प्राण-प्रतिष्ठा : बेवजह का विवाद

Last Updated 15 Jan 2024 12:58:15 PM IST

आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में भगवान श्री राम के विग्रह की प्राण-प्रतिष्ठा को लेकर जो विवाद पैदा हुए हैं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है शंकराचार्यों का वो बयान जिसमें उन्होंने इस समारोह का बहिष्कार करने का निर्णय लिया है। उनका विरोध इस बात को लेकर है कि इस प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में वैदिक नियमों की अवहेलना की जा रही है।


प्राण-प्रतिष्ठा : बेवजह का विवाद

गोवर्धन पीठ (पुरी, ओडिसा) के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी का कहना है, ‘मंदिर नहीं, शिखर नहीं, शिखर में कलश नहीं-कुंभाभिषेक के बिना मूर्ति-प्रतिष्ठा?’

प्राण-प्रतिष्ठा के बाद प्रभु श्री राम के शीर्ष के ऊपर चढ़ कर जब राज मजदूर शिखर और कलश का निर्माण करेंगे तो इससे भगवान के विग्रह का निरादर होगा। बाकी शंकराचार्य ने भी वैदिक नियमों से ही प्राण-प्रतिष्ठा की मांग की है और ऐसे ही कई कारणों से स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी ने भी इस समारोह की आलोचना की है। इस विवाद के दो पहलू हैं जिन पर यहां चर्चा करेंगे।
पहला, चारों शंकराचार्य निर्विवाद रूप से सनातन धर्म के सर्वोच्च अधिकृत मार्ग निर्देशक हैं। सदियों से पूरे देश का सनातनधर्मी समाज इनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानता आया है। किसी धार्मिंक विषय पर संप्रदायों के बीच मतभेद हो जाए तो उसका निपटारा भी यही शंकराचार्य करते आए हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये संन्यास की किस परंपरा से आते हैं।

आदि शंकराचार्य ने ही इस भेद को समाप्त कर दिया था। जब उन्होंने, ‘अहम ब्रह्मास्मि’ का तत्व ज्ञान देने के बावजूद ‘विष्णु षट्पदी स्तोत्र’ की रचना की और ‘भज गोविन्दम’ गाया, इसलिए पुरी शंकराचार्य जी का आरोप गंभीर है कि 22 जनवरी को होने वाला प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम सनातन हिन्दू धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है, इसलिए हिन्दुओं का वह वर्ग जो सनातन धर्म के सिद्धांतों में आस्था रखता है, पुरी शंकराचार्य से सहमत है। शंकराचार्य जी ने इस तरह किए जा रहे प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम के भयंकर दुष्परिणाम सामने आने की चेतावनी भी दी है।

दूसरा पक्ष अपने तर्क लेकर खड़ा है। इस पक्ष का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने प्रबल इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए और सभी संवैधानिक व्यवस्थाओं को अपनी लक्ष्य-प्राप्ति के लिए साधते हुए इस भव्य मंदिर का निर्माण करवाया है और इस तरह भाजपा समर्थक हिन्दू समाज को चिर-प्रतीक्षित उपहार दिया है, इसलिए उनके प्रयासों में त्रुटि नहीं निकालनी चाहिए।

