श्रम शक्ति : उम्मीद तलाशते प्रवासी मजदूर
नौ गंवा (जिला बांदा, उत्तर प्रदेश) के भैयादीन लक्ष्मण हैदराबाद में निर्माण मजदूर के रूप में प्रयासरत थे जब अचानक लॉकडाऊन घोषित हो गया।
श्रम शक्ति : उम्मीद तलाशते प्रवासी मजदूर |
इस स्थिति में 16 दिन तक यात्रा कर वह अपने गांव में पहुंचे। इसमें अनेक दिनों तक उन्हें पैदल चलना पड़ा, कुछ यात्रा ट्रक पर की। पैर सूज गए, छाले पड़ गए। भूखे पेट देर तक रहना पड़ा। पुलिस ने वापस लौटने को कहा तो किसी तरह छिपकर यात्रा जारी रखनी पड़ी। गांव पहुंचने पर 15 दिन क्वारंटीन में स्कूल में रहना पड़ा।
इसी गांव के प्रवासी मजदूर पप्पू को सूरत से गांव आने में उस समय और भी ज्यादा दिन लगे। उसका अनुमान है कि कोई 700 किमी. तक तो पैदल ही चलना पड़ा और भटकते हुए आना पड़ा। इसी जिले के भंवरपुर गांव में महेश प्रसाद अहिरवार को दिल्ली से गांव तक पत्नी और बच्चों सहित बहुत कठिनाई की स्थिति में लौटना पड़ा।
इन कठिन स्थितियों में एक उम्मीद तब उत्पन्न हुई जब जनहित से जुड़े कुछ व्यक्तियों और संस्थाओं ने इन मजदूरों तक खाद्य और अन्य राहत सामग्री पहुंचाई। ऐसी एक संस्था विद्याधाम समिति ने खाद्य पहुंचाने के साथ अनेक गांवों में किचन गार्डन भी आरंभ किए ताकि सब्जियों के रूप में बेहतर पोषण भी उपलब्ध हो। भंवरपुर गांव में लौटते हुए प्रवासी मजदूरों को संस्था ने प्रेरित किया जिससे गांव में लुप्तप्राय हुई नदी घरार को पुनर्जीवित करने के लिए प्रयास किए गए। यह एक बड़ी बात थी कि जो मजदूर थकी-हारी पस्त हालत में गांव लौटे थे, उन्होंने 52 सदस्य समिति बना कर श्रमदान आरंभ किया। जंगली पौधे हटाए, गंदगी हटाई, दिन प्रतिदिन मेहनत से खुदाई की।
एक महीने की मेहनत के बाद यह श्रमदान सफल हुआ, नदी की खोई हुई धारा फिर प्रकट हुई। सरकारी प्रयास से इस कार्य को कुछ और आगे बढ़ाया गया तो इसका लाभ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के पांच-छह गांवों तक पहुंच गया। जो भूमि ऊसर पड़ी थी, उस पर भी खेती होने लगी थी। जहां पहले से खेती होती थी, वहां डेढ़ गुणा उत्पादकता बढ़ गई। प्यासे पशुओं को भी पानी मिलने लगा। कुओं का जलस्तर बढ़ गया।
इन गांवों में उत्साह की नई लहर थी पर तभी न जाने किस इंजीनियर की गलती से एक ऐसा निर्माण कार्य करवा दिया गया जिससे नदी जीवित करने में प्रमुख सहयोग देने वाला गांव भंवरपुर ही अब बाढ़ की संभावना से संकटग्रस्त हो गया। यहां के जिन दलित मजदूरों ने बहुत उत्साह से नदी को नया जीवन दिया था अब उनके घर अधिक वष्रा होने पर बाढ़ से उजड़ सकते हैं। इस संभावना से वे आहत हैं और एक स्वर से कह रहे हैं कि इस नये निर्माण को हटाकर हमें गंभीर बाढ़ की संभावना से राहत दिलवाओ। उनका कहना है कि हमने पुरस्कार योग्य श्रमदान किया, नदी को नया जीवन दिया, तो फिर हमें दंडित क्यों किया जा रहा है।
इस मुद्दे को व्यापक संदर्भ में देखें तो जरूरत इस बात की है कि जिन गांवों में निर्धनता और अभाव की मजबूरी के कारण बड़े पैमाने पर मजदूरों और छोटे किसानों का पलायन हो रहा है, वहां स्थानीय स्तर पर टिकाऊ विकास को अधिक मजबूत किया जाए। विभिन्न सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन पूरी ईमानदारी से और सही भावना के अनुकूल होना चाहिए। प्रयास यह हो कि मजदूर बहुत शोषण करने वाले कायरे के लिए मजबूर न हों। यदि वे कुछ अग्रिम राशि लेकर ईट भट्टों आदि में कार्य के लिए जाते हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि बिना उचित हिसाब के और न्यूनतम मजदूरी दिए ही उनका शोषण होता रहे, जैसा कि आज अनेक स्थानों पर हो रहा है। प्रवासी मजदूरों का रजिस्ट्रेशन होना चाहिए और कानून-विरोधी शोषण होने पर उनकी शिकायत दर्ज होने और उनके बचाव की कार्यवाही की व्यवस्था होनी चाहिए। प्रवासी मजदूरों के बच्चों की शिक्षा ठीक से कैसे हो सके, इस पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
