हल्द्वानी हिंसा : आखिर कब जागेंगे हम

Last Updated 15 Feb 2024 01:33:52 PM IST

जब हम देश को विकसित बनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं तो हल्द्वानी शहर जैसी घटनाएं हमें सोचने पर विवश करती हैं कि क्या हम वास्तव में उज्ज्वल भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं?


हल्द्वानी हिंसा : आखिर कब जागेंगे हम

कुछ दिन पहले उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में सरकारी जमीन से अतिक्रमण हटाने की कोशिश में भड़की हिंसा में 5 लोगों की जान चली गई और बड़ी संख्या में पुलिसकर्मी घायल हुए थे। ऐसी घटनाएं हमें विचलित ही नहीं करतीं, बल्कि समाज के समक्ष अनेक यक्ष प्रश्न भी खड़े करती हैं, जिनके उत्तर हमें तलाशने ही होंगे। देश भर में सरकारी भूखंडों को अवैध कब्जों से कैसे मुक्त कराया जा सकता है? सड़क के बीचों-बीच धार्मिंक निर्माण होने से पैदा होने वाली अतिक्रमण की समस्या से कैसे निजात पाई जा सकती है? स्थानीय सरकार अतिक्रमणों के प्रति उदासीन क्यों हैं?  अतिक्रमणों पर समाज मौन क्यों है?

देश भर में वन विभाग, रेलवे और राजस्व विभाग के भूखंड भूमाफिया स्थानीय सरकार के कर्मचारियों के साथ मिलकर बेच देते हैं। धीरे-धीरे लोग इन जमीनों पर झोपड़ियां और फिर बाद में पक्के घर बना लेते हैं। यह प्रकिया एक दिन या एक साल की नहीं है, बल्कि सालों-साल चलती रहती है। इसके बाद वे अन्य सुविधाओं की मांग करने लगते हैं। जब इन अतिक्रमणों को हटाने की बात आती है तो विवाद उत्पन्न हो जाता है। लोग कोर्ट पहुंच जाते हैं। यहां निवास करने वाले लोग कोर्ट को बताते हैं कि इन स्थानों पर 40-50 सालों से रह रहे हैं।  

बिजली-पानी का कनेक्शन भी स्थानीय सरकार दे चुकी होती है। इस स्थान के पते पर ही उनके राशनकार्ड और आधार पहचान पत्र भी बन चुके होते हैं। स्थानीय सरकार के किसी भी कर्मचारी द्वारा कभी भी किसी तरह की आपत्ति दर्ज नहीं की करवाई जाती। इन स्थितियों में इन लोगों को हटाना और भी मुश्किल हो जाता है। दिल्ली से लेकर बेंगलुरू, कोलकाता, मुंबई सहित पूरे देश में प्रत्येक शहर अलग-अलग तरीके से अतिक्रमण की समस्या से जूझ रहा है।  बड़े शहरों में मलिन बस्तियां होना आम बात है। इस पूरी प्रक्रिया को राजनीतिक संरक्षण से भी प्रोत्साहन मिलता हैं। अतिक्रमण वाले स्थान पर यदि धार्मिंक इमारत बन जाती है तो यह मुद्दा और भी अधिक संवेदनशील हो जाता है। इससे समाज के आपसी विश्वास और सद्भावना के संबधों पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगीकरण में तेजी से वृद्धि के साथ ही भूमि अतिक्रमण की समस्या भी तेजी उभर रही है।

कैग की रिपोर्ट के अनुसार जून, 2017 तक कुल 2.05 लाख हेक्टेयर या सात प्रतिशत सरकारी भूमि अतिक्रमण के अधीन थी। देश की लगभग 7,400 वर्ग किमी. वन भूमि पर अतिक्रमण है। अतिक्रमण से संबधित कोर्ट में सर्वाधिक मामले रेलवे की जमीन को लेकर हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद स्थानीय सरकारें इस समस्या को जड़ से खत्म नहीं कर पा रही हैं। इससे सामाजिक-आर्थिक, दोनों प्रकार की लागत कई गुना बढ़ जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अतिक्रमण की घटनाएं घटने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। इसका दुष्परिणाम होता है कि पर्यावरण से संबंधित अनेक समस्याएं भी पैदा होने लगती हैं। शहरों में होने वाले जलभराव की समस्या के पीछे अतिक्रमण बड़ा कारक है। अतिक्रमण अधिनियम के तहत अतिक्रमण करने वालों पर भारतीय दंड संहिता के अनुसार दंड का प्रावधान है। कोर्ट अतिक्रमणकर्ता को अतिक्रमण से हुए नुकसान की भरपाई का आदेश दे सकता है।