इस पक्ष का यह भी कहना है कि पिछली दो सहस्रब्दियों में भारत में जैन, बौद्ध, सनातन, सिख या इस्लाम, ये सभी धर्म तभी व्यापक रूप से फैल सके जब उन्हें राजाश्रय प्राप्त हुआ। जैसे सम्राट अशोक मौर्य ने बौद्ध धर्म फैलाया, सम्राट चंद्रगुप्त ने जैन धर्म अपनाया और फिर इसके विस्तार में सहयोग किया। कुषाण राजा ने पहले सनातन धर्म अपनाया फिर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। मुस्लिम शासकों ने इस्लाम को संरक्षण दिया और अंग्रेजी हुक्मरानों ने ईसाईयत को। इसी क्रम में आज मोदी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा राजसत्ता का उपयोग करके हिन्दुत्व की विचारधारा को स्थापित कर रहे हैं, इसलिए हिन्दुओं का एक महत्त्वपूर्ण भाग इनके साथ कमर कस के खड़ा है, पर इसके साथ ही देश में यह विवाद भी चल रहा है कि हिन्दुत्व की इस विचारधारा में सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों की उपेक्षा हो रही है जिसका उल्लेख हिन्दू धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज ने साठ के दशक में लिखी अपनी पुस्तक ‘आरएसएस और हिन्दू धर्म’ में शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर बहुत स्पष्टता से किया था। जिस तरह के वक्तव्य पिछले दो दशकों में आरएसएस के सरसंघचालक और भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने दिए हैं, उनसे स्पष्ट है कि हिन्दुत्व की उनकी अपनी परिकल्पना है, जिसके केंद्र में है हिन्दू राष्ट्रवाद, इसलिए वे अपने हर कृत्य को सही ठहराने का प्रयास करते हैं। चाहे वो वैदिक सनातन धर्म की मान्यताओं और आस्थाओं के विपरीत ही क्यों न हो। आरएसएस और सनातन धर्म के बीच यह वैचारिक संघर्ष कई दशकों से चला आ रहा है। अयोध्या का वर्तमान विवाद भी इसी मतभेद के कारण उपजा है। फिर भी हिन्दुओं का यह वर्ग इसलिए भी उत्साहित है कि प्रधानमंत्री मोदी ने हिन्दुत्व के जिन लक्ष्यों को लेकर गांधीनगर से दिल्ली तक की दूरी तय की थी, उन्हें वे एक-एक करके पाने में सफल हो रहे हैं। इस अति उत्साह का एक कारण यह भी है कि पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों ने धर्म के मामले में सहअस्तित्व को केंद्र में रख कर संतुलित नीति अपनाई। इस सूची में भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हैं जिन्होंने ‘राज धर्म’ की बात कही थी पर मोदी जी दूसरी मिट्टी के बने हैं। जो ठान लेते हैं, कर गुजरते हैं।

फिर नियम-आलोचनाओं की परवाह नहीं करते। ऐसे में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को अपनी तरह से आयोजित करने में उन्हें कोई हिचक नहीं है क्योंकि यह उनके राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति का एक माध्यम है। देश की आध्यात्मिक चेतना को विकसित करना उनके कार्यक्रम का उद्देश्य नहीं है। रही बात परमादरणीय शंकराचार्यों के सैद्धांतिक मतभेद की तो दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हिन्दू समाज ने इन सर्वोच्च धर्मगुरुओं से वैदिक आचरण सीखने का प्रयास नहीं किया। पिछले सौ वर्षो में शंकरार्यों की ओर से भी वृहद् हिन्दू समाज को जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया। कारण: सनातन धर्म के शिखर पुरुष होने के नाते शंकराचार्यों की अपनी मर्यादा होती है, जिसका वे अतिक्रमण नहीं कर सकते थे।

इसका एक कारण यह भी है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज की न तो आध्यात्मिक गहराई में रुचि है और न ही क्षमता। उनके लिए आस्था का कारण अध्यात्म से ज्यादा धार्मिंक मनोरंजन व भावनात्मक सुरक्षा पाने का माध्यम है, पर राजसत्ता वास्तव में सनातन धर्म की स्थापना करना चाहती तो शंकराचार्यों को यथोचित सम्मान देती। हिन्दुत्व की विचारधारा सनातन धर्म के मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित नहीं है। यह राजनैतिक विचारधारा है जिसके अपने नियम हैं और लक्ष्य हैं। श्री राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन को खड़ा करने के लिए आरएसएस, विहिप व भाजपा ने हर संत और संप्रदाय का द्वार खटखटाया था। सभी संतों और संप्रदायों ने सक्रिय होकर इस आंदोलन को विश्वसनीयता प्रदान की थी। दुर्भाग्य है कि आज शंकराचार्यों जैसे अनेक सम्मानित संत और विहिप, आरएसएस व भाजपा आमने-सामने खड़े हो गए हैं।

विनीत नारायण


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