कभी गांव में तो कभी शहर में ईट-भट्टे में रहने वाले परिवार के बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था इस तरह करनी होगी जिससे अनेक कठिन स्थितियों में यह भली-भांति जारी रह सके। जिन बूढ़े असहाय माता-पिता को प्रवासी मजदूर गांव में छोड़कर बाहर निकलते हैं, उन पर भी ध्यान देना होगा ताकि वृद्धावस्था में वे बुरी तरह अभावग्रस्त न हो जाएं। उनके लिए पेंशन की योजना इस समय है, पर इसका लाभ कुल जरूरतमंदों में से बहुत कम लोगों तक पंहुच रहा है। इसमें सुधार की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के अनुसार प्रवासी मजदूर अपनी मेहनत से देश की जीडीपी का 10 प्रतिशत उपलब्ध करवाते हैं, पर उनके दुख-दर्द और समस्याओं को कम करने पर अब और अधिक ध्यान देना बहुत जरूरी हो गया है और इसके लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयास की जरूरत है।
रेलगाड़ी किसी बड़े स्टेशन के पास पहुंचने वाली होती है तो अनेक यात्रियों के मोबाइल यह संदेश देने लगते हैं कि हमें लेने के लिए गाड़ी यहां भेज दो। अधिकांश अन्य यात्री भी इस बारे में आस्त होते हैं कि अपनी लंबी रेलयात्रा के बाद उन्हें कहां जाना है, रहना है। पर प्राय: रेलगाड़ियों में कुछ यात्री ऐसे भी होते हैं जिन्हें कुछ अंदाज ही नहीं होता कि जिस बड़े शहर में वे जा रहे हैं उन्हें वहां कहां रहना है और कहां रुकना है। जरा सोचिए तो सही कि किसी नई अनजान जगह पर कोई आ रहा हो और उसे पता ही न हो कि कहां जाना है, कहां आश्रय मिलेगा, कहां और कैसे रात गुजरेगी तो उसकी कैसी मन स्थिति होगी। पर अनेक प्रवासी मजदूर इस हालत में ही शहरों में रोज आते हैं और उनमें से कुछ तो वर्षो तक बेघर ही बने रहते हैं।
सरकार को जितने भी बेघर लोग हैं उनकी उचित संख्या का अनुमान लगाना चाहिए तथा इसके अनुकूल सुविधाएं उपलब्ध करवानी चाहिए। रैन बसेरों की संख्या बढ़ानी चाहिए तथा उनकी हालत में सुधार होना चाहिए। वहां सोने की जगह, बिस्तरों और शौचालयों की ठीक से सफाई सुनिश्चित होनी चाहिए। महिलाओं के लिए अलग से रैन बसेरे होने चाहिए। पुरुषों और महिलाओं के लिए कुछ रैन बसेरे पास-पास में भी बनने चाहिए जिससे बेघर परिवारों के सदस्यों को एक दूसरे से अलग होकर दूर न जाना पड़े। अपना थोड़ा बहुत, हल्का सामान यहां सोने वाले रख सकें, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। रैनबसेरों में रहने वाले लोगों की रात सुरक्षित बीत सके, इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। रैन बसेरों को चलाने में बेघर लोगों के ही कुछ प्रतिनिधियों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए।
कई रिक्शा चालक, पानी की टंकी वाले, ठेले वाले अपने रिक्शा या टंकी को असुरक्षित छोड़कर रैन बसेरों में नहीं आ सकते हैं। यदि संभव हो तो रैन बसेरों के बाहर इन्हें सुरक्षित रखने की व्यवस्था हो। जहां यह संभव नहीं हो, वहां रिक्शा चालकों को अपने वर्तमान विश्राम स्थल पर ही पालीथीन की शीट, बांस, टिन आदि से अस्थायी आश्रय स्थल बनाने की इजाजत दी जाए। इसके साथ शहरी निर्धन वर्ग के आवास के लिए व्यापक प्रयास होंगे तो उससे प्रवासी मजदूरों को सहायता मिलेगी। रैन-बसेरे तो अस्थायी व्यवस्था है, आगे चलकर उचित और कम खर्च के आवास की व्यवस्था तो होनी ही चाहिए।
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