अदालतों के निर्णयों की समीक्षा से स्पष्ट होता है कि सार्वजनिक हितों को धार्मिंक स्थलों की चिंताओं से हमेशा आगे रखा गया है। कोर्ट का स्पष्ट रूप से मानना है कि सार्वजनिक भूमि का अतिक्रमण कर धार्मिंक स्थल का निर्माण करके विकासात्मक गतिविधियों में बाधा नहीं डाली जा सकती। लंबे समय से कब्जाई गई जमीनों से अतिक्रमण हटाना आसान नहीं होता। कोर्ट-कचहरी की अपनी लंबी प्रक्रिया है। कोर्ट हमेशा मानवीय आधार पर विचार करता है, जिसका सारा आर्थिक भार समाज पर पड़ता है। भूमि अतिक्रमण सामाजिक-राजनीतिक तनाव भी पैदा करते हैं। समुदायों के बीच संघर्ष यहां तक कि हिंसा होते भी देर नहीं लगती। विवाद की स्थिति में सार्वजनिक भूमि और संसाधनों का नुकसान होता है। यह कहानी अपने अलग-अलग रूपों में  75 वष्रो से चली आ रही है। भूमि के उचित रिकॉर्ड की कमी का लाभ लेकर अतिक्रमणकर्ता अतिक्रमण को बढ़ावा देते हैं।  

भूमि रिकॉर्ड की एक उचित प्रणाली बनाए जाने से न सिर्फ  पारदर्शिता बढ़ेगी, बल्कि सार्वजनिक जागरूकता के साथ सख्त कानूनों और नियमों को लागू करना भी आसान होगा। इसके लिए स्पष्ट नीति बनाते हुए सभी सरकारी भूमि का सर्वेक्षण और मानचित्र तैयार कर समस्त रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण किया जाना चाहिए। इससे अतिक्रमण के मामलों की पहचान आसान होगी। रितखोरी और भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगेगी। अतिक्रमणकर्ता हतोत्साहित होंगे। सरकारी जमीन पर अतिक्रमण का मामला संज्ञान में जल्दी आएगा और तत्काल प्रभाव से कब्जाधारियों के खिलाफ कार्रवाई हो सकेगी। नगर पंचायत, नगर पालिका, नगर निगम आदि के कर्मचारियों की जिम्मेदारी निर्धारित कर उन्हें अवैध कब्जे के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।

स्थानीय सरकार को इसे अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को मानते हुए सुनिश्चित करना होगा कि सरकारी या सार्वजनिक संपत्ति पर अतिक्रमण न हो। भूमि अतिक्रमण से संबंधित मामलों के त्वरित और निष्पक्ष समाधान को बढ़ावा देना होगा। जिन उद्योगों में कर्मचारी अन्य स्थान अथवा दूसरे राज्य से कार्य करने के लिए आते हैं, उन पर ही जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए कि वे अपने कर्मचारियों के लिए रहने की सुविधा भी उपलब्ध करवाएं। लोगों को भूमि अतिक्रमण के कारण पर्यावरण और समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को बारे में भी जागरूक किया जाना चाहिए। समाज को समझना होगा कि भारत को विकसित राष्ट्र बनाने में अवैध धार्मिंक इमारतों से अधिक आर्थिक विकास का मापदंड महत्त्वपूर्ण है। लोग ईमानदारी और दृढ़ संकल्प के साथ मिलकर काम करें तो वे भारत में अधिक टिकाऊ और जिम्मेदार भूमि उपयोग संस्कृति बनाने में सहयोगी हो सकते हैं।

डॉ. सुरजीत सिंह गांधी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment