म के अनुसार मनु, शतरूपा जी के साथ पृथ्वी पर स्वयं उत्पन्न हुए थे। इन दोनों से ही संसार के बाकी जनों की उत्पत्ति हुई। दुनिया के पहले पुरुष होने के कारण वह मानव जाति के आदिपुरु ष कहलाते हैं।
उन्होंने मनुस्मृति ग्रंथ लिखा। इस स्मृति में उन्होंने मनुष्य के कर्मो के लिए एक प्रकार का संविधान लिखा था। वर्णाश्रम व्यवस्था में चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र तथा चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के लिए सारे दिशा-निर्देश लिखे थे, ताकि मनुष्य इनका पालन कर खुशी से अपना जीवन व्यतीत करे। महाराज मनु के शासनकाल में सर्वोच्च कोटि की व्यवस्था थी। राजनीति के चारों चरण-साम, दान, दंड और भेद व्याप्त थे। उन्होंने राष्ट्र का संचालन अपने बनाए संविधान के अनुसार किया। महाराज मनु ने महसूस किया कि राष्ट्र का संचालन बहिरंग दृष्टि से तो बहुत अनुकूल चलता हुआ प्रतीत होता है परंतु उनके जीवन में संतोष और सुख की अनुभूति नहीं हो रही। साथ ही इतनी सुंदर व्यवस्था भी आत्म संतुष्टि नहीं दे पा रही। कहीं पर भी व्यवस्था अच्छी होने पर आरामदायक तो हो सकती है, मगर अंदर से भी सुख और संतोष दे ये अनिवार्य नहीं है। अत: उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को सगुण रूप में प्राप्त करने का निर्णय लिया और अपनी पत्नी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य वन में जाकर कठोर तपस्या की। फलस्वरूप उन्होंने दशरथ जी और शतरूपा ने कौशल्या जी के रूप में जन्म लिया। उनके यहां निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप में श्रीराम के रूप में प्रकट हुए।
इतनी सुदृढ़ व्यवस्था होने पर भी महाराज मनु को शांति और संतोष क्यों न था? इसलिए मनु जी ने एक ऐसे राज्य की कल्पना की जहां पर कोई भी व्यवस्था न करनी पड़े। मनुष्य अंदर से ही इतना बदल जाए की इस प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता न पड़े और यह सिर्फ श्रीराम ही कर सकते हैं। तभी उन्होंने तपस्या कर के राम को पुत्र रूप में प्राप्त किया। राम को राज्य मिलने में विघ्न आया। क्योंकि जब तक अयोध्या में लोभ रूपी कैकयी और ईष्र्या रूपी मंथरा हैं, रामराज्य कैसे स्थापित हो सकता है।
इन दो मतों के इलावा सारे मत श्रीरामजी के साथ थे, परंतु श्रीराम बहुमत को नहीं पूर्णमत को मानते हैं और वनवास को अपनाते हैं। क्योंकि मात्र अयोध्या में रामराज्य स्थापित करना उनका उद्देश्य नहीं था। लंका के जनों को भी संत में परिवर्तित किए बिना रामराज्य का सपना अधूरा रहता। रावण के दो दूत शुक और सारण तीन दिन तक वानरों के साथ रहे परंतु वानर उन्हें पहचान ना सके। ऐसी सुरक्षा व्यवस्था थी रामजी की सेना की, परंतु ये दोनों श्रीरामजी की बड़ाई करते हुए पकड़े जाते हैं और फिर रावण के दूत ना होकर रामजी के दूत बन जाते हैं। ऐसा ह्रदय परिवर्तन रामजी ही करते हैं। दिलों को जीत कर ही रामराज्य स्थापित हो सकता था। दूसरी तरफ रावण की व्यवस्था में श्री हनुमानजी मच्छर के रूप में भी लंकिनी द्वारा पकड़े जाते हैं और परिणाम में वह लंकिनी भी रामभक्त हो जाती है।
तुलसीदासजी कहते हैं कि रामराज्य में राजनीति के केवल दो चरण थे और इसमें दंड नीति और भेद नीति का सर्वथा अभाव था। अगर लोग संन्यासियों के हाथ में दंड नहीं देखते तो शायद दंड शब्द को ही भूल जाते। संगीत में अगर सुर ताल का भेद नहीं होता तो भेद शब्द भी भूल जाते। दंड और भेद नीति का उपयोग केवल पशुता को नियंत्रित करने के लिए है अर्थात रामराज्य की राजनीति केवल दो चरणों पर टिकी हुई थी।
तुलसीदास जी का मानना था अगर राजनीति पशुवत होगी तो चार चरणों की आवशकता है और अगर मानव राजनीति होगी तो उसको केवल दो चरण ही चाहिए। रामजी ने समाज से दंड और भेद हटा दिए क्योंकि अगर जब तक दंड और भेद रहेंगे मानव समाज पूर्ण नहीं होगा। जीव में जब तक ईष्र्या रूपी मंथरा है, लोभ रूपी कैकई है, मोह रूपी रावण है, काम रूपी मेघनाथ है, अहंकार रूपी कुंभकरण है, अभिमान रूपी बाली है, वासना रूपी सूर्पनखा है, तब तक रामराज्य की स्थापना एक स्वप्न है। रामराज्य में कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं थे और ना ही न्यायालय थे। सब निवासी अपने अपने कर्तव्य में लीन थे।
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